हैदराबाद : अंतरराष्ट्रीय हिन्दी दिवस के उपलक्ष्य में आयोजित त्रिदिवसीय अनुवाद संगोष्ठी का आज भव्य समापन हुआ। 8 से 10 जनवरी तक चले इस संगोष्ठी में अनुवाद से संबंधित कईं आयामों पर गहराई से चर्चा की गई। प्रपत्र, आभासी मंच द्वारा दूरवर्ती विद्वानों से ज्ञानवर्धन, चर्चा-परिचर्चा कार्यक्रम, कार्यशाला जैसे कईं मंचों से अनुवाद के बदलते परिप्रेक्ष्य एवं उभरती संभावनाओं के अनेक अवसर प्रस्तुत हुए। कार्यक्रमों की अध्यक्षता डॉ चंद्रा मुखर्जी व डॉ संगीता व्यास ने किया। साथ ही इन सत्रों का संचालन डॉ अजय कुमार, प्रो मुक्तावाणी ने कार्यक्रम का संचालन किया।

इस संगोष्ठी के समापन सत्र की अध्यक्षता प्रो. सी कासिम, प्राचार्य, आर्ट्स कालेज उस्मानिया विश्वविद्यालय ने की। उन्होंने संगोष्ठी की सफलता पर सबको बधाई दी। इस अवसर पर कासिम ने कहा कि साहित्यकार के पास दिल और दिमाग (मस्तिष्क) होता है। साहित्यकार ही समाज का सही मार्ग दर्शन कर सकता है। कुछ डॉक्टर के पास अच्छा दिमाग होता है, लेकिन दिल नहीं होता है। दिमाग वाले डॉक्टर मरीज को इलाज से पहले काउंटर पर पैसे जमा करने का सुझाव देते है। वहीं दिल वाले डॉक्टर मरीज को पहले ऑपरेशन थिएटर ले जाते है और इलाज के बाद पैसे जमा कराने के बारे में समझाते है। साहित्यकार के पास दिल और दिमाग होता है। इस बात को ध्यान में रखकर ही वह रचना करता है और करना चाहिए।



इस समापन संगोष्ठी में प्रोफेसर अफसर उन्नीसा बेगम, सीएच राधिका, डॉ नरसिंह राव कल्याणी, डॉ पी माधवी, डॉ वरप्रसाद बासला, डॉ पूनम कुमारी, डॉ जी एन जगन, डॉ मधुकर राव, शोध छात्र प्रवीण कुमार, मिलि पांडे, अनुप कुमार, संजय कुमार गुप्ता और अन्य वक्ताओं ने अपने विचार व्यक्त किये। वक्ताओं ने कहा कि इस वैश्विकरण युग में अनुवाद पैसे कमाने का अच्छा साधन बन गया है।

अनुवाद अन्य रचनाओं को जोड़ने का कार्य करता है। बिना अनुवाद के विश्व अधुरा है। मशीनों का अनुवादक को सहायता लेना चाहिए। लेकिन उस पर ही निर्भर नहीं रहना चाहिए। क्योंकि मशीनों के अनुवाद से खतरा भी उत्पन्न हो सकता है। भाषा का विस्तार किसी का मोहताज नहीं है। अनुवादक को अध्ययन करने पर सफलता मिलती है। इसके चलते विश्व साहित्य का भारतीय साहित्य पर पड़ा है।

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साहित्यकारों ने आगे कहा कि एआई से अनुवाद और अन्य कार्य होते हैं। लेकिन वह लोगों की दिल को नहीं छू पाती है। वह अनुवाद अच्छा दिखाई गेता है, मगर खतरा भी साथ में रहता है। अनुवादक को इससे बचना चाहिए। इंसान मस्तिष्क के बराबरी एआई कभी नहीं कर सकता है। विद्वान का अनुवाद ही उच्च कोटि होता है।

अनुवादक का अनुवाद कौआ और कोयल की तरह सरल और पहचान करने वाला होना चाहिए। कुछ भाषाओं के शब्दों का अनुवाद करना कठिन ही नहीं, बल्कि असंभव है। ऐसे समय अनुवाद को मूल भाषा के साथ सोच समझकर अपनी भाषा में न्याय करना चाहिए।

वक्ताओं ने यह भी कहा कि अनुवाद से भौगोलिक विस्तार होता है। भारत में अनुवाद देश के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका है। अनुवाद से हम पूरे संसार को देख और समझ सकते हैं।

इसलीए अनुवादक को तटस्थ होकर अनुवाद करना चाहिए। वर्ना अनुवाद अच्छा नहीं कहलाएगा। मूल कविताओं का अनुवाद भावनात्मक तौर पर किया जाना ही बेहतर होगा। क्योंकि भूल भाषा के शब्द अन्य भाषा में नहीं मिल सकते है।

केन्द्रीय हिन्दी निदाशालय के उप निदेशक हुकमचंद मीणा ने निदेशालय रिपोर्ट प्रस्तुत किया। प्रो. माया देवी, हिन्दी विभागाध्यक्ष, उस्मानिया विश्वविद्यालय एवं प्रो. संगीता व्यास, बी ओ एस, हिन्दी विभाग ने संगोष्ठी की सफलता एवं कार्यक्रम के आयोजन का विवरण प्रस्तुत किया। इस संगोष्ठी में प्रति दिन लगभग सौ से अधिक प्रतिभागियों ने भाग लिया। समूची संगोष्ठी में 50 से अधिक प्रपत्र प्रस्तुत किए गए और प्रतिदिन सौ से अधिक प्रतिभागियों ने भाग लिए।

इस दौरान कहानीकार एन आर श्याम की ‘खदान@1982’, लेखक, साहित्यकार और कवि देवा प्रसाद मयला की ‘जीवन धारा’, डॉ टी लक्ष्मी की ‘मिट्टी का चूल्हा. (मूल तेलुगु कहानीकार डॉ तुम्मला रामकृष्ण), साहित्याकर, डॉ सुरभि दत्त और अन्य साहित्यकारों की पुस्तकों का लोकार्पण किया गया।

संगोष्ठी संयोजिका डॉ. अनुपमा ने संगोष्ठी का प्रतिवेदन प्रस्तुत किया। प्राचार्य डॉ. एम. रामचन्द्रम, डॉ के प्रभु और डॉ. सी कामेश्वरी के लगातार सहयोग और उत्साहवर्धन को उन्होंने इस संगोष्ठी के क्रियान्वयन का कारण बताया। प्राचार्य प्रो. रामचन्द्रम तथा प्राचार्य प्रो. के प्रभु ने संगोष्ठी की उपलब्धियों को रेखांकित किया। कार्यक्रम में प्रपत्र वाचन करने वाले प्रतिभागियों को प्रमाणपत्र दिए गए। डॉ. प्रवीन राजू, जे एल हिन्दी, जी.डी.सी. मलकपेट ने धन्यवाद ज्ञापन दिया।


