प्रोफेसर ऋषभदेव शर्मा की पुस्तक ‘इक्यावन कविताएँ’ की डॉ सुषमा की शोधपूर्ण समीक्षा, पढ़ेंगे तब ही जानेंगे

कवि ऋषभदेव शर्मा (ज. 1957) की “इक्यावन कविताएँ” (सं. गोपाल शर्मा; 2023; कानपुर: साहित्य रत्नाकर) ज्ञान की, अनुभूति की, आक्रोश की, परिवर्तन की तथा शाश्वत मूल्यों की स्थापना हेतु प्रतिबद्ध  हैं। इस संग्रह में जितनी भी कविताएँ हैं, वे कुछ अलग कहना चाहती हैं और कवि की रचनाधर्मिता की एक समग्र तथा समेकित छवि प्रस्तुत करने में समर्थ हैं।

कवि की रचनाधर्मिता का एक अत्यंत मुखर आयाम समाज-समीक्षा और व्यवस्था विरोध का है। संग्रह की पहली कविता ‘कुत्ता गति’ में कवि ने समकालीन जीवन स्थिति की विषमता का चित्रण कुत्तों के आतंक के सहारे यथार्थ के धरातल पर  किया है, तो आगे ‘प्रमाद’ में प्रेम के व्याज से व्यवस्था के दोहरेपन को उजागर किया है :

‘मिट्टी का मिथ्या अभिमान;

तुम्हारी दिव्यता के प्रसाद को

समझ लिया था –प्रेम!’ (पृष्ठ-35)

‘काव्य को अंगार कर दे,भारती’ शीर्षक तेवरी में कवि ने अपने तीखे तेवर दिखाए हैं। सबके सजग बनने की कामना की है। ‘अब न बालों और गालों की कथा लिखिए’ में वर्तमान परिदृश्य का ऐसा रूप कवि ने उकेरा है, जहाँ हर शब्द चीखते हुए, मानवता की स्थापना की गुहार लगा रहा है। तेवरी  ‘कल धमाके में मरा जो, कौन था? पूछा जभी’ सामयिक परिवेश पर आधारित है। साँप और बिच्छू के प्रतीक यहाँ अत्यंत समीचीन है।

‘परी की कहानी’ कविता के द्वारा कवि ने एक साथ कई विडंबनाओं पर चिंता प्रकट की है। वर्तमान परिवेश में सत्ता और आम आदमी के बीच का संबंध हो या फिर भूमंडलीकरण और मध्यम वर्ग की स्थिति की बात अथवा किसी शक्तिशाली देश की विस्तारवादी नीति की बात, कवि की कल्पना परी को उस जगह पर रखती है, जहाँ वह आम आदमी को लुभाती है।  जैसे सत्ता में आने से पहले राजनेता लुभाते हैं और आम आदमी को ऐसा लगता है कि वे इंद्रधनुषी आसमान में सैर कर रहे हैं, जो कि वास्तविकता की दुनिया में कभी संभव नहीं हो पाता है। जब तक आम इनसान को समझ आता है, परी उसके पर कुतर चुकी होती है। उसकी भावनाओं, महत्वाकांक्षाओं, जिजीविषा  तथा जीने के उत्साह, आशा और आकांक्षा के पर कुतरे जा चुके होते हैं। उदाहरण के लिए, श्रीलंका को एक समय यही लग रहा था कि शीघ्र ही चीन की मदद से वह तरक्की के चरम को छू लेगा, लेकिन चीन की ही ‘कृपा’ से रसातल में पहुँच गया।

हमारे देश में मुफ्तखोरी की जो आदत जनता को लग रही है, उसके पीछे-पीछे आने वाले समय में स्थितियों की भयावहता की कल्पना भी नहीं की जा सकती। ‘द्वा सुपर्णा’ के द्वारा देश में व्याप्त आर्थिक असंतुलन को चित्रित किया गया है, तो ‘कंगारू’ और ‘गलगोड्डा’ जैसी कविताओं में कवि ने सभ्यता की राह में अवरोधक बने लोगों की खबर ली है। ‘चिनार’ कविता के छोटे से आकार में कवि ने प्रतिरोध और विद्रोह के स्वर फूँके हैं। लगता है, चिनार के पत्तों के पाँच कोने मानव की कर्मशील पाँच उँगलियों के प्रतीक बन गए हैं। ‘सूरज होने का दर्द’ एक दृष्टि में सूरज की आपबीती-सी प्रतीत होती है, तो दूसरे ही क्षण हर उस व्यक्ति की पीड़ा व्यक्त करती है, जो संघर्षों के लावे में जलकर जीवन की ऊँचाई को छू सका है। एक अंश देखें:

‘सूरज है!

यों अपनी पीड़ा

कहाँ-कभी-किससे कहता है?

सारे-सारे दिन दहता है।’ (पृष्ठ-77)

‘कपाल-स्फोट : भूख और कुर्सी’ कविता में कवि ने राजनीति के क्रूर पाश में जकड़ी कुर्सी के वीभत्स चेहरे को दिखाने का प्रयत्न किया है। इसके लिए ‘कथा सरित्सागर’ की एक प्रेत-कथा का सटीक इस्तेमाल पाठक को चकित भी करता है और रोमांचित भी। राजनीति के प्रति अपनी जुगुप्सा को कवि इन पंक्तियों में अभिव्यक्त करते हैं;

 ‘तुम्हारा

इतना ही महत्व है कि मुझे

तुम्हारे कपाल के लहू से

कुर्सी की नींव सींचनी है।’ (पृष्ठ-79)

कवि समाज के हर उस पक्ष के ऑपरेशन में लगे हुए हैं, जिससे सामाजिकता और मानवता को हानि पहुँचती है।

‘नर पिशाच’ कविता में क्रूरता के उस रूप का चित्रण किया गया है, जहाँ दूसरों के अस्तित्व को मिटा कर व्यवस्था के मालिक सदा शोषण के लिए तत्पर रहते हैं। शोषण की ऐसी स्थितियों को इन पंक्तियों में देखा जा सकता है-

‘रक्तपान कर

 मैं

बन गया हूँ पिशाच

लटका अंधकूप में उल्टा

अब शव- भक्षण की बारी है।’ (पृष्ठ-86)

‘चर्वणा’ कविता में भी शोषकों की विद्रूपता को कवि रेखांकित करते हैं। ‘अतिवादी की चुप्पी’ कविता मानव की अधिकार-लिप्सा की उस प्रवृत्ति को प्रदर्शित करती है, जो उसे क्रूर और हिंसक तक बना देती है। ‘कापालिक बंधु के प्रति’ कविता में कवि आत्मनिर्वासन और अकेलेपन से जूझती नई पीढ़ी को काल्पनिकता के संसार से निकलकर यथार्थ की दुनिया में आने के लिए बुलाते हैं। वे जीवन मूल्यों की पुनर्प्रतिष्ठा की आकांक्षा में घर, परिवार, मित्रता, प्यार, समाज और संसार में लौटने की गुहार लगाते हैं। वे कहते हैं-

‘तुम घेर लिए गए हो अकेले।

अकेले मारे जाओगे

धतूरे के इस जंगल में

यों….आओ….लौट आओ….

घर में…. परिवार में….

समाज में ….संबंधों  में ….

लौटो,

लौट आओ कापालिक बंधु’ (पृष्ठ-96)

‘धर्मयुद्ध जारी है’ कविता में धर्मांधता के नग्न नृत्य को कवि चित्रित करते हैं। धर्म के नाम पर पाखंड करने वालों को लताड़ते हुए कवि उनकी खबर लेते हैं। ‘नस्ल के युद्ध हैं’ कविता में कवि ने रंग, धर्म, जाति-भेद करने वालों को फटकार लगाई है। कवि ने इसमें पेट को देश से बड़ा मानकर उस अंधकूप को भरने वालों की स्थिति का चित्रण किया है। ‘मारणास्त्र’ कविता में युद्धोन्मादी संस्कृति के पोषक उन सभी को आड़े हाथों लिया है, जो भावी समाज के विनाशक बने हुए हैं। अपने-अपने उन्माद में वे देश, मानव विकास के सहस्रों  वर्षों के क्रम को मटियामेट करने पर तुले हैं।

वर्तमान युग में समझौतों, संविदाओं का इतना बोलबाला है कि मानव राजनीति, धर्म और रिश्ते की गहराई को विस्मृत करते जा रहे हैं। ‘अवशेष’ कविता में यही द्रष्टव्य है। ‘बहरापन: पाँच स्थितियाँ’ कविता में कवि यथार्थ के धरातल पर  विविध स्थितियों का जायजा लेते हैं। संसद में जनप्रतिनिधि, सड़क पर जनता, कार्यालय में सत्ताधीश  सभी बहरेपन का  नाटक कर रहे हैं, तो कवि भी ललकारते हुए गलत के विरुद्ध अपनी आवाज बुलंद करते हुए कहते हैं, यदि अपनी इंद्रियों का सही प्रयोग सही स्थान पर और सही समय पर किया तो ही मानव जाति की रक्षा संभव है। अन्यथा-

‘धूल, धुआँ, गुब्बार

 तेजाब ही तेजाब

 रेडियोधर्मी विकिरण

 तपता हुआ ब्रह्मांड का गोला

फटने लगे हैं

अंतरिक्ष के कानों के परदे,

चीख़ती  है निर्वसना प्रकृति

….और…

दिशाएँ बहरी हैं !’ (पृष्ठ-124)

‘गोलमहल’ कविता कई प्रतिमानों को समेटे हुए हैं। शासन तंत्र, नौकरशाही, शिक्षा तथा आम आदमी के जीवन को कवि शब्दों के पर्दे में रखकर परोसते हैं। इस स्थिति से निजात तो तभी मिलेगी जब 

‘इसको दफ़न करें मिट्टी में

 बन जाने दें- खाद!’ (पृष्ठ-125)

‘मूर्तिपूजकों से’ कविता के द्वारा भाव बिना भजन करने वालों से कवि कहते हैं-

‘मैं अकेला हूँ

कोई मुझे पहचानता तक नहीं

xxxxx

सब पूजते हैं प्रतिमाओं को

मुझे कोई नहीं।’ (पृष्ठ-116)

‘अनुपस्थित’ कविता में धरती का स्वर्ग कहे जाने वाले कश्मीर के स्थिति चित्रण को सहजतापूर्वक प्रस्तुत किया गया है।

उल्लेखनीय है कि कवि ऋषभदेव शर्मा को प्रबल स्त्रीपक्षीय साहित्यकार के रूप में भी जाना जाता है। संग्रह की ‘मुझे पंख दोगे?’ कविता के माध्यम से स्त्री की स्थिति को व्यक्त किया गया है। कविता की इस पंक्ति में स्त्री विमर्श के यथार्थ स्वरूप को देखा जा सकता है;

‘कल मैंने धरती माँगी थी,

 मुझे समाधि मिली थी;

आज मैं आकाश माँगती हूँ,

 मुझे पंख दोगे?’ (पृष्ठ-38)

‘हे अग्नि‘ कविता में कवि ने अपनी दार्शनिकता से भरी हुई विचारधारा का परिचय दिया है। कवि स्त्री-शक्ति का आवाहन करते हुए कहते हैं-

‘जागो, आज फिर, खांडवप्रस्थ फैला है दूर-दूर

डँसता है प्रकाश की किरणों को, फैलाता है अँधेरे  का जाल

उगलता है भ्रम की छायाओं को।’ (पृष्ठ-40)

कवि ऋषभदेव शर्मा स्त्री के मानवी स्वरूप की स्थापना हेतु सदैव आकुल दिखाई देते हैं। ‘औरतें औरतें नहीं हैं’ कविता में स्त्री के जीवन के जुगुप्सक क्षणों को चित्रित करते हुए कवि उन्हें देश, जाति तथा राष्ट्र के समान कल्पित करते हैं, तभी तो वे कहते हैं-

‘औरतें देश होती हैं

औरतें होती हैं जाति,

औरत राष्ट्र होती है।’ (पृष्ठ-49)

वे उन्हें सभ्यता, संस्कृति से भी आगे देवत्व का प्रतीक मानते हुए मनु के ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यंते’ की विचारधारा को पुनः प्रतिष्ठापित करते हैं। इसलिए उन्होंने औरतों की हार को मानवता की हार माना है।

‘गुड़िया-गाय-गुलाम’ कविता स्त्रियों के शोषित जीवन की तीन स्थितियों को स्पष्ट करती है,जो बचपन से शुरू होकर जीवनपर्यंत चलती रहती हैं। कवि का मानना है कि जब तक वे स्वयं इसके विरुद्ध सजग होकर आवाज नहीं उठाएँगी, यह सब चलता रहेगा। ‘स्वेच्छाचार’ कविता में कवि ने स्त्री के सशक्त रूप से डरे समाज के तथाकथित सुधारकों के मुखौटे उतारने का प्रयत्न किया है। कवि ने उस सशक्त स्त्री को मीरा और राधा में स्पष्ट  देखा है। ‘लाज न आवत आपको’ में कवि ने तुलसीदास के जीवन की घटना के बहाने पुरुष की आदिम प्रवृत्ति की बखिया उधेड़ी है। कवि दुनिया भर की स्त्रियों से एक साथ अपने अधिकारों के लिए सामने आने के लिए कहते हैं। ‘अश्लील है तुम्हारा पौरुष’ में कवि कहते हैं-

‘अश्लील हैं वे सब रीतियाँ

जो मनुष्य और मनुष्य के बीच भेद करती हैं

अश्लील हैं वे सब  किताबें

जो औरत को गुलाम बनाती हैं

और मर्द को मालिक

 नियंता।’ (पृष्ठ-59)

‘कई नाम दिए उन्होंने मुझे’ में भी माँ, बहन, पत्नी, बेटी तथा अंत में वेश्या नाम देकर हर रूप में स्त्री की उपेक्षा करते हुए उन्हें भोगने की प्रवृत्ति को कवि लानत भेजते हैं। ‘गाड़िया लुहारिन का प्रेमगीत’ कविता पितृसत्ता  की विचारधारा के पोषकों पर कटाक्ष के रूप में प्रस्तुत है। कविता के अंत में रांगेय राघव की कहानी ‘गदल’ की हल्की सी गूँज सुनी जा सकती है। ‘सहृदय’ में कवि ने कविता के रूपक के सहारे स्त्री की योग्यता की उपेक्षा करने वालों को जासूस, जज  और जल्लाद की संज्ञा के अभिहित किया है। इसी प्रकार ‘चूहे की मौत’ कविता में चूहे और एक स्त्री के जीवन की साम्यता को देखा जा सकता है। दूसरी ओर कविता नौकरशाही की ओर भी विचारवीथिका को खोलती है। कवि की अभिव्यक्ति संश्लिष्ट तथा अनुभूति अत्यंत गंभीर एवं गहनता से परिपूर्ण है।

समकालीन सरोकारों और स्त्री प्रश्नों से जूझने के साथ ही ऋषभदेव शर्मा कोमल मनोभावों और मार्मिक प्रेमानुभूति के चितेरे के रूप में भी प्रतिष्ठित हैं। विद्रूप ही नहीं, सौंदर्य और औदात्य को भी उन्होंने सार्थक अभिव्यक्ति प्रदान की है। इस लिहाज से ‘स्पर्श’ कवि की अति संवेदनशीलता को अभिव्यक्त करती हुई कविता है। यह कविता स्पर्श के बारे में उतनी नहीं, जितनी अ-स्पर्श के बारे में है; मन के अनछुए रह जाने के बारे में है-

‘बहुत छूता था तुम्हें मैं पहले / और सोचता था/ तुम पुलकित हो रहे होगे।/ पर उस दिन/ तुम्हारे/ रोष की रोशनी में/ दिखाई दिए मुझे/ तुम्हारी त्वचा पर पड़े हुए/ असंख्य नीले निशान!/  तो क्या/  इतने दिनों मैं/ तुम्हारी केवल त्वचा छूता रहा,/ तुम्हें / एक बार भी नहीं छू सका?’ (पृष्ठ 80)

इसी तरह ‘पछतावा’ कविता में दांपत्य जीवन में संवाद के महत्व को निरूपित किया गया है, तो ‘निवेदन’` में कवि ने स्त्री-पुरुष संबंधों की बड़ी सुंदर झाँकी प्राकृतिक उपादानों का सहारा लेते हुए प्रस्तुत की है और प्रेम को आध्यात्मिक औदात्य प्रदान किया है।

‘विस्मरण’ कविता में कवि ने माता और संतान के मध्य मार्मिक संबंधों को उकेरा है। जीवन की भाग-दौड़ में मानव कितना विवश होता जा रहा है! ‘माँ अंतिम क्षण की प्रतीक्षा में थी/मुझे ट्रेन पकड़नी थी’(पृष्ठ-132) काव्यांश पूरी कविता की आत्मा बन जाता है। यह इस संग्रह की सबसे मार्मिक कविता है। इसी के साथ, ‘मृत्यु आती है’ कविता को पढ़कर एकबारगी ‘अज्ञेय’ की कविता ‘नदी के द्वीप’ का स्मरण हो आता है। कवि मृत्यु का स्वागत एवं आह्वान करते हुए उसे मुक्तिदाता के रूप में संबोधित करते हैं। मृत्यु को माँ के रूप में कल्पित करना, भारतीय आध्यात्मिकता की अनुभूति कराता है।

कवि का जीवन दर्शन भी इस संग्रह कविताओं में अनेक स्थलों पर झलकता है। छोटी कविता ‘क्षणिक’ के द्वारा कवि ने जीवन की नश्वरता को बिजली की कौंध के रूपक में बाँधा है। ‘बुद्ध’ के द्वारा बुद्धत्व की अभिलाषा करते हुए कवि कहते हैं;

‘सभी के दुख दर्द के साक्षी

एक बूढ़े वटवृक्ष की छाँह में

किसी कृषकबाला के परोसे अन्न में

निर्वाण के सूत्र ढूँढ़ते हैं

अपनी पहचान ढूँढ़ते हैं

सत्य का दर्शन करते हैं

और नई लीक खींचते हैं

मनुष्य की मुक्ति के पथ में।’  (पृष्ठ-45)

‘दुआ’ कविता के द्वारा स्वयं के होने की सार्थकता की आकांक्षा प्रकट की गई है, तो ‘भाषाहीन’ कविता में अपनी आत्मा की आवाज पर चलने की प्रेरणा दी गई है। स्वयं से दूर मानव सब प्राप्त कर लेने की भाग-दौड़ में भटकता जा रहा है। कवि कहते हैं-

‘भटक रही हूँ बदहवास आवाजों के जंगल में

मुझे भूलनी होंगी  सारी  भाषाएँ

पिता का खत पढ़ने की खातिर।’ (पृष्ठ-122)

‘घर बसे हैं’ कविता एकबारगी ‘बच्चन’ की कविता ‘नीड़ का निर्माण फिर-फिर’ को स्मृति में ला देता है।  घर का अस्तित्व मानव समाज के विकास क्रम में आदिम युग से रहा है। वर्तमान समाज में घर-परिवार के बदलते अर्थ घर को बसने से नहीं रोक सकेंगे। ये घर पत्थर, तंबू, शीशमहल, झोंपड़ी, छप्पर और न जाने कितने रूपों में मानव के सपने को पालते हैं। घर टूटते-बिखरते, स्वयं को सहेजते हुए अपने अस्तित्व को सार्थकता प्रदान करते हैं। कवि का मानना है कि-

‘आपसी सद्भाव, माँ की

मुट्ठियों में

घर कसे हैं,

क्यों भला अचरज

कि अब तक

घर बसे हैं-

घर बचे हैं !’ (पृष्ठ-115)

‘स्वागत नव वर्ष!’ में कवि ने भारतीयों को अपनी संस्कृति से जुड़े रहने की प्रेरणा दी है। अन्य संस्कृति को अपनाने से कवि को कोई परहेज नहीं है, किंतु अपनी संस्कृति की तार्किक उपादेयता की उपेक्षा करने वालों के लिए यह कविता कवि की मीठी झिड़की-सी प्रतीत होती है।

कवि ऋषभदेव शर्मा की कविताओं में जिजीविषा, जूझ और चुनौती के सकारात्मक स्वर खूब ऊँची तान में सुनाई पड़ते हैं। बहुत बार तो  कवि का निजी व्यक्तित्व उनके कृतित्व को अनुप्राणित करता दिखाई देता है। ‘सूँ-साँ माणस गंध’ कविता में कवि एक जिम्मेदार कर्मयोद्धा की तरह काल को चुनौती देते हुए से प्रतीत होते हैं। उन्हें स्वयं के अभिमन्युपन की अनुभूति है, फिर भी व्यवस्था की सड़ांध को कवि चक्रव्यूह मानकर भेदने हेतु तत्पर हैं। जो लोकतंत्र और न्याय की हत्या करें, कवि उन सबके विरुद्ध दृढ़ता के साथ खड़े हैं। वे कहते हैं-

‘प्रासंगिक है तो केवल

तुम्हारा आसुरी उन्माद

प्रभुओं की नपुंसकता

और मेरी अभिमन्युपन की

शाश्वत माणस गंध!!’ (पृष्ठ-82)

इसी तरह ‘ओ मेरे महाप्रभुओ!’ कविता में जाति, धर्म, वर्ग के नाम पर अमानवीयता का तांडव करने वालों को खुली चुनौती देते हुए कवि जन-जन को संप्रभु बनकर ऐसे मानव  समाज की सर्जना करने की प्रेरणा देते हैं, जहाँ वे कहते हैं-

‘सभी महाप्रभु खाली कर दें मेरी धरती,

 मुझे उगाना है एक जातिहीन मनुष्य…

धर्मों से परे!’ (पृष्ठ-135)                                                                                

मेरी दृष्टि में, यही इस कविता संग्रह का मनुष्यता के हक़ में सर्वाधिक प्रासंगिक संदेश है। लगता है कि कवि ऋषभदेव शर्मा हर स्थिति में हर किसी से बतियाने के लिए तत्पर हैं, फिर चाहे वह आम हो या खास। साथ ही, यह कहना भी ज़रूरी है कि इस काव्य संग्रह की प्रत्येक कविता का चयन संपादन कला की प्रशंसा करने पर विवश कर देता है। निस्संदेह, इस संग्रह की प्रत्येक कविता पाठकों की विचार-वल्लिका को पुष्ट करने में सहायक होगी।

– समीक्षक डॉ सुषमा देवी

भवंस विवेकानंद कॉलेज, सिकंदराबाद, तेलंगाना -500094.

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