विश्व की अकेली संस्कृति “सनातन संस्कृति” जहां नश्वर शरीर का परित्याग कर चुके पूर्वजों, पितृपक्ष और मातृपक्ष की कम से कम तीन पीढ़ियों (स्व पक्ष, ससुराल पक्ष, ननिहाल पक्ष अर्थात समष्टि भाव) को स्मरण करने, पूजन, वंदन, तर्पण करने की अनवरत परम्परा चलती चली आ रही है। अन्य तथाकथित विकसित कहे जानेवाले सभ्यता- संस्कृतियों में तो मां-बाप को जीवित ही वृद्धाश्रम पहुंचा दिया जाता है। धन्य है सनातन संस्कृति, धन्य हैं इसे प्रारंभ करने वाले ऋषि और मनीषीगण जिन्होंने पूर्वजों को सम्मान देने और उनके प्रति कृतज्ञ रहने का नैतिक पाठ पढ़ाया, संस्कार रूप में उसे पालन करने की एक स्वस्थ प्रथा चलाई। उन्हे कृतज्ञता पूर्ण सादर नमन, कोटिश: वंदन।
उदारता और श्रद्धा से मनाना चाहिए
एक सनातनी होने के कारण भारत वर्ष में इस परम्परा को अत्यन्त उदारता और श्रद्धा से मनाना चाहिए। पितरों के बाद ही मातृ पर्व, शक्ति उपासना का पर्व “नवरात्र” का शुभागमन हो जाता है। बिना पितरों को संतुष्ट किए मां कभी प्रसन्न नही होती। इसे याद रखना चाहिए। संस्कृति के कुशल संवाहक बनिए, आलोचक नहीं। पितृ ऋण और राष्ट्र ऋण को सतत याद रखना चाहिए। अवसर मिलते ही सौभाग्य समझकर इसे प्रसन्नता के साथ निभाना चाहिए, इस ऋण से उऋण हो जाना चाहिए।
पितृ / पितर कौन?
“जगतः पितरौ वंदे पार्वती परमेश्वरौ”। पितृ, पितर या पूर्वज केवल निजी माता-पिता, मातामही-पितामह, प्रमातामही-प्रपितामह का युग्म ही नहीं हैं। विचार पूर्वक पीछे भूतकाल पर दृष्टिपात करने पर पूर्वजों की यह श्रृंखला मानव जगत, अर्द्धमानव, पशुजगत, बहुकोशीय जीव से एक कोशीय जीव जंतु, वनस्पति जगत, पंचमहाभूत और इसके भी आगे सूक्ष्म जगत, कारण तक जाती है। ये सभी हमारे पितृ हैं, पितर है, पूर्वज है। पितृ पूजन और श्राद्ध (श्रद्धा) हमे प्रकृति पूजा, प्रकृति पोषण, पर्यावरण संरक्षण तक जाने अनजाने पहुंचा देता है। यह हमारी संवेदना और कृतज्ञता का उर्ध्वमुखी विकास है। प्रश्न उठता है, हमें यह कार्य कबतक करना चाहिए? इसका उत्तर है- व्यशेम देवहितम यदायु: अर्थात् जबतक आयु शेष है, जबतक शरीर स्वस्थ है, तबतक देवहित, प्राकृतहित के लिए कार्य करते रहना है, लगातार, अविराम।
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एक पखवाड़े का “पितृपक्ष”
यह एक पखवाड़े का “पितृपक्ष” तो मात्र सांकेतिक है, वार्षिक अनुष्ठान है, किसी रिफ्रेशर कोर्स जैसा। सनातन संस्कृति में जहां मातृदेवी, पितृदेव, अग्निदेव, वरुण देव, पवन देव, धरती मां, गंगा मां, गोमाता, तुलसी माता विराट प्रकृति की देवरूप में परिकल्पना, संकल्पना है क्या वहां अशांति, कलह, कोलाहल, प्रदूषण के लिए कोई स्थान है? किंतु आज अशांति है और अस्वस्थता भी चतुर्दिक मुंह फैलाए खड़ी है। अरे! विधर्मियों की बात छोड़िए, कितने सनातनी इस “पितृपक्ष” को तत्वतः जानते, मानते हैं? और जानें भी कैसे? यह न तो उनकी पाठ्य पुस्तकों में है, न ही दैनिक घरेलू दिनचर्या में? हम, आप अभिभावक भी इस बिंदु पर एकबार आत्मनिरीक्षण करें। हम यदि अपनी स्वस्थ परंपराओं से हटते रहे, निष्क्रिय होते रहे तो धन- धान्य, भौतिक सम्पदा चाहे जितना अर्जित कर लें। न शान्ति सद्भाव मिलेगा, न ही स्वाथ्य। धन से आप औषधि तो क्रय कर सकते हैं, स्वास्थ्य और शांति नहीं।
जगत: पितरौ वंदे पार्वती परमेश्वरौ
हमें स्वास्थ्य और शांति के लिए परिवार, समाज और प्रकृति के प्रति संवेदनशील होना ही पड़ेगा- न चान्य पंथा: कोई अन्य दूसरा मार्ग नहीं है। एक संवेदी व्यक्ति न मातृद्रोही हो सकता है, न पितृद्रोही, न राष्ट्र द्रोही और न ही प्रकृतिद्रोही। यहीं से सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे संतु निरामया: की सर्व कल्याणकारी भावना प्रस्फुटित होती है। जगत कल्याण के लिए शिवम् के अधिष्ठान देव की उपासना में सनातनी मानस प्रवृत्त हो उठता है और उसका अंतःकरण बोल उठता है- जगत: पितरौ वंदे पार्वती परमेश्वरौ। स्व के कल्याण के लिए नहीं, संपूर्ण चराचार जगत के कल्याणार्थ। यह सनातन संस्कृति का अपना एक अनुपम वैशिष्ट्य है। अन्यत्र किसी भी सभ्यता-संस्कृति में ऐसी उद्दात्त भावना कहीं नहीं दिखती।
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कर्मफल और पुनर्जन्म
संदर्भ वश, अज्ञानतावश या द्वेशवश कुछ विचारक कहते है कि भारतीय संस्कृति के ही यशस्वी विचारक (महात्मा बुद्ध) न आत्मा को मानते हैं, न पुनर्जन्म को और न ही इस “पितृपक्ष को ही। तो आइए इस बिंदु पर भी कुछ विचार कर ही लेते हैं। महात्मा बुद्ध ने भारतीय संस्कृति के चारों प्रमुख स्तंभों को स्वीकार किया था। ये चार स्तंभ हैं- आत्मा, पुनर्जन्म, कर्मफल और मोक्ष। प्रारम्भ चौथे संकल्पना मोक्ष से प्रारम्भ कीजिए। मोक्ष को ही अपनी विशिष्ट शब्दाली में उन्होंने “निर्वाण” कहा है। ध्यान रहे “निर्वाण” शब्द वैदिक है, इसकी अवधारणा वृत्तियों का शान्त हो जाना, बुझ जाना है। कर्मफल और पुनर्जन्म को भी मानते थे, बिना ज्ञानयुक्त कर्म के निर्वाण की प्राप्ति नहीं। पुनर्जन्म न हो इसलिए “निर्वाण” पद प्राप्ति की आवश्यकता है। अब बात “आत्मा” की, आत्म तत्त्व की।
पुनरोद्धार का बीड़ा
सिद्धार्थ से बुद्ध, बुद्ध से भगवान बुद्ध, तथागत तक की उपाधियों के बीच भगवान बुद्ध अपने जीवनकाल में सदा इन दार्शनिक प्रश्नों पर कभी भी अपना दृष्टिकोण खुलकर नहीं रखा और इन प्रश्नों के उत्तर में प्रायः “मौन” ही रहे। मौन रहना ‘न खुला समर्थन है, ‘न खुला विरोध’। वे शाश्वतवाद और उच्छेद्वाद जैसे दो परस्पर विरोधी विचारधारों से सहमत हो भी नहीं सकते थे और मध्यम मार्ग के पक्षधर थे। अब प्रश्न यह है कि उच्छेद, विनाशी तत्त्व का पुनर्जन्म तो हो नहीं सकता, यह तो तभी सम्भव है जब परमतत्व को अजर, अमर, अविनाशी माना जाय। उनकी घोषणा- “जबतक विश्व में दुख होगा / यह बुद्ध नहीं मुक्त होगा / मैत्रेय रूप में आएगा / सबको निर्वाण दिलाएगा”। क्या यह इस बात को सिद्ध नहीं करता कि वे एक अविनाशी अमृत तत्व और पुरजन्म में विश्वास करते थे। भले उसे आत्म तत्व खुलकर नहीं कहा हो। तात्कालिक परिस्थितियों में कहीं अपरिपक्व जनमानस पुनः उन्ही कुप्रथाओं, कुरीतियों मे पुनः न जकड़ जाए जिससे मुक्त कराने, पुनरोद्धार का बीड़ा उन्होंने उठाया था, इसलिए ऐसे प्रश्नों पर ‘मौन’ साध लिया था।
बोधगया
आज भी “बोधगया” में पितृ तर्पण का प्रथम श्राद्ध “पिण्ड दान” बोधगया स्थित भगवान बुद्ध की प्रतिमा के ठीक सामने बने दिव्य सरोवर के तट पर ही पूरे विधि विधान से, कर्मकांडीय रीति से संपन्न होता है। मैने स्वयं दो वर्ष पूर्व (2022) सपरिवार अपने पूर्वजों का प्रथम पिंडदान इसी दिव्य सरोवर तट पर किया है। वहां का फोटो नहीं लिया जा सकता, वरना दिखाता उसे भी। साधकों के लिए कैमरा, मोबाइल पूर्णतः प्रतिबंधित है, तथापि फोटोग्राफरों और मीडिया कर्मी अपार साधकों, पिंडदानकर्ताओं की भीड़ का चित्र समाचार पत्रों में चर्चा और कौतूहल का विषय बना रहता है। यह तर्पण और पिंडदान की अपार भीड़ भरा श्रद्धा पूर्ण श्राद्ध दृश्य, इस रहस्य को, सच्चाई को खोल देता है।
भगवान बुद्ध
हां, इसे देखने के लिए दूषित नहीं, पवित्र दृष्टि चाहिए; उत्तर मिल जाएगा। सनातनी विचारक सदा से बुद्ध के इस मौन और उनकी मजबूरी दोनों को समझता है, इसलिए सादर उन्हें अपनाया विष्णु का नवा अवतार मानकर स्वीकार भी किया, किंतु राजनीतिक विकारों से ग्रसित इन विकृतमना नव बौद्धानुयाईयो को अब कौन राह दिखाए? कौन समझाए? साधक हों तो इसे समझें भी, कुटिल राजनीति कहां समझने देगी। भगवान बुद्ध को समझने के लिए, पहले सिद्धार्थ को समझना पड़ेगा और सिद्धार्थ को समझने के लिए यशोधरा को; जिसने भोगी सिद्धार्थ को योग और अध्यात्म का दर्शन, दिव्य पाठ पढ़ाया।
सनातन के कर्मकांड
सनातन के कर्मकांड, कुरीतियों को मिटाने के भगवान बुद्ध के प्रयास में उनके अनुयाई ही कितने पाखंड और कुरीतियों में घिर गए हैं, इसे देखकर क्षुब्ध मन से भगवान बुद्ध यदि “मैत्रेय” रूप में आ भी जाएं तो शायद वे ही समझा पाएं, सही राह दिखा पाए उनको। फिर भी एक आधा तो बांधती ही है, उसी आशावाद से प्रेरित होकर अब तो कहना पड़ेगा लौट आओ हे भगवान बुद्ध!, लौट आओ!! “मैत्रेय” रूप में पुनः पधारो! मौन को तोड़ो, उसका निहितार्थ समझाओ, पुनः धरा पर आओ! अपना संकल्प निभाओ। सप्रेम स्वागत आपका, वंदन और अभिनंदन आपका!
पितृ तर्पण
अब आते हैं सनातन धर्म को न मानने वालों के इस “पितृ तर्पण” पर उनके विचारन पर। यह बात ऐतिहासिक प्रमाणित है कि बादशाह शाहजहां को उसके बेटे औरंगजेब ने 7 वर्ष तक कारागार में रखा था। वह उसको पीने के लिए नपा-तुला पानी एक फूटी हुई मटकी में भेजता था तब शाहजहाँ ने अपने बेटे औरंगजेब को पत्र लिखा जिसकी अंतिम पंक्तियां थी-
“ऐ पिसर तू अजब मुसलमानी,
ब पिदरे जिंदा आब तरसानी,
आफरीन बाद हिंदवान सद बार,
मैं देहदं पिदरे मुर्दारावा दायम आब”
अर्थात् हे पुत्र ! तू भी विचित्र मुसलमान है जो अपने जीवित पिता को बूंद – बूंद पानी के लिए भी तरसा रहा है। सहस्र बार प्रशंसनीय हैं वे सनातनी, ‘हिन्दू’ जो अपने मृत पूर्वजों को भी पानी देते हैं।
देश से वृद्धाश्रम का नामोनिशान मिट जाएगा
ऐसा विचार रखने वालों में शाहजहां अकेला व्यक्ति नहीं है। अनेक व्यक्ति मिल जायेंगे, दिख जाएंगे यदि वैचारिक इतिहास के पृष्ठों को पलटा जाय, पढ़ा जाए। नमन है सनातन संस्कृति के इस उदार और सर्व के प्रति कृतज्ञता भाव को। सच मानिए यदि यह भाव जिसदिन व्यापक हो जाए, देश से वृद्धाश्रम का नामोनिशान मिट जाएगा, प्रकृति प्रदूषण जैसी कोई समस्या नहीं होगी। प्राकृतिक सफाई कर्मी काक – कौआ आदि का प्रजननकाल प्रायः वही होता है जो पितृपक्ष का काल होता है। काक, कुत्ते को अन्नदान, पिण्ड, पूड़ी, दही खिलाना कोई अन्धविश्वास नहीं, सफाईकर्मियों की संख्या में यथेष्ठ अभिवृद्धि के लिए पोषण व्यवस्था है। इस छोटे से लेख में अभी इतना ही, फिर कभी विस्तृत वार्ता होगी।
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लेखक डॉ जयप्रकाश तिवारी
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