Deepawali Special: खेती-किसानी और मेहनतकशकों का प्रकाश पर्व है दीपावली (शोधात्मक लेख)

[नोट-शोधात्मक लेख के लिए हम लेखक के आभारी है।]

भारत के अधिकांश त्योहार खेती-किसानी और मेहनतकश लोगों से सीधे जुड़े हैं। ऐसे ही एक त्योहार है प्रकाश पर्व जिसे दीपावली या दिवाली कहते हैं। यही वह समय है जब किसान के खेत से धान आदि अनाज कटकर घर आ चुका होता है। उसी धान से दिवाली के इस त्यौहार में लाई (धान को उबाल कर सुखाकर काड़ी में मूसल से कांड़ कर चावल निकाला जाता है फिर उसे भून्जा जाता है तब जाकर लाई बनती है।) और लावा (धान को सूखने भून्जा जाता है फिर छिलका निकाला जाता है तब जाकर लावा बनता है) और घर में उपलब्ध खोए-चीनी की मिठाई या चीनी से बनने वाला गट्टा व खिलौने (हाथी, घोड़ा सहित तमाम अन्य पशुओं की आकृति रूपी मिठाई) खाए जाते हैं। साथ ही आस-पड़ोस के घर-परिवार में भी अपनी सामर्थ्य अनुसार बांटते हैं (यह आज भी बदस्तूर जारी है)। यह मेहनतकश लोगों की सामूहिकता, बतकही और आपसी मेल-जोल को भी दर्शाता है।

दिवाली पर और बात करेंगे पर धनतेरस (दीपावली से 2-3 दिन पहले खेती का काम बंद कर घर की साफ-सफाई में लग जाते थे, धान से ही धन बना है) की बात करें तो पता चलता है कि इस दिन झाड़ू खरीदने का रिवाज है, टी इसके पीछे का कारण यह प्रतीत होता है कि लोग साल भर झाड़ू (सींक की झाड़ू) का इस्तेमाल करते थे, क्योंकि पहले सींक की झाड़ू ही घरों में इस्तेमाल की जाती थी और धान की फसल काटने तक वह सींक (इस समय तक सींक की फसल तैयार भी हो जाती थी, जिससे झाड़ू बनाया जा सके।) की झाड़ू घरों में इस्तेमाल करते थे इसके बाद यही झाड़ू, धान की फसल को काटकर धान निकालने हेतु खेत में या बाग में खलिहान रखने हेतु ले जाई जाती थी जिसके कारण घिसकर छोटी हो जाती थी और घर बुहारने के लायक नहीं रह जाती थी तो दीपावली से पहले घर बुहारने के लिए सभी लोग झाड़ू अवश्य खरीदते थे। आज वही झाड़ू जो गांवों में लोगों की जरूरत थी वहीं शहरों में खरीदने का फैशन बन गया है। बाद में इसे बर्तन और सोने-चांदी, आभूषण, गाड़ी आदि आदि से जोड़ दिया गया होगा जो आजकल जोरों पर है।

गांवों में बुजुर्गों से बात करने पर भी यही जवाब मिला कि किसान के घर में जब फसलों की पैदावार आती थी तभी वह त्यौहार मनाता था/है। यही बात प्रो. धर्मपाल सांखला (Dharmpal sankhla) जी ने भी बताया- “इस त्योहार को भारत में सिन्धु घाटी की सभ्यता के समय से ही मनाया जाता है वे लोग इसे नववर्ष के रूप में मनाते थे। यह त्योहार सर्द ‌ॠतु के आगमन से भी संबंधित है। गोवर्धन पूजा में कढ़ी और बाजरा पका कर प्रसाद लगाया जाता है। हमने इस त्योहार के बारे में पढ़ते व पढ़ाते समय ये ध्यान नहीं दिया कि इस दिन राम बनवास से अयोध्या आए थे। इस दिन शब्द का अर्थ है कि यह त्योहार पहले भी मनाया जाता था। यह सिन्धु घाटी के द्रविडों का प्रमुख त्योहार था। जिसे ब्रह्मण धर्म ने राम से जोड़ दिया जिस प्रकार सिखों ने इसे अपने 6वें गुरु से जोड़ कर बंदी छोड़ दिवस के रूप में मनाते हैं।”

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दिवाली के इस त्यौहार पर किसान या मेहनतकश लोग खेती-किसानी और रोजी-रोटी से जुड़े यंत्रों आदि पर दिए जलाते थे और उनकी पूजा करते थे। आज भी खेतों (चाहे खेत में कोई भी फसल हो या परती हो या बुआई की तैयारी चल रही हो), पेड़ों, हल-जुआ-पहटा (पाटा), पानी निकालने के लिए उपयोग में लायी जाने वाली घर्राई (घिरनी), घूर (गोबर का ढेर), धोबी घाट, कुआं, चारा काटने की मशीन, जानवरों के खूंटों, नांद, गांव के डीह देवता, गली-रास्ता, बखारी आदि तमाम स्थानों पर दिये जलाए जाते हैं।

यदि राम के अयोध्या में वापस आने की खुशी में ही दीपावली मनायी जा रही होती तो केवल घर और रास्तों पर ही दीपक जलाए जाते, ऐसा सभी लोग करते केवल खेती-किसानी वाले और मेहनतकश लोग ही अपने खेतों और खेती-किसानी से जुड़े स्थानों पर ही दिये क्यों जलाए जाते? दिवाली के ही दिन किसान ऊख/ईख के खेतों में जाकर एक छोर से दूसरे छोर तक बीच खेत से घुसकर क्यों जाते? पूजा में केवल धान से बने लाई और लावा क्यों चढ़ाए जाते? मेहनतकश समुदाय के लोग स्वयं से जुड़ी वस्तुओं की पूजा क्यों करते? यदि दीपावली राम के अयोध्या वापस आने की खुशी में मनायी जाती है तो फिर इस दिन लक्ष्मी की पूजा का क्या औचित्य? राम और सीता की पूजा क्यों नहीं?

यदि लक्ष्मी की पूजा से धन-धान्य आ जाता तो सदियों से मेहनत और खेती-किसानी करने वाला समुदाय आज दो जून के खाने के लिए मोहताज क्यों है? मेरी अम्मा (दादी) दिवाली मनाए जाने के कारण पूंछने पर कहती थीं कि “जब घर मा दाना आय जाथै तौ लोग खुशी मनावथैं और काहे बारे दिवाली मनावथैं?” राम के वापस अयोध्या आने पर दीपावली मनाने जैसी बात उनके ज़ेहन में थी ही नहीं। ऐसे ही बुजुर्ग लोग अभी भी हैं जो दिवाली मनाये जाने के इस कारण के बारे में नहीं जानते।

खेती-किसानी से जुड़े तमाम यंत्रों और स्थानों की पूजा, लाई, लावा और पशुओं की आकृति वाली मिठाइयां इस बात की पुख्ता प्रमाण हैं कि यह त्यौहार विशद्ध रूप से किसानों का त्यौहार है बहुत बाद में इसमें राम के वन से वापस लौटने की कहानी जोड़ी गई होगी, कब जोड़ी गयी? यह ठीक-ठीक नहीं कहा जा सकता। आतिशबाजी भी बहुत बाद में ही आयी होगी, क्योंकि पहले आतिशबाजी का उल्लेख कहीं नहीं मिलता। आज तो दिये का स्थान चाइनीज झालरों और मोमबत्तियों ने ले लिया। अब तो लोग नलों और वाहनों पर भी लोग दिए जलाने लगे हैं उनका क्या?

धोबी लोग इस दिन नदी और तालाब के घाटोईया देवता (जिस घाट या पत्थर पर वे कपड़े धुलते थे, यह घाट उनके लिए इतना वंदनीय होता था कि मज़ाल है कि भला उनके सामने कोई इस पत्थर पर चढ़ जाए या चढ़कर कपड़े धो ले।) की पूजा भी करते थे, ऐसा ही अन्य जातियों के लोग भी करते रहे होंगे। इसी अवसर पर बरसात से खराब होती घर की दीवारों और फर्श पर भी मिट्टी से लिपाई-पुताई की जाती है साथ ही यह मान्यता भी प्रचलित है कि ढेर सारे दिये जलाने से कीट-पतंगे भी जलकर मर जाते।

यह समय खेती से धन-धान्य प्राप्त करने का समय है, जिसका सम्मान दिए से प्रकाशित करके किया जाता है। धान ही धन रहा होगा इसलिए ही केवल धान से बनी वस्तुओं को ही इस दिन की पूजा में शामिल जाता होगा। धन-धान्य के इसी प्रकाशपर्व की आप सभी को बहुत-बहुत बधाई। सभी खेतिहर लोगों और खेत में काम करने वालों का घर धान/धान्य से भरा रहे इसके लिए आप सभी को हार्दिक शुभकामनाएं।

लेखक डॉ नरेन्द्र दिवाकर
मो. 9839675023

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