पुस्तक समीक्षा : ‘कौन-सी कविता होती है पूरी’… में वर्णित विभिन्न विमर्श

शोध सार- कविता साहित्य की वह विधा है जिसके द्वारा मन की भावनाओं को छन्द, लय, ताल के द्वारा साहित्यकार प्रस्तुत करता है। कविता साहित्य की प्राचीन विधा है। एक समय ऐसा था जब केवल कोमलकांत भावनाओं को ही साहित्यकार व्यक्त किया करते थे लेकिन समय परिवर्तन के साथ-साथ कविता के कलेवर में भी परिवर्तन आया है। प्रोफेसर निर्मला मौर्य की कविता संग्रह ‘कौन-सी कविता होती है पूरी’… में कविता के इस नए कलेवर को देखा जा सकता है। आगे प्रस्तुत आलेख में प्रोफेसर मौर्य के कविता संग्रह में जिन नवीन विमर्शों को स्थान मिला है इसका विस्तार विश्लेषण किया गया है।

मूल पाठ

प्रोफेसर निर्मला एस. मौर्य 30 वर्ष के शोध निर्देशन का अनुभव आपके पास है। 60 से अधिक सम्मेलनों, सेमिनारों, कार्यशालाओं और यू.जी.सी. द्वारा आयोजित रिफ्रेशर प्रोग्रामों के विषय विशेषज्ञ के रूप में इन्होंने अपनी उपस्थिति दर्ज कारवाई है। विभिन्न राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पुरस्कारों से वे पुरस्कृत हुई हैं। जब वे कविता लिखने के लिए कवयित्री के पद पर आसीन होती हैं तब कविता लिखने के साथ ही साथ वे मानव जीवन के ऊपर शोध कार्य भी करने लग जाती हैं। उन्हें पता है, ‘मनुष्य का कार्यक्षेत्र बड़ी तेजी से बदल रहा है और कविता अपनी चारदीवारी से बाहर निकल कर विश्व के विशाल प्रांगण में कमर कस कर खड़ी हुई है। बदलती हुई संस्कृति में कविता लेखन की संस्कृति में भी तेजी से परिवर्तन हुआ है’। (1)

उनके द्वारा लिखित कविता संग्रह ‘कौन-सी कविता होती है पूरी’… में 51 कवितायें हैं। मनुष्य जीवन की सम्पूर्ण भावनाओं को लेकर चलनेवाली प्रस्तुत कविता संग्रह में कवयित्री ने पर्यावरण, मनुष्य जीवन, स्त्री विमर्श, राजनीति आदि सभी विषयों को लेकर सचेत हैं। इसी कारण से उनके प्रस्तुत कविता संग्रह में निम्न विमर्शों को देख सकते हैं-
पर्यावरण विमर्श- पर्यावरण विमर्श वर्तमान समय का महत्वपूर्ण विषय है। पृथ्वी का तापमान बढ़ रहा है, पृथ्वी अपनी उत्पादन क्षमता खो रही है, धरती तो छोड़िए विशेषज्ञों की मानें तो आसमान के ओज़ोन लेयर का भी छिद्र बढ़ रहा है। ऐसे में साहित्यकार का दायित्व तो बनता ही है कि अब वह केवल प्रकृति के सुकोमल रूप पर बात न करें बल्कि यह भी लिखें कि-

‘खोजा झरोखा, छोटा सा आंगन
दोनों थे गायब, हुई आनमनी-सी
किरणें समेटी, बढ़ी और आगे
दीवारें खड़ी थीं, इमारतें थीं ऊंची
नहीं खोलते थे अब लोग खिड़की
हवा, पानी और धूप मिले एक दिन
हवा सरसराई धीरे से फुसफुसाई
पानी को हिलाया लहरें उठाई’। (2)

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हवा, पानी, धूप तो आज कंक्रीट के जंगल में बने हुए मकानों के कमरों तक पहुँच ही नहीं पाते हैं। मनुष्य तो यही सोचकर आनंदित है कि वह अपने घर के कमरे में सुरक्षित है लेकिन वास्तव में तो वह सुरक्षा के नाम पर कंक्रीट के जेल में बंद है। वातानुकूलित यंत्रों के कृत्रिम ठंडक से विषपान कर रहा है। 2024 की गर्मी में दिल्ली, नोयडा आदि शहरों में वातानुकूलित यंत्रों में विस्फोट होना कवयित्री की कविता की पंक्तियों को प्रासंगिक वातावरण के साथ जोड़ देता है। 11.6.2024 कोलकाता के पार्क स्ट्रीट का अग्निकांड भी तो ऐसा ही एक उदाहरण है। पेड़ों को काटकर, नदियों के मार्ग को बदलकर मनुष्य स्वयं ही अपने को प्रलय का स्वागत करने के लिए तैयार कर रहा है। मनुष्य तो इस सत्य को समझने के लिए तैयार ही नहीं है। पर साहित्यकार कैसे अपने दायित्व से विमुख हो सकता है? तभी तो कवयित्री ने मनुष्य को सचेत करने के लिए लिखा है-

‘एक सपना बन जाएगी.. सपना बन जाएगी!
झरोखों से खेलती आंगन से उतरती
अठखेलियाँ करती सोने-सी धूप
कहां खो गई है?
शहरों की अट्टालिकाएं खा जाएंगी
धूप को
निगल जाएँगी ऊष्मा’। (3)

प्रकृति तभी बदहवास होती है जब मनुष्य अपनी सीमा का उल्लंघन करता है। दुख की बात यह है कि न तो मनुष्य सचेत है और न ही उसे अपनी गलतियों पर कोई पछतावा है। पर्यावरण विमर्श के अंतर्गत कवयित्री ने मनुष्य की बदहवासी को निम्न रूप में विश्लेषित किया है-

‘मानव मन क्या कभी समझ पाएगा
कि सागर की लहरें कभी गीत गाती हैं
सीना तान लहरों ने मचाई तबाही
और
तोड़े तटबंध हैं
बह गए नगर गाँव छोटी छोटी बस्तियां
कहर ढाती सुनामी प्रलय बन आई है
मानव क्या कभी समझ पाएगा’। (4)

सुनामी ने यह सिद्ध कर दिया है कि अगर मनुष्य अपनी सीमा भूल जाए तो प्रकृति माँ बनकर संरक्षण प्रदान करती है तो प्रलय लाकर तांडव भी कर सकती है। इसलिए अब मनुष्य को सचेत होकर अपनी सुरक्षा के लिए प्रकृति का दोहन रोकना होगा। पर्यावरण विमर्श के अंतर्गत ‘यमुना’ नामक कविता में ‘यमुना’ की सुंदरता को व्यंग्यात्मक शैली में विश्लेषित किया है-

‘पक्षियों को जगाती यमुना बहती चली जाती है।
मन में संतप्त, तन से अकेली यमुना
लीलती सन्नाटा, भीड़ में अकेली
बहती चली जाती है बहती चली जाती है
मंद-मंद बहती यमुना की वेगवती धारा
अपने धवल वस्त्रों में मलिन -सी दिखती है॥ (5)

2.2 स्त्री विमर्श- स्त्री विमर्श और साहित्य दोनों साथ-साथ चलनेवाले विषय हैं। गद्य साहित्य में स्त्री विमर्श के अंतर्गत मुख्यतया आर्थिक असमर्थता, लिंग भेद, हिंसा इन विषयों पर चर्चा की जाती है। पद्य साहित्य में भी इन विषयों को लयात्मक शैली में प्रस्तुत की जाती है लेकिन चूँकि गद्य की तुलना में पद्य कोमलकान्त पदावली को साथ में लेकर चलती है तो यहाँ स्त्री के सौंदर्य को मुख्य विषय के रूप में अपनाया जाता रहा है। कवयित्री ने भी स्त्री विमर्श के अंतर्गत स्त्री के माँ, बेटी आदि रूपों को रेखांकित किया है लेकिन उनकी उपमाएँ ध्यानाकर्षित करनेवाली है। जैसे-

‘पीपल और औदुंबर, पलाश, बरगद प्रतीक हैं चेतना के
बिटिया भी हैती है ऐसी ही,
वह
दादी के बूढ़े हाथों को थाम बिखेरती है दाने
रखती है संस्कारों की नींव’ (6)

बिटिया के बचपन को दर्शाते समय कवयित्री में सुभद्राकुमारी चौहान के समान ही अपने बचपन को फिर से जी लेने की खुशी छलक रही है। बेटी का जन्म घर-घर में हो इस कामना के साथ वे लिखती हैं-
‘तुम्हारी उटंगी फ्राक डगमगाते कदम
मुझे अंदर तक आनंदित कर जाते हैं
ऐ! मेरी नन्हीं परी ऐ!! एंजेल
मुस्कुराकर दरवाजे के पीछे छुप जाना
कभी ठुमकना कभी रूठ जाना
मेरी आत्मा को छू जाते हैं
बिटिया की किलकारी हो हर घर में बिटिया की
किलकारी हो’। (7)

स्त्री विमर्श के अंतर्गत जब कवयित्री स्त्री के ‘माँ’ रूप का विश्लेषण करती है तब ‘माँ’ की तुलना उन्होंने धरती के साथ करते हुए लिखा है-

‘माँ धरती माँ जननी होती है।
वह जगाती है बालक में संवेदनाएं,
जगाती है निद्रा से…
दूर करती है दुख और कष्टों को
माँ धरती होती है जननी होती है
इच्छाएं जगाती है खुशियाँ खिलाती है
घाव पर मरहम लगा बेचैनी भगाती है
माँ’ (8)

‘माँ’ के बिना संतान अकेला है निम्न पंक्तियाँ इस विचार को व्यक्त करने में सक्षम है-
‘हमें जीवन की धूप छांव से बचाती है
जीवन नैया की खेवैया बन
अनजान संसार-सागर से तारती है
माँ
इंद्रधनुषी छटा है
माँ’ (9)

2.3 मानव अस्तित्व विमर्श- आज के वैज्ञानिक युग में मनुष्य भले ही महाकाश में अपने पैरों को जमा लिया है लेकिन धरती पर अपनों के बीच वह बहुत अकेला है। जीवन की आपाधापी में वह अपनी भावनाओं से भी विमुख है, सचेत कवयित्री अपने आसपास के वातावरण से अनभिज्ञ नहीं है। इसी कारण से उन्होंने लिखा है-

‘पूनम की रात एक बार फिर आई है।
प्रेम का संदेशा लाई है
उड़ते अभिलाषाओं के रंग, फूलों की खुशबू
अब अजीब से लगते हैं
पूनम की मनभावन प्यारी-सी सुंदर-सी चांदनी में
नहायी रात काली हो जाती है
रोती है, काली हो जाती है,’। (10)

मनुष्य इतना अकेला क्यों है? इस प्रश्न के अनेकों उत्तर है। उनमें से एक उत्तर यह भी है कि आज का मनुष्य अपनी संस्कृति से विमुख है, अपने गाँव, खेत, खलिहान से विमुख है। अपने जड़ों से विमुख होकर वह केवल भाग रहा है अंतहीन इच्छाओं के पीछे कुछ इस प्रकार से-

‘तालाब में उठने वाली भंवरों की तरह
मन में अनेक प्रश्न
हथेलियों पर उग आते हैं कुकुरमुत्ते- से
कब ध्यान में धर्म आ जाता है, कौन जान पाता है?
उसे भोगना ही नियति जाती है, नियति बन जाती है।
गोबर और गेरू से लिपे-पुते
छोटे से घर के आँगन में
जब नीम सर-सराती है
झूमती है तो मानो बिखर जाते हैं संस्कारों के रंग’। (11)

संस्कारविहीन मनुष्य जीवन का क्या कोई अस्तित्व हो सकता है? इस प्रश्न का उत्तर हमेशा ‘नहीं’ होगा। कवयित्री का भी यही विचार है कि जीवन का लक्ष्य केवल साधन, संपत्ति, शक्ति कमा लेना नहीं होना चाहिए। इन सबको प्राप्त कर लेने के बाद भी अगर व्यक्ति सुखी नहीं है, स्वस्थ नहीं है तो उसका जीवन कदापि सफल नहीं कहला सकता। तभी तो वे लिखती हैं,

‘यदि हमें मिल जाए थोड़ी सी चंचलता
क्या हो यदि हमें मिल जाए बारिश की मधुरिमा
तब
इच्छाएं झरना बन भिगों दें
सबका तन-मन
क्या हो यदि?
सपनों के पंख लग जाएं’। (12)

इन छोटी-छोटी आशाओं, सपनों का रहना आवश्यक है। नहीं तो, मनुष्य और यंत्र के बीच का अंतर ही समाप्त हो जाएगा। दुखद बात यही है कि ऐसा ही हो रहा है इसी कारण से मनुष्य, मानवताविहीन है। यह मानव सभ्यता के लिए घातक सिद्ध हो रहा है। इस घातक अंधकार से मनुष्य को एक ऐसे सबेरे की तरफ आना होगा-

‘जब हंसती हो सुबह
खिलखिलाता हो उजाला, तभी जानो आ जाएगा नया सवेरा
नदियों की धारा
झरनों का गाना, बारिश की रिमझिम,
जब आए समझ लेना तभी आ जाएगा नया सवेरा
सब अपने हैं, पूरे सपने हैं’। (13)

एक सार्थक, सुंदर जीवन का रूप-रंग ऐसा ही तो होना चाहिए। 2.4 राजनीतिक विमर्श- मानव अस्तित्व हो और राजनीति न हो ऐसा तो संभव नहीं है। जैसे मनुष्य साहित्य के केन्द्रबिन्दु में हमेशा से रहा है वैसे ही मनुष्य जीवन की घटनाओं को लेकर चलनेवाली राजनीति भी अब साहित्य का महत्वपूर्ण अंग बन गई है। राजनीति का प्रधान उद्देश्य तो किसी समय देश सेवा, समाज सेवा आदि था। लेकिन अब राजनीति केवल देश सेवा, समाज सेवा आदि तक सीमित नहीं है। अब यह भ्रष्टाचार, धोखा, प्रताड़ना का भी माध्यम बन चुकी है। कवयित्री साहित्यकार के कर्तव्य से परिचित हैं तभी तो झूठी आशा कविता के माध्यम से प्रस्तुत करने के स्थान पर निम्न कटु सत्य को दर्शाना उन्होंने उचित समझा है-

‘ऐ! लड़की
जरा ठहर —
चुनाव आ गए हैं जरा ठहरो चुनाव आ गए हैं,
तुझे भी बनाएंगे मुद्दा
कहीं सियासी दांव खेले जाएंगे
कहीं
नीति की धज्जियां उड़ाई जाएंगी
‘ऐ! लड़की
जरा ठहर —
चुनाव आ गए हैं’। (14)

आज की राजनीति की छवि कैसी है? इस प्रश्न का उत्तर पाना है तो निम्न पंक्तियों को तो पढ़ना ही पड़ेगा-

‘पॉलिटिक्स का खेल बड़ा निराला है
कोई यहां आधा तो कोई पूरा नंगा है।
कोई भर-भर के अपनी जेबें पूरी तरह चंगा है
पॉलिटिक्स का ढंग बड़ा गंदा है
कोई खोजता कठौती में गंगा है
पॉलिटिक्स का ढंग बड़ा गंदा है’। (15)

राजनीति के भ्रष्ट रूप का दंश देश को ही झेलना पड़ता है। देश की एकता, स्वाभिमान, अर्थव्यवस्था, संस्कृति, सभ्यता आदि पर इसका प्रभाव पड़ता है और सबसे अधिक प्रभावित होता है ‘जनता का जीवन’। ‘जनता’ को यह समझ ही नहीं आता है कि क्यों वह अपने ही देश में असुरक्षित अनुभव कर रहा है? कवयित्री ने इन समस्याओं का नग्न चित्र अपनी कविता के द्वारा प्रस्तुत किया है-

‘टेढ़े-मेढ़े घुमावदार रास्तों पर चलती
बड़ी तर्कहीन हो गई है
राजनीति
लिपटी पारदर्शी परत में
लोकतान्त्रिक बन मुस्कुराती है
राजनीति
अपने को समाजवादी कह
संगठन बना व्यंग्य से मुस्कुराती है
राजनीति’। (16)

कहना ही पड़ेगा कि कवयित्री केवल शिक्षाविद ही नहीं वरन देश की सजग नागरिक भी हैं। उन्हें इस बात का ज्ञान है कि लोकतन्त्र में ‘लोक’ को अन्याय के विरुद्ध आवाज उठानी चाहिए। तभी तो कवयित्री आक्रोशित स्वर में प्रश्न पूछती हैं-

‘हम अभी तक क्यों पड़े हैं नींद में?
आओ उचारें मंत्र अब जनतंत्र के
हिज्जे
गलत होने लगे अब मंच के
हादसे पलने लगे अब वतन में
आज रोटी की लड़ाई हो रही
अतृप्त आत्मा भटक रही बेचैन हो, हिज्जे गलत होने लगे
अब मंच के…..’ (17)

जब एक सचेत नागरिक, एक शिक्षाविद, एक कवयित्री निरपेक्ष रूप में इतने सामयिक विषयों को लेकर मंथन करते हुए लेखनी को हाथ में लेती है तब तो यह प्रश्न सार्थक हो ही जाता है कि ‘कौन सी कविता होती है पूरी’… नहीं ऐसी प्रासंगिक कवितायें कभी पूरी नहीं होती यही उनकी सुंदरता और सार्थकता का रहस्य है। आशा है निकट भविष्य में कवयित्री के विचारों के मंथन से और प्रासंगिक कविताओं का जन्म होगा।

संदर्भ सूची 

⦁ कौन – सी कविता होती है पूरी…. पृष्ठ संख्या- V
⦁ कौन – सी कविता होती है पूरी…. पृष्ठ संख्या- 27
⦁ कौन – सी कविता होती है पूरी…. पृष्ठ संख्या- 8-9
⦁ कौन – सी कविता होती है पूरी…. पृष्ठ संख्या- 83-84
⦁ कौन – सी कविता होती है पूरी…. पृष्ठ संख्या- 49
⦁ कौन – सी कविता होती है पूरी…. पृष्ठ संख्या- 32
⦁ कौन – सी कविता होती है पूरी…. पृष्ठ संख्या- 28
⦁ कौन – सी कविता होती है पूरी…. पृष्ठ संख्या- 36
⦁ कौन – सी कविता होती है पूरी…. पृष्ठ संख्या- 104
⦁ कौन – सी कविता होती है पूरी…. पृष्ठ संख्या- 93-94
⦁ कौन – सी कविता होती है पूरी…. पृष्ठ संख्या- 95-96
⦁ कौन – सी कविता होती है पूरी…. पृष्ठ संख्या- 85-86
⦁ कौन – सी कविता होती है पूरी…. पृष्ठ संख्या- 87
⦁ कौन – सी कविता होती है पूरी…. पृष्ठ संख्या- 64
⦁ कौन – सी कविता होती है पूरी…. पृष्ठ संख्या- 34
⦁ कौन – सी कविता होती है पूरी…. पृष्ठ संख्या- 50
⦁ कौन – सी कविता होती है पूरी…. पृष्ठ संख्या- 82

पुस्तक
‘कौन -सी कविता होती है पूरी…’
प्रो. निर्मला एस. मौर्य
प्रथम संस्करण- 2023
ISBN – 978-81-959281-2-5

समीक्षक- डॉ. सुपर्णा मुखर्जी
सहायक प्रध्यापिका
भवंस विवेकानंद कॉलेज
सैनिकपुरी, हैदराबाद केंद्र
9603224004
drsuparna.mukherjee.81@gmail.com

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