शकुंतला और दुष्यंत की कहानी कोई “लिव इन रिलेशनशिप” की कहानी नहीं है, और न यह ‘एक को छोड़ो, दूसरे को पकड़ो’, की प्रेम के नाम पर आधुनिक विकृत, वीभत्स कथानाक। यह “वेलेंटाइन डे” जैसी सार्वजनिक स्थानों पर सीधे सीधे ‘भोंडा प्रणय निवेदन’ भी नहीं है। उस उच्छृंखलता भरी प्रेम विवाह के नाम पर आधुनिक पाश्चात्य शैली को सनातन संस्कृति का सौम्य, शालीन किंतु प्रभावी तार्किक और मर्यादित उत्तर इस महाकाव्य ‘शकुंतला माटी अक्षयवट की‘ में कवियत्री माधुरी महाकाश द्वारा दिया गया है। किंतु प्रश्न है, क्या इस वासनामय स्वच्छंदतावादियों को इससे कोई प्रेरणा मिलेगी भी? यह मुख्य प्रश्न है। अब कोई प्रेरित हो या न हो, कोई अपनी जीवन शैली संवारे या बिगाड़े, यह उसका प्रारब्ध; किन्तु रचनाकार के उद्देश्य और सतप्रयास में कोई कमी नहीं है। यह प्रयास स्तुत्य है और सभी चिंतक मनीषियों, समाज के कर्णधारों को एकबार सोचना अवश्य चाहिए।
प्रेम का स्वाभाविक अंकुरण शकुंतला और दुष्यंत दोनों के अंतः करण में हुआ। यह कोई दोष या विकार नहीं, यौवन की अपनी सहज प्रवृत्ति है। किंतु प्रेम प्राकट्य का भी एक मर्यादित ढंग होता है और होना भी चाहिए। अधीर निरंकुशता कभी भी नहीं आनी चाहिए, भले ही वह प्रेम कितना भी सात्विक भी सात्विक क्यों न हो। कवियत्री में प्रेम को कितने सात्विक रूप में परिभाषित भी किया है। प्रेम अंतिम सोपान पूर्णता होना चाहिए, संबंध विच्छेद या तलाक नहीं, यह प्यार से समर्पण तक की पावन यात्रा है। यह सृष्टि पूर्व का पवन कर्मकांड है। रचनाकार का सीधा सा सामान्य तार्किक कथन है –
यौवन सब पर आता है
मधुमास सभी पर छाता है
प्रेम खोजता जग पागल
क्या पूर्णता को पाता है?
प्रेम इतना भी सरल नहीं
त्याग तपस्या का यह पुनीत फल
प्राणी इसको समझ न पाते
बनती काम वासना ही प्रतिफल।
सचमुच, प्रेम में भोग की अधीरता वासना का ही परिचायक है और इसकी अवधि बहुत सीमित होती है। वासना पूर्ति के उपारंत परस्पर आकर्षण में क्षीणता, क्लेश, कलह और संबंध विच्छेद (तलाक़) ही इसकी परिणति होती है। किंतु सनातन संस्कृति में यह प्रेम भले ही “गंधर्व विवाह” जिसे प्रायः आज चिंतक गण “प्रेम विवाह” भी कह देते हैं, इनमें न तो अधीरता और उतावलापन ही होता है, न ही सहज संबंध विच्छेद ही। इस विवाह को भी जीवन पर्यन्त निभाया जाता है।
सात्विक हृदय में प्रेम तत्त्व अंकुरित होने पर भी मन स्वच्छंद होकर प्रेमिका पर उन्मुक्त विकृत शब्दो का झपट्टा नहीं मारता, उलजलूल हरकतें नहीं करता। वह पूरे होशो हवास मे संयमित होकर मन ही मन कुछ सोचता है, और सोच भी कितना पवित्र, कितना निष्कलुष –
भगवान नहीं भूलता क्षणभर
वह कमल नेत्र वह कटाक्ष पात
पढ़ न ले कोई हृदय पीर
राजन रहता भयाक्रांत।
हा महादेव ! यह क्या?
सत में रज, तम का समावेश
हे त्रिताप हरण देव
वल्कल पर प्रणय परिवेश।
देख एकाएक अपरिचित
शकुंतला सहसा सकुचा गई
जैसे रवि को आता देख
कुमुद तनिक लजा गई।
ले तनिक ओट खड़ा दुष्यंत
देख रहा सौंदर्य अपलक
मानो धरती की गरिमा बढ़ने को
श्री दे रही स्वयं झलक।
प्रेमांकुरण के समय दुष्यंत और शकुंतला के संकोच और संकेतों से प्रेम संप्रेषण को कवियत्री ने बड़े ही कौशल से निखारा है। दोनों के चित्त पर प्रेमांकुरण की दशा न शकुंतला की सखियों से छिपी रहती है, न राजा के अंतरंग सेवकों से ही। दोनों को ही प्रेम प्रस्तुतिकरण में सामाजिक, नैतिक मर्यादाओं की झिझक है। परिस्थितियां अतिथि सत्कार के नाम पर उन्हें मिलती हैं फिर भी वे अपनी भावनाओं का सांकेतिक संप्रेषण करते हैं। दोनों की स्वीकृति के पश्चात ही बात आगे बढ़ती है। आधुनिक एकतरफा प्यार की तरह आघात, प्रतघात या एसिड संप्रेषण जैसा कुछ कृत्य नहीं।
हमारी सनातन संस्कृति में मित्र और सहचर, यहां तक कि विदूषक भी प्रेम प्रसंग या रूप सौंदर्य पर दिल हार बैठे, मर मिटे अपने राजा – महाराजा तक को औचित्य और नीति प्रश्न उठाकर अनुचित कदम बढ़ाने से रोकते थे –
विदूषक आखिर पूछ पड़ा
क्या है इसका गुप्त प्रयोजन
मुनि सुता पर आसक्त से
प्रतीत हो रहे हैं राजन।
ब्राह्मण कन्या नहीं वरन योग्य
कदाचित किसी क्षत्रिय के
वह तो एक विद्युत स्फुलिंग है
रहें दूर इस विचार मात्र से।
हे मित्र तुम्हे भी वही भ्रम
जिस भ्रम जाल में में था
वह तो एक अप्सरा पुत्री
कौशिक वंश की वो दुहिता।
अवसर पाकर एक राजा का प्रेम निवेदन भी कितना विनय रूप में है, कितना निश्छल है, यह सुंदर सरल अभिव्यक्ति –
हे सुंदरी तुम्हारे रूप जल में
कैसा उलझ गया हूं मैं
छोड़ राज का कामकाज
आश्रम में बस गया हूं मैं
अतिरिक्त तुम्हारे कुछ भी देखूं
नेत्रों को स्वीकार नहीं
आज राजसी ऐश्वर्य भी
मुझको अंगीकार नहीं।
बारंबार बुलाने पर भी
मन हुआ हाथी है ऐसे
भूतल में उतरा हुआ जल
ऊपर नहीं आता है जैसे।
अब चलते हैं नायिका की ओर, देखते हैं उनकी क्या गति है? कैसी मति है? रहीम ने सच ही का है – “खैर खून खांसी खुशी वैर प्रीति मदपान। रहिमन दाबे न दबे जानत सकल जहान।” नायिका भी सचेत रहने के उपक्रम के पक्ष भी इस प्रेमरोग को छिपा नहीं पाती, उसके लक्षण सखियों को दिख ही जाते हैं –
आसक्त हुई राजन पर
पर बैठी चप – चुप सी
खुल नहीं रहे अधर
व्यग्र वह चुप – चुप सी।
विचार मग्न शकुंतला अति चिंतित
हृदय बात छुपाती है
आसक्त हो गई राजर्षी के प्रति
प्रकटीकरण बचाती है।
आज सखी कह दो
अपने सारे हृदय संताप
प्रेमपीड़ा ग्रस्त दिख रही
करती मिथ्या ताप का आलाप।
मन अनुरक्त हो गया है
जब से देखा राजर्षी को
विचार ज्वार, ज्वर परिणति हुए हैं
अर्पित भाव सुमन उनको।
यहां उद्धरित अंतिम पद में ‘अर्पित भाव सुमन’ कहकर कवियत्री ने प्रेम के सर्वोच्च स्वरूप को प्रकट कर दिया है। सच है आसक्ति रूप सौंदर्य की स्थूल देह से प्रारम्भ होकर क्रमश: सूक्ष्मतर होती हुई प्रेम, आराधना, समर्पण और भक्ति में परिणत हो जाती है। अब यहां मात्र त्याग और समर्पण ही बचता है और जो सात्विक भाव शेष बच जाता है, वही पूजन के योग्य है। नायिका का प्रेम इसी अवस्था को प्राप्त हो चुका है, तभी उसके मुंह से बोल अनायास ही फुट पड़ता है- ‘अर्पित भाव सुमन उनको’। यही प्रेम है, यही प्रेम का स्वरूप है और सनातन संस्कृति में इसी प्रेम को मान्यता मिली है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि कवियत्री ने इस महाकाव्य के माध्यम से प्रेम विवाह और गंधर्व विवाह में भी प्रेम का रूप – स्वरूप और उसकी अंतिम परिणति क्या है?
प्रेम की अंतिम परिणति है पूर्णता की प्राप्ति, स्त्री और पुरुष दोनों ही अधूरे। मिलते हैं जब प्रेम में हो जाते हैं पूरे। प्रश्न तो यही है – *प्रेम खोजता जग पागल / क्या पूर्णता को पाता है? जिस संबंध में पूर्णता हो वही है – “प्रेम”, शेष सभी दिखावा, वासना और नितांत यौवन भोग है। यह प्रेम नहीं, प्रेम नाम पर ‘काला धब्बा’ है। विकार है। इन्द्रिय भोग से अधिक कुछ भी नहीं है।
समीक्षक डॉ जयप्रकाश तिवारी
म. नं. ए 5, गायत्री नगर
पोस्ट – इन्दिरा नगर
लखनऊ, उत्तर प्रदेश-226016
मो नंबर 9450802240, 9453391020