जिस राज्य का शासन ‘जनप्रिय’ हो, उस राज्य के पनपने एवं उन्नत विकास में क्या अवरोध हो सकता है? लेखिका डॉ सुरभि दत्त ने ‘रामायण में जनप्रिय शासन’ पुस्तक में एक ऐसे शासन की नस को पहचाना और उसकी जाँच-परख कर संदर्भित भाषा-शैली में 164 पृष्ठों की पुस्तक में विस्तार से वर्णन करके जन समक्ष प्रस्तुत किया है। इसमें अपनी सोच से कुछ नया गढ़कर प्रस्तुतीकरण करने का लेखिका का कोई यत्न गोचर नहीं होता है। लेखिका ने अपने हर कथन का साक्ष्याधार ‘संदर्भ सूची’ में उपलब्ध कराया है।
लेखिका राजनीति शास्त्र में एम.फिल. एवं पीएच.डी. है। हिन्दी महाविद्यालय, हैदराबाद में 35 वर्ष उप-प्राचार्य के रूप में कार्यरत रहकर राजनीति शास्त्र की विभागाध्यक्षा के पद से सेवा निवृत्त है। इससे ज्ञात है कि राजनीति शास्त्र में ज्ञान-विज्ञान ने किसी राज्य की राजनीति को परखने की लेखिका को कितनी क्षमता प्रदान की है और उससे संबंधित हर दृष्टिकोण को उसकी दृष्टि कितनी सूक्ष्मता से देख-परख सकती है। इसकी स्पष्टता भी मिलती है। इस कृति की प्रामाणिकता न केवल लेखिका के दीर्धानुभव से मिलती है, बल्कि उनकी पूर्व की कृतियों, जैसे- ‘प्राचीन भारत में कल्याणकारी जनतंत्र’, ‘कौटिल्य अर्थशास्त्र में शासन तंत्र’ आदि ग्रंथ एवं प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में छपे उनके आलेखों से भी सिद्ध होती है।
इस कृति के उद्देशित विषय ‘जनप्रिय’ शासन की आधारशिला है राज्य के परिपालक राजा की नीति। यह नीति उसके गुण एवं चरित्र पर आधारित होती है। रामायण में विस्तृत राज्य के शासक मर्यादित, धीर-वीर एवं प्रशांत राजा ‘राम’ का वर्णन है। लेखिका स्वयं बताती हैं कि इस एक विराट चरित्र को गढ़ने में भारत की सहस्रों प्रतिभाओं ने कई सहस्राब्धियों तक अपनी मेधा का योगदान दिया है। आदि कवि वाल्मीकि से लेकर महाकवि भास, कालीदास, भवभूति तथा तुलसीदास तक न जाने कितनों ने अपनी-अपनी लेखनी एवं प्रतिभा से इस चरित्र को सँवारा है। यह भी कि ‘धर्म-राज्य’ के संस्थापक राम हमारी अनन्त मर्यादाओं के प्रतीक पुरुष मर्यादा पुरुषोत्तम हैं।
रामायण में वर्णित धर्म, सत्य, न्याय तथा नैतिकता सर्वोत्तम हैं, आदर्श हैं, हर व्यक्ति, समाज एवं शासन व्यवस्था के लिए अनुकरणीय हैं। लेखिका अपने शीर्षकों के क्रम में अनुशीलन योग्य प्राचीन चिंतन के बाद रामायण के परिचय से अपना कथन आगे बढ़ाती है। विशेषकर धर्म तत्त्व को शासन का आधार बताती है। राज्यभार सँभालने वाले व्यक्ति को उस पद पर रहकर किस प्रकार की कल्याणकारी नीतियाँ अपनानी होती हैं, उसकी न्याय व्यवस्था कैसी होनी चाहिए। मंत्रणा का महत्त्व और पालक की युद्ध नीति, दूत चर व्यवस्था, मैत्री आदि का इस कृति में विस्तृत उल्लेख है।
राजा सत्यं च धर्मश्च राजा कुलवतां कुलम् ।।
राजा माता पिता चैव राजा हितकरो नृणाम् ।।
चूँकि राज्य का शासक राजा होता है। लेखिका ने इस श्लोक से अपनी प्रस्तुति आरम्भ की है। अपनी यह कृति वाग्देवी सरस्वती को समर्पित की है। अपने आमुख में लेखिका ने बताया कि प्राचीन भारत में राजनीति सामाजिक तथा आर्थिक सिद्धांतों का विकास धर्म के अंगरूप ही हुआ। अतः राजनीति और धर्म को एक-दूसरे से पृथक नहीं किया गया।
सहज है, आदि से धरती पर जिन-जिन प्रांतों में मनुष्य कबीलों और समाजों में विकसित होते गए, मनुष्य में समाहित पशुगुण कम करके मानवता को बढ़ावा देने हेतु उन-उन प्रांतों में, वहाँ की उपस्थित स्थितियों के अनुकूल धर्म स्थापित होते गए। अपने-अपने आराध्य वस्तुओं, देवी-देवताओं को समर्पित होकर शासक शासन करते रहे। मनुष्यों के विभिन्न राज्य बनते गए और अपनी-अपनी आस्थाओं पर आधारित होकर पनपते चले गए। इतिहास साक्षी है कि एक आस्था के मनुष्यों द्वारा दूसरी आस्था के मनुष्यों पर चढ़ाई करके उस पर अपनी आस्था थोपने के यत्न हुए हैं। यहाँ युद्ध नीतियों का पालन नहीं किया गया। बस कमज़ोरों को विवश करके या अन्य पर बल प्रयोग से अपनी मनवाने की एक जिद-सी चली है। इस प्रकार नए राज्यों की स्थापना भी हुई। भूमि को कागज़ बनाकर सभी उदाहरण दिये भी जाएँ तो कागज़ कम ही पड़ेंगे।
जैसा कि कहा गया है, भारत में राजा और शासन का कर्तव्य धर्म का पालन समझा गया। राजनीति में नैतिकता का समावेश रहा और राज शास्त्र को राजनीति शास्त्र कहकर पुकारा गया। धर्म पर आधारित होने के कारण ही राजनीति सिद्धांत स्थिर रहे। बताया गया है कि रामायण में जितने कांड और उसके सर्ग हैं, सभी में धर्म की स्थापना संबंधी सिद्धांत केन्द्र में हैं। राजा का प्रजा के प्रति कर्तव्य निर्वाह, प्रजापालन, प्रजारंजन दण्ड व्यवस्था आदि का उल्लेख धर्म के परिप्रेक्ष्य में ही किया गया है।
रामायण की अंतर्निहित भावनाओं को देखना आवश्यक है वृद्धजन एवं गुरुजन का सम्मान, समाज-व्यवस्था का पालन, मन तथा इन्द्रियों पर संयम, लोकरंजन, प्रजारक्षण आदि से व्यक्ति, समाज और राष्ट्र बँधे रखे गए। वाल्मीकि रामायण इस बात का प्रमाण देता है कि धर्म और न्याय विहीन राजनीति स्वस्थ एवं सुव्यवस्थित राष्ट्र-रक्षा की परम्परा नहीं दे सकती। धर्म सापेक्ष राजनीति न्याय, सुरक्षा व्यवस्था, सुख एवं शांति, सभी कुछ दे सकती है।
यह भी दृष्टिगत है कि राम ने लौकिक जीवन की मर्यादा राजधर्म के निर्वाह के लिए अपने सुखों का परित्याग कर दिया। अपनी प्रसन्नता से बढ़कर उन्हें लोक जीवन की चिंता रही। राजा के इस आदर्श के कारण ही भारत में रामराज की आज तक कल्पना की जाती है। अतः लेखिका सुरभि जी निष्कर्ष पर पहुँचकर कहती हैं कि भारतीय संस्कृति की गरिमामय-परम्परा विश्व को आलोकित करके, इसी कारण रामराज्य एवं उनके आदर्श की गाथा अनन्त वर्षों से निरंतर गायी जा रही है और आगे भी गायी जाती रहेगी।
यह सुनिश्चित है कि तेलंगाना हिन्दी अकादमी द्वारा प्रकाशित डॉ. सुरभि दत्त कृत ‘रामायण में जनप्रिय शासन’ भी आगे इस क्षेत्र के अनेक शोधार्थियों की संदर्भ ग्रंथ सूची में अवश्य शामिल होगी।
प्रकाशक : तेलंगाना हिन्दी अकादमी
मूल्य : ₹६९५:००

समीक्षक : देवा प्रसाद मयला
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