लोकार्पण के बाद पुस्तक की समीक्षा कुछ वैसी ही है जैसे परिणाम आने के बाद मार्कशीट की प्रतीक्षा। लीजिये समीक्षा की प्रतीक्षा को भी मैं समाप्त करता हूँ।
प्रत्येक लेखक को सोचना चाहिए कि लेखन आरम्भ कैसे हुआ। सर्वप्रथम काव्य का माध्यम श्रुति ही रहा था, गीता और इलिऐड इसका उदहारण हैं। इसमें एक उपदेशकर्ता और एक श्रोता था, काव्य तब तात्कालिक Extempore भी रहा होगा। फिर आवश्यकता हुई, उस संवाद को जन-जन तक पहुँचाने की, संवाद की सीमितता और सन्दर्भ की आवश्यकता ही लेखन का उद्गम है।
डॉ संगीता शर्मा जी की ‘हरसिंगार पर प्रेम लिखूं’ काव्य संग्रह का शीर्षक मुझे, अमृता प्रीतम जी की आत्म कथा ‘रसीदी टिकट’ की याद दिलाता है। एक छोटे से फूल पर प्रेम लिखना, वैसे ही है जैसे चावल के दाने पर कोई नाम लिखा होना। काव्य लेखन भी एक कलाकारी ही है। इस शीर्षक के लिए भी संगीता जी बधाई की पात्र हैं। अब मैं रुख करता हूँ, कविताओं का।
पहली कविता ‘यादों का कारवां’, ने मुझे मजबूर किया जुड़ने को, “भूलने के लिए मरना ज़रूरी है” इस एक लाइन ने ज़िंदगी का फ़लसफ़ा बयान कर डाला। आख़िरी लाइन में ज़िंदगी को निचोड़ कर रख दिया,” देह के रहते फिर/ यादों का कारवाँ/ कहाँ रुकता है/दूर चले आये बहुत अब/ख़ुद से ख़ुद को मिलने का/मौका ही कहाँ मिलता है।”
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कुछ कवितायेँ दो हिस्सों में बटी हुई हैं, यानि कि एक ही शीर्षक के दो पहलू, जैसे ‘अनहद’ आकाश का दूसरा पहलू, अखबार का गीला होना, शहीद के घर के आंसूं से। मुझे गुलज़ार साहब की एक नज़्म याद आयी, “आज वो बहुत खुश है, शायद उसने आज का अखबार नहीं पढ़ा।” आज की पीढ़ी अखबार लफ्ज़ से अनजान है, मुझे याद है, मेरे दादा जी और पापा भी अखबार ही कहते थे। पापा कभी कभी न्यूज़ पेपर भी कहते थे। आज की पीढ़ी इस लफ्ज़ से अनजान है।
‘यादों के कारवां’ के भी दो पहलू हैं। पहले में जिस्म और रूह तो दूसरे में रात, अँधेरा, ख़ामोशी और तड़पन। ग़ालिब साहब की याद आती है, ”जब आँख ही से न टपका तो लहू क्या है।” आपको दर्द दूसरे से बांटना तो है, पर आपके पास रूई का फाहा भी होना चाहिए, अपने ज़ख्म को सहलाने को और दूसरे के ज़ख्मों को सहलाने को भी।
‘चाँद ललाट’ के चार हिस्से हैं। चौथा हिस्सा शांत और दर्दीला है। “ख़ुद के भीतर झाँका/तो दिल भीगा हुआ था/सोचा सावन की झड़ी है/पता चला वो तो उनके/आंसूओं की लड़ी है।” मुझे पढ़कर लगा कि जीवन, सूरज की तरह उत्तरायन हुआ है।
‘धरती की सुन्दर कृति स्त्री’, आज का यथार्थ है, अदालतों में तारीख पे तारीख और जब नया होता भी है तो सालों बाद ज़ख्मों पर फिर हरियाली ले आता है। इसमें निर्भया का ज़िक्र है, मेरी मुलाक़ात हुई थी उसकी माँ से भी, उनकी आँखें सूखी झील थीं।
एक लंबी कविता है, ‘मोहमाया’. क्यूंकि इसमें वास्तविकता का दर्शन है, थोड़ी सी निराशा भी है, निराशा से ही आशा का संचार होगा। अपने भीतर एक दिया जला कर रखना होगा।
एक कविता जो यथार्थ के को छोटी है वो है, ’माँ तू मुझे जन्म न दे’, नारी के जीवन का और शोषण का पूर्ण चित्रण है। एक भ्रूर्ण माँ के गर्भ में ही डरने लगा। एक महिला ही इतना सटीक लिख सकती है।
संबंधों को रेखांकित करती कविता, ‘आईना मैं बन जाऊं’ उसमें खामोशियों के मेले में धडकनों की सरसराहट। संगीता जी के इस संकलन में कई जगह विरह रस भी है, विरह रस का रसपान नारी ही बेहतर कर सकती है।
हरसिंगार पर प्रेम लिखूं काव्य संकलन धीमे धीमे जीवन के सूर्यास्त का अनुभव भी कराता है। कविता ‘दर्द मुस्कुराने लगा’ इसका प्रमाण है। अभी जैसा मैंने कहा था अंतिम दो कवितायें अपने शीर्षक से ही रात्री का अनुभव कराती हैं। ‘शरद पूर्णिमा’ और ‘चंद्र प्रभा. चंद्र चांदनी’।
पुस्तक का अंत यही नहीं है, अंत में 50 मुक्तक भी हैं। 9, 15 और 43 वां
“ वो मुस्कुराते बहुत हैं
पता चला है कि वो
दिल के ज़ख्मों को
छिपाते बहुत हैं”
मैं यही कहना चाहूँगा, हरसिंगार पर प्रेम लिखना कुछ वैसा ही है, देव स्नान और पवित्र को पवित्रता का परिधान देना। इस किताब को पढ़ते हुए मुझे अपने विचार, मेरी अंदरूनी औरत की याद आ गयी। फिर क्षितिज से ऊपर जाकर विचार आया, ‘हरसिंगार पर प्रेम लिखूं’ के शब्द किसी औरत के नहीं हैं, बल्कि औरत के भीतर करवट लेती हुई औरत के हैं। आप अपने साथ इसको रखिये और जब भी समय मिले कोई भी पन्ना खोल कर पढ़िए और खो जाईये।
सृजनलोक प्रकाशन, नई दिल्ली। कीमत 199 रुपये। एमेज़ान पर भी उपलब्ध है।
सुहास भटनागर