भाषा के लिए चिंता व चिंतन तो भाषा कर्मी करते ही रहेंगे, वे नहीं करेंगे तो कौन करेंगे? लगता तो ऐसा ही है कि भाषा के लिए आम जनता तो अपने समाज व समुदाय के बुद्धिजीवियों पर आश्रित रहती है? वे केवल उपभोक्ता हैं। उपयोगकर्ता हैं। जैसे विभिन्न क्षेत्रों में आविष्कार, अनुसंधान व विकास कोई विशिष्ट कौशल व ज्ञान वाले व्यक्ति करते हैं और आविष्कृत सेवा या वस्तु का उपभोग अन्य जन करते हैं। उसी तरह भाषा के प्रचार-प्रसार, उसका मानकीकरण, उसका परिमार्जन भाषा में काम करने वाले विशेषज्ञों द्वारा किया जाता है। लोग क्या करते हैं? असल में भाषा का सही संरक्षण तो लोक से ही संभव है।
MIDHANI
भाषा में लोक प्रचलित शब्दों का समावेश लोक के माध्यम से ही होता है, लेकिन उन शब्दों का साहित्य में, विज्ञान व तकनीकी क्षेत्र में संबंधित क्षेत्र के विद्वान द्वारा किया जाता है। वह लिखित रूप में संरक्षित हो जाता है। किंतु उसके प्रचार-प्रसार के लिए उस विद्वान के साथ-साथ लोक जिम्मेदार होता है। इस मामले में यह कहना गलत नहीं होना चाहिए कि भाषा के प्रयोग व प्रसार में लोक की अधिक जिम्मेदारी है। आज जिन भाषाओं ने विश्व में अपना महत्वपूर्ण स्थान पाया है वह प्रयोगकर्ताओं के कारण ही पाया है। चाहे वह स्पैनिश हो, जर्मन हो, फ्रेंच हो, चाहे अंग्रेजी, चीनी हो या फिर हिंदी।
भाषा सीखने से आती है। यह अर्जित कला है। बालक माताओं की कोख से भाषा सीखकर जन्म नहीं लेते। जन्म के बाद अपनी माँ की जिव्हा से सीखते हैं, माँ से सीखते हैं। इसीलिए तो बालक की प्रथम भाषा को मातृभाषा कहा जाता है। इसे ही अंग्रेजी में ‘मदर टंग’ (mother tongue) कहते हैं। भाषा परिजनों, मित्रों आदि से भी सीखी जाती है। वह परिवेश जिसमें बालक पलता है, वहाँ जिस भाषा का व्यवहार होता है, बालक वह भाषा भी सहजता से सीखता है। अतः यह कहना उचित ही होगा कि बातचीत के दौरान जिन शब्दों का प्रयोग किया जाता है वे शब्द निरंतर सुनने से परिचित हो जाते हैं। अन्य भाषा का शब्द भी अपनी भाषा का लगने लगता है। अब ममी, डैडी, थैंक्यू, सॉरी, प्लीज आदि शब्दों को ही ले लिजिए। ये शब्द हिंदी सहित भारत की अधिकतर भाषाओं में समाहित हो गए हैं। आम बोलचाल में ये शब्द सहजता के साथ प्रयुक्त होते हैं।
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इसके उलट माँ, बाबा, चावल, चीनी, इसी तरह तेलुगु भाषा से बिय्यम, चक्करा, अम्मा, नान्ना जैसे शब्द और हो सकता है अन्य भारतीय भाषाओं से इन शब्दों के पर्याय गायब हो रहे हैं। कहने का अभिप्राय यह है कि जिस भाषा का व्यवहार निरंतर किया जाता है, जिन शब्दों का प्रयोग निरंतर किया जाता है, वह भाषा, वे शब्द, उच्चारण और समझने में आसान लगने लगते हैं। इसके विपरीत जिस भाषा का व्यवहार कम या नहीं होता है, जिन शब्दों का प्रयोग नहीं किया जाता है, वह भाषा व वे शब्द लुप्त होने लगते हैं। और, कालांतर में वह भाषा और वे शब्द मृत हो जाते हैं।
भारत के पूर्व प्रधान मंत्री अटल बिहारी बाजपेयी अपने एक साक्षात्कार में पत्रकार द्वारा यह पूछे जाने पर कि हिंदी, देश की राष्ट्रभाषा कब बनेगी तो वे बताते हैं कि ‘हिंदी राष्ट्रभाषा बनेगी, प्रतीक्षा कीजिए। हिंदी पर गर्व करना सीखिए और सिखाइए।’ इन दो छोटे से वाक्यों में उन्होंने हिंदी भाषा को ताकतवर बनाने के लिए एक महत्वपूर्ण सूत्र दिया है। सर्व प्रथम तो इस भाषा पर गर्व करना सीखना होगा। जो कि प्रायः कम देखने को मिलता है। भारतवासियों हिंदी पर गर्व करते हैं ठीक वैसे ही जैसे इस विचार पर गर्व- ‘भारत कभी सोने की चिड़िया हुआ करता था। भारत विश्व गुरु था।’ हिंदी के अध्यापक, हिंदी अधिकारी, हिंदी कर्मी, हिंदी पत्रकार भी गर्व करते हैं। इनकी रोजी रोटी इस भाषा पर आश्रित है। इसमें भी प्रतिशतता की कमी है। नौकरी बजाना और नौकरी जीना दोनों अलग हैं। नौकरी जीने की कला तो किसी सशस्त्र बल के कर्मी से सीखना होगा।
अटल बिहारी बाजपेयी जी ने दूसरा सूत्र दिया कि अन्य व्यक्ति– अपने मित्रों, सह कर्मियों, रिश्तेदारों, परिचितों और संपर्क में आने वाले हर एक व्यक्ति के मन में इस भाषा के प्रति आकर्षण, लगाव, प्रेम, अनुराग और सम्मान जागृत करने का निरंतर प्रयास करते रहना होगा। ऐसा करने वाले व्यक्ति को लोग सनकी कहेंगे, पागल कहेंगे, अति उत्साही कहेंगे, आदि। कुछ संदर्भों में ऐसा हो सकता है। आजकल प्रोद्योगिकी की सहायता से भी हिंदी भाषा के प्रयोग में तेजी हुई है। आने वाले समय में इसमें वृद्धि होने की अपार संभावनाएँ हैं। बशर्ते मनोरंजन व सूचनाप्रद माध्यमों के अलावा तकनीकी विषयों पर हिंदी में लेखन करने व पढ़ने वालों की संख्या में भी वृद्धि हो। वैज्ञानिक एवं तकनीकी शब्दावली आयोग द्वारा निर्मित तकनीकी विषयों की शब्दावलियों, हिंदी भाषा प्रेमी वैज्ञानिकों द्वारा लिखित पुस्तकों व वैज्ञानिक संस्थाओं द्वारा प्रकाशित पत्रिकाओं के पठन-पाठन में भी बढ़ोत्तरी होनी की आवश्यकता है। इनमें रूचि जगाने-बढ़ाने की जरूरत है।
हिंदी के सार्थक प्रसार के लिए इसकी उपयोगिता और महत्व को बढ़ाने की आवश्यकता है। सरकारी कार्यालयों में यह कार्य कर्मचारियों व अधिकारियों को राजभाषा संबंधी अधिनियम व नियम की जानकारी निरंतर अंतराल देकर किया जा रहा है। लेकिन लगता है, इससे वांछित परिणाम अभी तक नहीं मिले हैं। यह कार्य निरंतरता की अपेक्षा करता है। वर्षों की आदत को बदलना एक कठिन कार्य है। वर्षों की आदत इसलिए कहा जा रहा है कि कार्यालयों में कर्मचारी हिंदी या भारतीय भाषाओं के माध्यमों से कम अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा प्राप्त अधिक होते हैं। केंद्र सरकार के कार्यालयों में हिंदी का प्रयोग मिशन मोड पर करने की आवश्यकता है।
केवल कार्यालय में ही नहीं बल्कि हिंदी का उपयोग जीवन के हर एक लेखन कार्य का हिस्सा बनें। कर्मचारियों को इसकी जिम्मेदारी लेनी होगी। वे अपने कार्यों में हिंदी का प्रयोग अधिक से अधिक करें और अपने साथियों-दोस्तों को भी ऐसा करने के लिए प्रेरित करें। जब तक हिंदी में काम करने की आदत नहीं बनेगी तब तक प्रेरणा और प्रोत्साहन के माध्यम से हिंदी का प्रचार-प्रसार जारी रखना बेहद जरूरी है। आशा तो यही है कि भारत सरकार द्वारा प्रसारित बारह ‘प्र’– प्रचार, प्रतिबद्धता, प्रबंधन, प्रसार, प्रयास, प्रयोग, प्रशिक्षण, प्राइज (पुरस्कार), प्रेम, प्रेरणा, प्रोत्साहन और प्रोन्नति के अनुसरण से हिंदी को अवश्य बल मिलेगा।
डॉ बी बालाजी
प्रबंधक, हिंदी अनुभाग एवं निगम संचार