सारगर्भित और मार्मिक समीक्षा : ‘बलगम’ फिल्म और दक्षिण भारत के हिंदी लेखक

[नोट- इस लेख और फिल्म पर पाठक अपनी प्रतिक्रिया भेज सकते हैं। ताकि लेखक के विचार पर चर्चा हो। क्योंकि लेखक ने इस फिल्म समीक्षा के माध्यम से अनेक मुद्दे भी उठाये हैं। धन्यवाद ]

‘बलगम’ फिल्म और दक्षिण भारत के हिंदी लेखक’ शीर्षक कुछ अटपटा लग रहा है न? हाँ अटपटा ही है. पहले बात बलगम फिल्म पर- यह तेलंगाना की आंचलिकता में बनी वह फिल्म है. जिसे देखते समय सारा हाल हंसी से गूंजता रहता है और अंत का आधा घंटा सिसकियों से. ऐसा कोई दर्शक शायद ही रहता हो जो भारी मन से बाहर न जाता हो.

छोटी बजट वाली फिल्म

केवल 2.2 करोड़ की लागत से बनी छोटी बजट वाली यह फिल्म ब्लॉक-बस्टर फिल्मों को भी अंगूठा दिखा रही है. हाँ इस फिल्म ने सारे तेलंगाना में धूम मचा दिया है. तेलंगाना की संस्कृति को समझना हो तो इस फिल्म को देखना जरुरी है. इसने सारे तेलंगाना समाज को झकझोर कर रख दिया है. इस फिल्म में तेलंगाना की ग्रामीण संस्कृति साँस ले रही है. इस फिल्म से तेलंगाना की जनता इस कदर जुड़ गयी है कि थियेटरों में देखने के बावजूद हर गांव, हर देहात में ओपन एयर थियटरों में अपने सारे परिवार के साथ, सारे कुनबे के साथ, भाई बंधुओं के साथ सामूहिक रूप से देख रही है. गांव-गांव में इसका प्रदर्शन जारी है. गांव में किसी खुली जगह पर पर्दा बांध दिया जा रहा है और अमेजॉन से डाउनलोड कर एल सी डी द्वारा इसका प्रदर्शन किया जा रहा है. सारा गांव एकजुट होकर एक ही परिवार की तरह इसे देख रहा है. अलग-अलग मोहल्लों में इसका प्रदर्शन हो रहा है. यह पुराने ज़माने में बॉयस्कोप से गांव में सिनेमा दिखलाने की याद को ताजा कर रहा है.

पुलिस में शिकायत

इससे परेशान होकर इसके प्रोड्यूसर दिलराज प्रोडक्शंस ने इस फिल्म के इस तरह के इल्लीगल प्रदर्शन से रेवेन्यू खो रहे हैं कहकर पुलिस में शिकायत भी की है, पर यह प्रदर्शन रुकने का नाम नहीं ले रहा है. पुलिस भला इस पर कैसे रोक लगा पायेगी जब सारे का सारा गांव ही एकजुट हो. इस पर इस फिल्म का प्रदर्शन किस गांव में, किस मोहल्ले में कब हो रहा है इसका पता पुलिस को भला कैसे चलेगा? कोई एक ऐसा ऑर्गनाइजेसन भी तो नहीं है जो यह प्रदर्शित कर रहा हो. यह तो हर गांव के लोग अपना-अपना इंतजाम स्वयं कर रहे हैं. अमेजॉन पर डाउनलोड कर इसका प्रदर्शन कर रहे हैं.

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बलगम यानि

बलगम को हिंदी में क्या कहेंगे बहुत माथा-पच्ची करने पर भी मुझे सही शब्द नहीं मिला. बलगम यानि बल या शक्ति. पर यह सामूहिक शक्ति के अर्थ में लिया जाता है. प्रस्तुत फिल्म में बुजुर्ग के सारे संतान, बहु, दामाद, पौत्र, प्रपौत्र नाती, नतिनी, भाई- बंधू, नाते-रिस्तेदार सभी के लिए बलगम शब्द का उपयोग किया गया है. खानदान शब्द ही मुझे इसके नजदीक लगा.

सारी सूटिंग

जब यह सिनेमा 3 मार्च 2023 में छबिगृहों में रिलीज़ हुई थी. तब कई दिनों तक इसके बारे में चर्चा चलती रही. जहाँ पर भी चार लोग मिलते बस यही चर्चा. और यह चर्चा आज भी जारी है. मुझे लगता है कि इस तरह का पब्लिक रेस्पांस आज तक किसी दूसरे चलचित्र को नहीं मिला है. इसकी सारी सूटिंग भी किसी बड़ी स्टूडियो में न होकर तेलंगाना के वेमलवाड़ा मंडल के एक अंचल कोलनूर में हुई है.

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तेलंगाना की संस्कृति और संवेदना

कभी किसी सिनेमा विश्लेषक का विश्लेषण पढ़ा था, जिसमें उन्होंने लिखा था कि भविष्य में अच्छी फ़िल्में महानगरों से न आकर गांवों, देहातों, अंचलों से ही आएँगी. और उनका यह विश्लेषण सही साबित हो रहा है. कर्नाटक के एक अंचल विशेष की कन्नड़ भाषी फिल्म ‘कंतारा’ और तेलंगाना के एक छोटे से देहात में फिल्माई गयी तेलुगु भाषी फिल्म ‘बलगम’ उनके इस विश्लेषण को सही साबित कर रहे हैं. कंतारा में जहाँ आरम्भ से लेकर अंत तक गंभीरता का माहौल है वहीँ पर बलगम में अंत के करीब आधे घंटे को छोड़ दें तो सारे फिल्म में हास्य का पुट है. हंस-हंस कर दर्शक लोट-पोट हो जाते हैं. इस हास्य में ही तेलंगाना की संस्कृति और संवेदनाओं को बखूबी से उकेरा गया है.

कहानी एक बुजुर्ग के मौत से जुडी

यह कहानी नरसय्या नामक एक बुजुर्ग के मौत से जुडी हुई है. मुख्य रूप से यह उसके मौत से लेकर ग्यारहवीं तक की कहानी ही है. तेलंगाना में दिवंगत आत्मा के नाम पर कौव्वों को खिलने की परंपरा है. यह परंपरा तेलंगाना में ही नहीं किसी न किसी रूप में सारे भारत में भी है. कौव्वों के न खाने पर गावं में कुछ अनिष्ट की कल्पना, ग्राम वासियों के सेंटीमेंट्स और तरह-तरह की अटकलबाजियों के बीच सगे- सम्बन्धियों, नाते-रिश्तेदारों और गांव वालों के आपसी संबंधों, उनके बीच व्याप्त विरोधाभासों को बहुत ही सुन्दर तरीके से उजागर किया गया है इस फिल्म में.

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तेलंगाना में यह परंपरा

आधुनिकता के आड़ में हम क्या खो रहें हैं यह बतलाती है. ग्यारहवीं के तरह के भोज की परम्पर तो प्रायः हर प्रान्त में है परन्तु तेलंगाना में यह परंपरा प्रायः मौत के तीसरे दिन, पांचवें दिन, सातवें दिन, नव्वे दिन भी है. इस सबका प्रबंध प्रायः घरवाले, नाते-रिश्तेदार, सगे-सम्बन्धी, मित्रगण आदि लोग अपनी-अपनी हैसियत के अनुसार अलग-अलग दिन करते हैं. इसमें मांसाहार और मद्य ही मुख्य होता है. यही नहीं मिलने के लिए आने वालों लोगों द्वारा भी मद्य लेकर घर वालों के साथ मिलकर पीने-पिलाने की परंपरा भी है. अर्थी ले जाते समय भी पारम्परिक बाजों के साथ नाचते हुए ले जाने की परम्परा है.

दखल अंदाज नहीं

तेलंगाना में एक लम्बे समय तक मुसलमान राजाओं का राज रहा है, चाहे वे बहमनी हों, कुतुबशाही हों या आसिफसाही. परन्तु उनका यहाँ के लोगों की परम्पराओं में, संस्कृति किसी तरह का दखल अंदाज नहीं रहा है. यही कारण है कि यहाँ पर उसी रूप में यह परंपरा आज भी कायम है.

दक्षिण भारत के हिंदी लेखक

यह लेख मैं मुख्य रूप से दक्षिण भारत के हिंदी लेखकों को ध्यान में रखकर लिख रहा हूँ. राजेंद्र यादव ने हंस के अपने सम्पादकीय में एक बार लिखा था कि दक्षिण का सारा हिंदी साहित्य दोयम दर्जे का साहित्य है. वहीँ पर तेलुगु के प्रसिद्द क्रन्तिकारी कवि, विरसम के संस्थापक सदस्य निखिलेश्वर जिनकी हिंदी भाषा और साहित्य पर भी उतनी ही पकड़ है, ने भी एक बार हिंदी की एक साहित्य गोष्ठी में एक प्रश्न उठाया था. पूछा था कि उत्तर भारत के हिंदी साहित्य और दक्षिण भारत के हिंदी साहित्य के बीच एक गहरी खाई सी दिखलाई पड़ती है. आखिर क्यों?

दक्षिण के अधिकांश लेखक हिंदी भाषा-भाषी प्रान्त से यहाँ आकर बसने वाले हैं

इस बारे में जहाँ तक मेरी समझ है दक्षिण के अधिकांश लेखक हिंदी भाषा-भाषी प्रान्त से यहाँ आकर बसने वाले हैं. वे राजस्थान से हो सकते हैं, उत्तर प्रदेश से हो सकते हैं, बिहार से हो सकते है, झारखण्ड के हो सकते है या फिर कहीं और किसी हिंदी भाषा-भाषी प्रान्त से. यहाँ बसने वालों की दूसरी, तीसरी पीढ़ी भी चल रही है. पर वे यहाँ की संस्कृति से, यहाँ के जन-जीवन से, यहाँ की मिट्टी से जुड़ नहीं पाए हैं. वहीँ पर वे अपने मूल उत्तर भारत की संस्कृति से भी कट से गए हैं. इसलिए जहाँ उत्तर भारत के हिंदी लेखकों के लिए वहां की अपनी जमीन से जुड़ी रचनाएँ करना जितना सुलभ है, वहीँ पर दक्षिण भारत के हिंदी लेखकों के लिए उतना सुलभ नहीं है.

सामाजिक और राजनीतिक जीवन में तरह-तरह के आंदोलन

तेलंगाना को ही लें तो यहाँ के सामाजिक और राजनीतिक जीवन में तरह-तरह के आंदोलन आये हैं. यहाँ के लेखक प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर उनसे जुड़े बिना नहीं रहें है. इसलिए यहाँ की मिट्टी से जुडी रचनाएँ करना उनके लिए सुलभ है. इस बात में कोई अतिश्योक्ति नहीं है कि आज तेलंगाना के लगभग 90 प्रतिशत लेखक किसी न किसी रूप में अपनी जमीन से जुडी रचनाओं का सृजन कर रहे हैं. इस बात में भी कोई अतिश्योक्ति नहीं है कि यहाँ के हिंदी लेखक न तो यहाँ के जन-जीवन से जुड़ पाए हैं, न यहाँ की संस्कृति से और न ही यहाँ के आंदोलनों से. और वे अपने मूल से भी कट से गए हैं. इसलिए उनके लेखन का दायरा कुछ सीमित सा हो गया है. यहाँ पर सृजित तेलुगु साहित्य और हिंदी साहित्य में यह भेद साफ दृष्टिगोचर होता है. उत्तर भारत के हिंदी पाठक यहाँ के हिंदी लेखकों से यहाँ के जन जीवन से जुड़ी रचनाएँ एक्सपेक्ट कर रहे हैं.

तेलंगाना की जन-संस्कृति को कुछ हद तक समझने के लिए बलगम सिनेमा एक माध्यम

तेलंगाना की जन-संस्कृति को कुछ हद तक समझने के लिए बलगम सिनेमा एक माध्यम हो सकता है. इसमें तेलंगाना का ग्रामीण जीवन करवट ले रहा है. सिनेमा के पात्र यहाँ के दर्शकों को अपने आसपास घूमते इंसान से लग रहे हैं. वे उनमें से अपने-आपको एक महसूस कर रहे हैं. उनकी समस्या उन्हें अपनी समस्या लग रही है. तेलंगाना की जनता इस फिल्म से जैसे कनेक्ट हुई है, इतर भाषा-भाषी भी इससे इसी तरह कनेक्ट होंगे या नहीं पता नहीं. पर इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि यह फिल्म देखकर वे तेलंगाना की संस्कृति से कुछ न कुछ हद तक परिचित हुए बिना नहीं रहेंगे. यह फिल्म ओ टी टी अमेजॉन पर रिलीज़ हुई है. सब टाइटल के साथ इसे देखा जा सकता है.

तेलंगाना की आंचलिकता में संवाद बोलने वाले बफून के तरह के पात्रों में ही लिया जाता था

तेलुगु के एक टी वी चैनल के ‘जबरदस्त’ नमक शो पर कॉमेडियन के तौर पर प्रसिद्धि पाने वाले वेल्दंडी वेणु इसके पटकथा लेखक और डॉयरेक्टर हैं. डॉयरेक्टर के रूप में यह उनकी पहली फिल्म है. इसमें काम करने वाले प्रियदर्शी और काव्य कल्याणम को छोड़ दें तो सारे-के-सारे पात्र सिनेमा के क्षेत्र में उतने कोई नामी पात्र नहीं हैं. प्रियदर्शी और काव्य कल्याणम भी कोई उतने नामी पात्र नहीं हैं. संयुक्त आंध्र प्रदेश में तेलंगाना के लोगों को फिल्म में उतना कोई महत्व नहीं दिया जाता था. छोटे-मोटे पात्र मिल जाय तो यही उनके लिए सिरोधार्य था. अपने आपको बहुत ही भाग्यशाली समझने लगते थे. प्रायः तेलंगाना की आंचलिकता में संवाद बोलने वाले बफून के तरह के पात्रों में ही लिया जाता था.

सारे-के-सारे पात्र स्थानीय लोग

तेलंगाना की भाषा उस समय उनके लिए असभ्य और गंवार लोगों की भाषा थी. उसका मजाक उड़ाया जाता था बाहर भी और फिल्मों में भी. पृथक तेलंगाना आंदोलन में तेजी आने के साथ तेलुगु फिल्मों में यहाँ के पात्रों और भाषा को कुछ- कुछ महत्व दिया जाने लगा. ऐसे आने वालों में थे प्रियदर्शी भी. वे भी तेलंगाना की आंचलिकता में बोलने वाले कॉमेडियन के रूप में आये थे. काव्य कल्याणम भी कोई उतनी प्रसिद्धि पायी नायिका नहीं है. शेष दो-चार लोगों को छोड़ दें तो इस फिल्म के सारे-के-सारे पात्र स्थानीय लोग ही हैं. ये सब पहली बार फिल्म में काम कर रहे थे.

वर्षो से चली आ रही दुश्मनी को तिलांजलि

यह फिल्म आपसी रिश्तों में मन-मुटाव का त्याग कर हिलमिलकर रहने का सन्देश देती है. फिल्म में यह अपील इतनी प्रभावशाली है कि पन्द्रह-बीस वर्षों से आपस में लड़ने वाले, एक-दूसरे के जानी दुश्मन बने भाई-भाई भी गांव में सामूहिक रूप में ओपन एयर थिएटर में सिनेमा देखने के बाद सारे गावं वालों के सामने इतने वर्षो से चली आ रही दुश्मनी को तिलांजलि दे रोते हुए गले मिल रहे हैं. और यही इस फिल्म की सबसे बड़ी सफलता है. एक अंचल विशेष की संस्कृति पर, एक अंचल विशेष में बनी यह फिल्म आज सारे संसार में चर्चित है.

लेखक एन आर श्याम
12-285 गौतमीनगर मंचेरियल 504208 तेलंगाना
मो: 8179117800 ईमेल: nrs1327@gmail.com

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