हैदराबाद (सरिता सुराणा की रिपोर्ट) :
‘सतसैया के दोहरे, ज्यों नाविक के तीर
देखन में छोटे लगें, घाव करैं गंभीर।।’
विश्व भाषा अकादमी, भारत की तेलंगाना इकाई द्वारा रविवार को ऑनलाइन परिचर्चा एवं काव्य गोष्ठी का आयोजन किया गया। मां शारदे के स्मरण के साथ अध्यक्ष सरिता सुराणा ने सभी पदाधिकारियों और सदस्यों का स्वागत किया। हैदराबाद के जाने-माने निर्देशक और नाटककार सुहास भटनागर ने इस गोष्ठी की अध्यक्षता की।
ज्योति नारायण की सरस्वती वन्दना
ज्योति नारायण की सरस्वती वन्दना से कार्यक्रम का शुभारम्भ हुआ। तत्पश्चात् परामर्शदाता सुमन लता जी के पतिदेव के आकस्मिक निधन पर दो मिनट का मौन रखकर उन्हें श्रद्धांजलि दी गई।
गोष्ठी दो सत्रों में आयोजित
यह गोष्ठी दो सत्रों में आयोजित की गई। प्रथम सत्र में परिचर्चा प्रारम्भ करते हुए संयोजिका ने कहा कि रीतिकालीन कवियों में बिहारी का स्थान सर्वोपरि है। इतिहास में उल्लेख मिलता है कि वे राजा जयसिंह के दरबारी कवि थे लेकिन जब राजा जयसिंह अपनी नवोढ़ा पत्नी के प्रेम में राजकीय कार्यों से विमुख होकर विलासिता में डूब गए तो बिहारी लाल ने एक दोहा लिखकर उन्हें उनके कर्त्तव्यों की याद दिलाई। वह दोहा आज भी प्रासंगिक है-
‘नहिं पराग नहिं मधुर मधु, नहिं विकास इहिं काल।
अली कली ही सौं बंध्यो, आगे कौन हवाल?’
‘बिहारी सतसई’ ने उनको अपार ख्याति दिलाई
यह दोहा सुनकर राजा जयसिंह पुनः अपने राजकाज में व्यस्त हो गए। बिहारी द्वारा रचित ‘बिहारी सतसई’ ने उनको अपार ख्याति दिलाई। उस पर अब तक पचास से अधिक टीकाएं लिखी जा चुकी हैं।
बिहारी के काव्य में शृंगार और भक्ति दोनों दृष्टव्य
चर्चा को आगे बढ़ाते हुए सुनीता लुल्ला ने कहा कि जिस तरह तुलसीदास के काव्य में भक्ति का उत्कृष्ट रूप दिखाई देता है, उसी प्रकार बिहारी के काव्य में शृंगार और भक्ति दोनों दृष्टव्य है। बिहारी के काव्य की काव्यगत और शिल्पगत विशेषताओं, रस-अलंकारों की अनुपम छटा का जो रूप हमें देखने को मिलता है, वह अन्यत्र दुर्लभ है। एक उदाहरण देखिए-
‘कहत, नटत, रीझत, खिझत, मिलत, खिलत लजियात।
भरे भौन में कहत हैं, नयनन ही सौं बात।’
बिहारी को दरबारी कवि कहने की अपेक्षा राजकवि कहना अधिक उपयुक्त
इस एक ही दोहे में विभिन्न भावों का एक साथ आस्वादन किया जा सकता है। प्रदीप देवीशरण भट्ट ने कहा कि बिहारी को दरबारी कवि कहने की अपेक्षा राजकवि कहना अधिक उपयुक्त होगा। ज्योति नारायण ने कहा कि उन्हें बिहारी लाल जी के दोहे बहुत अच्छे लगते हैं। उनके घर में साहित्यिक वातावरण होने से उन्हें कवियों और साहित्यकारों के बारे में बहुत कुछ सुनने को मिलता था, वे स्मृतियां अभी भी मानस पटल पर अंकित हैं।
बिहारी भक्ति के साथ-साथ सौन्दर्य के चितेरे
संगीता जी शर्मा ने भी इस विषय पर अपने विचार रखे। अध्यक्षीय टिप्पणी देते हुए सुहास जी भटनागर ने कहा कि बिहारी भक्ति के साथ-साथ सौन्दर्य के चितेरे थे। उन्होंने उदाहरण स्वरूप एक दोहा प्रस्तुत किया-
‘बतरस लालच लाल की, मुरली धरी लुकाइ।
सौंह करैं भौंहन हंसै, दैन कहैं नटि जाइ।।’
उन्होंने सभी वक्ताओं के वक्तव्य की मुक्त कंठ से प्रशंसा की और परिचर्चा को पूर्णतः सफल और सार्थक बताया। द्वितीय सत्र में काव्य गोष्ठी का शुभारम्भ करते हुए भावना पुरोहित ने- पवन चले सनन-सनन मेरे गिरनार में प्रस्तुत की तो आर्या झा ने- कॉफी का एक मग है और तुम हो, सुनाकर वाहवाही बटोरी।
प्रदीप देवीशरण भट्ट ने- हमें लौ किसी से लगानी पड़ेगी/अगर दोस्ती है निभानी पड़ेगी का भावपूर्ण वाचन किया तो सुनीता लुल्ला ने पहले कुछ दोहे सुनाकर फिर अपनी गज़ल- इश्क तुझसे तुझी से यारी है/फिर भी ये कैसी बेकरारी है, प्रस्तुत करके श्रोताओं से तारीफ़ बटोरी।
संगीता शर्मा ने- कल से आज, कल के लिए/एक सूरज बो रहा हूं, जैसी उत्तम रचना का पाठ किया वहीं ज्योति नारायण ने कुछ दोहों के साथ अपनी सुमधुर वाणी में- उगे सूर्य किरण, सुख चंद लिए/मधुमासी मन मकरंद लिए का वाचन किया।
सरिता सुराणा ने अपनी रचना- अनवरत रहे प्रवाहित, मुक्त चेतना की काव्यधारा/प्रकृति के कण-कण में/समग्र जड़-चेतन में प्रस्तुत की।
अन्त में अध्यक्षीय काव्य पाठ करते हुए सुहास जी भटनागर ने अपनी नज्म- मुड़ कर देखना/मुड़कर लौटने की चाहत है/वापस लौटते हुए मिलते हैं/वो मील के पत्थर, सुनाई और सभी सदस्यों से मुक्त कंठ से उनकी प्रशंसा की।
धन्यवाद ज्ञापन
वरिष्ठ पत्रकार के राजन्ना ने भी गोष्ठी में भाग लिया। संस्था अध्यक्ष ने कार्यक्रम का कुशल संचालन किया और ज्योति नारायण के धन्यवाद ज्ञापन के साथ बहुत ही आत्मीयतापूर्ण वातावरण में गोष्ठी सम्पन्न हुई।