[नोट- संत गाडगे महाराजा की आज जयंती है। इस विशेष लेख पर पाठकों की प्रतिक्रिया अपेक्षित है]
जिन महान विभूतियों पर हमें गर्व होना चाहिए, उनमें से एक हैं संत गाडगे बाबा। जिन्होंने अपने कार्यों और विचारों के माध्यम से देश के समक्ष एक अनुकरणीय और अतुलनीय उदाहरण प्रस्तुत किया। जिसकी आज भारत को नितांत आवश्यकता है। जिन्होंने स्वयं अशिक्षित रहते हुए भी शिक्षा पर अधिक ध्यान केंद्रित किया और बुद्धिवादी आंदोलन के प्रणेता बनकर उभरे। वे कर्मकाण्डवाद पाखंडवाद और जातिवाद के प्रबल विरोधी थे। महाराष्ट्र के दलित-बहुजन परंपरा की एक महत्वपूर्ण कड़ी संत गाडगे बाबा भूलेश्वरी (भुलवरी) नदी के किनारे स्थित ग्राम शेंडगांव तालुका अंजनगांव सुर्जी, जिला अमरावती, महाराष्ट्र में 23 फरवरी, 1876 को धोबी समुदाय के झिंगराजी जाणोरकर (जन्म 1850 ई.) और सखूबाई के घर पैदा हुए थे। इनका पूरा नाम देविदास डेबूजी जणोरकर था। इनके पिता झिंगराजी कपड़े धोने का काम करते थे। डेबूजी के बचपन में ही सन 1884 ई. में उनके पिताजी की मृत्यु हो गई थी। इसके बाद माता सखूबाई इन्हें लेकर अपने मायके मुर्तिजापुर तालुका के दापुरे गांव चली गईं। डेबू जी का पूरा बचपन मामा चंद्रभान के यहां ही बीता। सुबह तड़के उठकर गौशाला साफकर नाश्ता कर दोपहर के भोजन के लिए प्याज और रोटी रखकर गाय-भैंस-बैल-चराने के लिए ले जाते थे। इसके अतिरिक्त मामा के साथ खेती-बाड़ी में भी हाथ बंटाने लगे। पशुओं को चराना, नहलाना, सानी-पानी और गोबर-कूड़ा उठाने का काम भी करते थे। उनका विवाह 1892 ई में कमालपुर गांव के घनाजी खल्लारकर की बेटी कुंताबाई से हुआ। विवाह के बाद भी डेबू जी का भजन-कीर्तन मण्डली में जाने का सिलसिला जारी था। गाडगे बाबा और कुंताबाई को चार बच्चे थे, दो बेटी आलोकाबाई व कलावती और दो बेटे मुग्दल व गोविंदराव हुए।
समाज में व्याप्त कुरूतियां और समस्याएं
डेबू जी 1905 तक परिवार के साथ रहे इस बीच समाज में व्याप्त कुरूतियां और समस्याएं उन्हें कचोटती रहीं। इसलिए उन्होंने कुरूतियों को दूर करने और समाज की समस्याओं को कम करने हेतु कुछ करने के बारे में सोंचा और बुद्धवार, 1 फरवरी, 1905 ई. को रात्रि में माता के पैर के पास जाकर चुपचाप जमीन पर माथा टेककर हमेशा के लिए घर त्याग दिया। सामान के नाम पर हांथ में एक लाठी और एक गडगा था। तन पर फटे-पुराने कपड़ों के टुकड़े से बना एक वस्त्र भर था। उनकी इसी वेश-भूषा के कारण कई स्थानों पर उनके साथ दुर्व्यवहार भी हुआ। गृह त्यागने से पूर्व डेबू जी अपने नाना हंबीरराव के परिवार के साथ ऋणमोचन गए थे। ऐसा प्रतीत होता है कि वहीं उन्होंने घर त्यागने का मन बना लिया था। पौष माह के प्रत्येक रविवार को ऋणमोचन में मेला लगता था और जात्रा निकाली जाती थी। इनके नाना के यहां से भी प्रत्येक वर्ष पूरा परिवार पौष माह के किसी रविवार को ऋणमोचन जाता था। इसी रिवाज के अनुसार डेबू जी भी रविवार, 29 जनवरी, 1905 को अपने मामा के परिवार के साथ ऋणमोचन गए थे। आज भी प्रत्येक वर्ष ऋणमोचन में मुग्दलेश्वर महादेव का पौष माह में (प्रत्येक रविवार को) मेला लगता है। अंतिम रविवार को यहां पर न केवल महाराष्ट्र अपितु देशभर से लाखों की संख्या में श्रद्धालु आते हैं और यथाशक्ति भोजन, पानी, चाय, वस्त्र आदि वितरित करते हैं। गाडगे बाबा मिशन, मुंबई ट्रस्ट भी भूखे लोगों को भोजन कराता है और जरूरतमंदों को वस्त्र, कंबल आदि वितरण करता है।
घूम-घूम कर भजन, कीर्तन और जनसंपर्क
1905 से लेकर 1917 तक 12 वर्ष वे एक साधक के रूप में रहे और देश के विभिन्न हिस्सों में घूम-घूम कर भजन, कीर्तन और जनसंपर्क करते रहे। 1907 में वे ऋणमोचन के मेले में पूर्णा नदी के किनारे घाट को सूखा करते हुए देखे गए। जब लोग नदी में स्नानकर ऊपर चढ़ रहे थे तो घाट के गीला हो जाने से लोग फिसलकर गिर जाते थे तो डेबूजी दूर से सूखी मिट्टी लाकर घाट पर डालकर सूखा कर रहे थे। शाम 5 बजे उन्होंने अभंग गाया, लोगों का मनोरंजन किया, अंत में बर्तन धोए और जगह साफकर खुद कहीं से मिली हुई भाकरी (रोटी) लेकर नदी के किनारे जाकर चटनी से खाने लगे। उन्हें ऐसा करते देखकर स्त्री-पुरुषों में उनके प्रति कृतज्ञता और आदर का भाव पैदा हुआ। 1908 ई. में उन्होंने पूर्णा नदी के तट पर घाट बनाकर तैयार किया। 1914 में ऋणमोचन में पहली धर्मशाला का निर्माण किया और 1917 में पंढरपूर की चोखामेला धर्मशाला, जिसे बनवाने में 1 लाख की राशि खर्च हुई थी, बनवाई जिसे बाद में बाबा साहब भीमराव अंबेडकर जी द्वारा स्थापित पिपुल्स एजुकेशन सोसाइटी को छात्रावास के लिए सौंप दिया था।उनके द्वारा बनवाए गए संस्थानों की सूची काफी लंबी है जिनको यहां दिया जाना संभव नहीं।
गाडगे बाबा ने अपना अंतिम कीर्तन 8 नवम्बर, 1956 को मुंबई में दिया था। इसके बाद 14 नवम्बर, 1956 को पंढरपूर में रात भर खड़े रहकर कीर्तन करते रहे। उसी दौरान बाबा ने कहा कि ‘यह उनकी अंतिम भेंट है।’ वे बीमार हुए और उन्हें मुंबई के सेंट जार्ज अस्पताल में भर्ती कराया गया। 6 दिसंबर, 1956 को जब वे अस्पताल से बाहर आए तो डॉ. बाबा साहब अंबेडकरके परिनिर्वाण कि सूचना मिली। उन्हें बहुत गहरा आघात पहुंचा।
गाडगे बाबा की मृत्यु
उनका स्वास्थ्य पुनः खराब हो गया और फिर गाडगे बाबा की मृत्यु अमरावती के वलगांव में पेढ़ी नदी के पुल पर से गुजरते समय 20 दिसंबर, 1956 को हुई। उनकी मृत्यु के बाद पूरा महाराष्ट्र शोक की लहर में डूब गया। जिस स्थान पर उन्होंने अंतिम सांस ली वहां पर सिकची परिवार ने गाडगे महाराज वृद्धाश्रम का निर्माण करवाया। इसी पेढ़ी नदी के तट पर गाडगे बाबा रिसर्च सेंटर बनकर तैयार हो चुका है जहां रहकर देश-विदेश के लोग गाडगे बाबा के कार्यों से संबंधित शोध भी कर सकेंगे। गाडगे बाबा अपने अनुयायियों से हमेशा कहते थे कि “कहीं पर भी मेरी मूर्ति, मेरी समाधि, मेरा स्मारक या मन्दिर नहीं बनवाना है। मेरा कार्य ही मेरा स्मारक है। जिस स्थान पर मेरी मृत्यु हो वहीं पर मेरा अंतिम संस्कार कर देना।” गाडगे बाबा की इच्छा के अनुरूप वहीं पर अंतिम संस्कार तो कर दिया गया लेकिन अमरावती में गाडगे महाराज समाधि मंदिर का निर्माण करवाया गया। इसी मंदिर के प्रांगण में एक विद्यालय भी संचालित होता है। जहां पर यह मंदिर स्थित है, उसे अब गाडगे नगर कहा जाता है।
गाडगे बाबा के मंदिर
देश के विभिन्न राज्यों के अलग-अलग हिस्सों में गाडगे बाबा के मंदिर पाए जा सकते हैं और उनकी आरती भी की जाने लगी है। सुखद बात यह है कि उनके कार्यों और वैचारिक दृष्टिकोण से सबसे रूबरू करने के लिए सन 1977 ई. में प्रसिद्ध चित्रपट दिग्दर्शक राजदत्त के निर्देशन में ‘देवकी नन्दन गोपाला’ नामक फिल्म का निर्माण किया गया है। जिसे दादा साहब फाल्के (1978-79) सहित कई पुरस्कार भी मिल चुके हैं। शत्रुघ्न बिरकड के निर्देशन में डेबू (2018) फिल्म का निर्माण किया गया है। प्रबोधनकार के सी ठाकरे, जी एन दांडेकर से लेकर सतनाम सिंह आदि द्वारा हिंदी, अंग्रेजी, मराठी और अन्य भाषाओं में अब तक कई पुस्तकें भी लिखी जा चुकी हैं। महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के प्रदर्शनकारी काला विभाग के सहायक प्रोफेसर डॉ. सतीश पावड़े द्वारा लिखित एवं निर्देशित मराठी नाटक ‘लोकसंत गाडगे बाबा अंधार पाहिलेला माणुस’ भी काफी चर्चित है। उनके नाम पर तमाम सामाजिक संगठनों जैसे- डेबूजी यूथ ब्रिगेड, गाडगे यूथ ब्रिगेड, गाडगे सेना, गाडगे आर्मी, संत गाडगे अखिल भारतीय महासभा आदि का गठन किया गया है। यही नहीं देश के विभिन्न राज्यों में उनके नाम पर अनेक विद्यालय व शैक्षणिक संस्थान भी चल रहे हैं। प्रयागराज/इलाहाबाद में भी WOrD नामक संगठन द्वारा संत गाडगे मिशन फॉर एजूकेशन के अंतर्गत मेधावी तथा आर्थिक रूप से कमजोर बच्चों को छात्रावास की सुविधा भी प्रदान की जा रही है।
तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी
गाडगे बाबा के पैतृक गांव शेंडगांव में 1975 में एक अस्थिकलश मंदिर बनवाया गया जहां प्रतिवर्ष शिवरात्रि (उनका जन्म शिवरात्रि के दिन हुआ था) को उनकी जयंती का आयोजन किया जाता है। गाडगे बाबा के पैतृक गांव में भूलेश्वरी नदी के किनारे पर निर्माणाधीन स्मारक में इस वर्ष पहली बार डेबूजी यूथ ब्रिगेड के तत्वावधान में 23 फरवरी को उनकी जयंती का आयोजन किया गया था। इस आयोजन में महाराष्ट्र के वर्तमान पालक मंत्री मा. बच्चू कड़ू और स्थानीय विधायक मा. बलवंत वानखेड़े जी शामिल हुए। अमरावती शहर में संत गाडगे बाबा अमरावती विश्वविद्यालय स्थित है, इसकी स्थापना 1 मई, 1983 को हुई थी। गाडगे बाबा की 42वीं पुण्यतिथि के अवसर पर 20 दिसम्बर, 1998 को तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी ने उनके सम्मान में एक डाक टिकट (डाक-तर विभाग,भारत सरकार द्वारा जारी) जारी करते हुए कहा था कि “गाडगे बाबा ने मानवता का एक उद्घोष किया है। अंधविश्वास पर इस तरह से आघात किया है कि जिसमें मानव के प्रति आत्मीयता का भाव बढ़ा। किसी तरह का कोई विग्रह नहीं पैदा हुआ। सब उन्हें श्रद्धा की दृष्टि से देखते हैं।”
गांव में जाते प्रवेश करते ही साफ-सफाई करना शुरू कर देते
वे कई नामों से जाने गए। कोई उन्हें गोंधड़े बाबा, चिन्धेबुवा (फटे-पुराने कपड़े को जोड़कर बनाए वस्त्र पहनने के कारण) तो कोई चापरेबुवा (मराठी भाषा में चापरे का अर्थ चटाई होता है, गाडगे बाबा चटाई पर ही लेटते थे यहां तक कि एक अस्पताल में भर्ती किए जाने पर भी जमीन पर ही लेटे), तो कोई धोबी (महाराष्ट्र में धोबी को वट्ठी कहा जाता है।) जाति से होने के कारण उन्हें वट्ठी साधु भी कहने लगे। डेबूजी का गाडगे नाम पड़ने की भी एक दिलचस्प कहानी है। वे घर छोड़ने के बाद बस्ती-बस्ती, गांव-गांव घूम कर लोगों को स्वच्छता का संदेश देने लगे। वे जिस गांव में जाते प्रवेश करते ही साफ-सफाई करना शुरू कर देते। जब कोई कुछ दे देता तो खा लेते नहीं तो ऐसे ही गांव के बाहर सो जाते थे। वे अपने पास मिट्टी का एक बर्तन (जो कि घड़े की पेंदी होती थी, महाराष्ट्र में इसे गडगा कहा जाता है) रखते थे, उसी में खाना खाते, पानी पीते और धूप या बरसात होने पर उसे सिर पर रख लेते थे। इसलिए ही लोग उन्हें गाडगे बाबा कहने लगे। आज भी वे इसी नाम से जाने जाते हैं। यही वह समय था जब गाडगे बाबा डेबूजी से गाडगे बाबा हो गए और जनसेवा का प्रतीक बन गए। धीरे-धीरे उनके अनुयायियों की संख्या बढ़ती गई और बुद्धिजीवी और साहूकार/मालिक लोग न केवल उनसे जुड़े अपितु आर्थिक सहयोग भी किया। गाडगे बाबा ने विद्यालयों, पुस्तकालयों, छात्रावासों, गौशालाओं, कुष्ठ आश्रमों, धर्मशालाओं, आश्रय स्थलों आदि का भी निर्माण करवाया।
60 से अधिक लोकोपयोगी संस्थाओं की स्थापना
गाडगे बाबा के द्वारा 60 से अधिक लोकोपयोगी संस्थाओं की स्थापना की गई तथा उनकी मृत्यु के बाद उनके द्वारा स्थापित (8 फरवरी, 1952) संस्था गाडगे बाबा मिशन, मुंबई ने भी 50 से अधिक छात्रावासों, आश्रमों, विद्यालयों, महिलाश्रमों, माध्यमिक विद्यालय, वृद्धाश्रम, परिश्रमालय, गौशाला, कुष्ठ आश्रम आदि की स्थापना की, जिनमें से अधिकांश संस्थाएं आज भी लोक कल्याणकारी कार्य कर रही हैं। गाडगे बाबा मिशन, मुंबई आज भी जनसेवा के प्रति तत्पर है। इसकी अनेक योजनाओं को सरकार का भी सहयोग मिलता है। गाडगे बाबा ने शिक्षा के क्षेत्र में उल्लेखनीय काम कर रही संस्थाओं को भी अच्छी खासी रकम दान में दी। वे स्कूली शिक्षा नहीं प्राप्त कर पाए परंतु वे शिक्षा के महत्व को जानते-समझते थे और शिक्षा के प्रति उनका विशेष लगाव था। इसलिए वे समाज के सभी तबकों के लोगों से अपने बच्चों शिक्षा दिलाने हेतु कहते थे। वे कहते थे कि-“प्रत्येक परिस्थिति में अपने बच्चों को पढ़ाओ-लिखाओ, आर्थिक तंगी हो तो घर के टूटे-फूटे बर्तन भी बेंच देना, हांथ पर या मिट्टी के बर्तन में खाना खा लेना, पत्नी को कम कीमत की साड़ी खरीदना, रिश्तेदारों की खातिरदारी कम करना, भूखे रह लेना, खुद भी कपड़े कम पहनना पर बच्चों को पढ़ाना-लिखाना जरूर।”
“करोड़ों लोग मर चुके हैं, एक के लिए रोने से क्या फायदा?”
5 मई, 1923 को गोविंदराव की पागल कुत्ते के काटने के कारण मृत्यु हो गई। जिस समय उन्हें सूचना मिली वे रत्नागिरी जिले के खारेपाटण गांव में कीर्तन कर रहे थे। तब भी गाडगे बाबा रुके नहीं। जब गोविंदराव कि मृत्यु का समाचार उन्हें मिला तो उन्होंने कहा कि “करोड़ों लोग मर चुके हैं, एक के लिए रोने से क्या फायदा?” और अपने काम में लग गए। मां सखूबाई और पत्नी कष्ट में जरूर थीं लेकिन वे भी नियति को स्वीकार कर चुकी थीं और सन्यासिनी कि भांति जीवन जी रही थीं और उनके साथ जनसेवा में सहयोग देने लगी थीं। गाडगे बाबा मां की अंतिम अवस्था में भी वे मिलने नहीं गए और पत्नी से कहा कि “कुछ दिन पहले ही तो मिला था। यहां बहुत काम करने को है, मेरी शक्ल देखने से उन्हें क्या मिलेगा?”
कुरुतियों के प्रति लोगों को सचेत
गाडगे बाबा विभिन्न आयोजनों में न केवल भजन व कीर्तन गाते अपितु अंधविश्वास और समाज में व्याप्त कुरुतियों के प्रति लोगों को सचेत भी करते थे। वे लोगों को साफ-सफाई का महत्व बताते थे, लोगों कोदारू न पीने और कर्ज न लेने के लिए भी कहते थे। गाडगे बाबा ने दुनिया को तो नहीं पर भारत को जरूर साफ-सफाई से रहने की तमीज सिखाई। जिसने देवी-देवताओं (पत्थरों के) की सेवा और पूजा को व्यर्थ मान कर निर्धनों, उपेक्षितों, अशिक्षितों आदि की सेवा को ही ईश्वर की सच्ची सेवा माना। वे कहते थे-“ देव किसी तीर्थ या मूर्ति में नहीं है वह आपके सामने दरिद्र नारायण के रूप में खड़ा है, उसकी ही प्रेम से सेवा करो।” गाडगे बाबा ने भूखों को रोटी देना ही सच्चा धर्म माना। जिसने Cleanliness is Godliness के अर्थ को सही मायने में लोगों को समझाया। जिसने गांधी जैसे महात्मा को भी यह समझाया कि ‘हम ऐसे भोजन नहीं करते, भोजन का शुक्रिया हम सेवा करके देते हैं।’ जिसके भोजन के बारे में गांधी तक को भी कहना पड़ा कि ‘गरीब लोग जैसा भोजन करते हैं, बाबा भी वैसा भोजन करते हैं।’उन्होंने न केवल मानव समाज के लिए अपितु समस्त प्राणियों के लिए भी उपकार किया।
गाडगे बाबा की बात सुनकर तिलक निरुत्तर हो गए
गाडगे बाबा अपने उपदेशों, भजनों और कीर्तनों में बड़े ही सहज तरीके से अपनी शैली में एक कुशल अभिनेता की तरह अभिनय कर-कर के गूढ़ बात भी समझा देते थे। कई बार वे खुद ही सवाल करते और खुद ही जवाब भी देते। एक बार तिलक ने ‘अथनी’ पंढरपूर में ब्राह्मणों की एक सभा में, जिसमें संत गाडगे बाबा भी उपस्थित थे लेकिन तिलक जी को इस बात का पता नहीं था, संबोधित करते हुए कहा कि, “तेली, तांबोली और कुनबी, विधानमंडल में जाकर क्या हल चलाएंगे”? तिलक के ऐसा कहने का अर्थ यह था कि ब्राह्मणों से इतर लोगों को मनुस्मृति के अनुसार निर्धारित परंपरागत कार्य ही करना चाहिए, वे विधानमंडल में जाकर कुछ नहीं कर सकते। गाडगे बाबा भी उसी सभा में मौजूद थे, जब तिलक ने उन्हें देख लिया तो मार्गदर्शन करने के लिए अनुरोध किया तब गाडगे बाबा भी मना नहीं कर पाए और बोले कि “गलती मेरी है, मैं परीट, मैं धोबी, पीढ़ी-दर-पीढ़ी आपके कपड़े धोना मेरा काम है, मार्गदर्शन करना मेरी जाति का काम नहीं है। मैं मार्गदर्शन कैसे करूँ? गाडगेबाबा ने तिलक से एक और विनती भी की कि “हमें विधानमंडल में जाना है लेकिन हम ब्राह्मण नहीं हैं। आप कहते हैं कि ब्राह्मण के अलावा किसी को भी विधानमंडल में नहीं जाना चाहिए, इसीलिए तिलक महाराज, आप कुछ भी करो लेकिन हमें ब्राह्मण बना दो” गाडगे बाबा की बात सुनकर तिलक निरुत्तर हो गए।
‘निरक्षरता अन्याय की जन्मदात्री है’
वे अनपढ़ होते हुए भी यह जानते थे कि ‘निरक्षरता अन्याय की जन्मदात्री है’। इसीलिए उन्होंने विद्यालयों के साथ छात्रावासों का भी निर्माण करवाया जिससे बच्चे निर्बाध रूप से वहां रहकर शिक्षा प्राप्त कर सकें। शिक्षा के प्रति जितना काम उन्होंने अनपढ़ रहने के बावजूद और वह भी गुलाम भारत में किया उतना काम तो आज के शिक्षामंत्री भी नहीं कर पाते। इन कामों के प्रति ईमानदारी इतनी की दूसरों का ‘खून तक चूस लेने वाले’ महाजनों ने भी खुलकर उनका सहयोग किया। जिस गौशाला या गौरक्षा की बात गांधी और अन्य लोगों ने बहुत बाद में की उस पर उन्होंने बहुत पहले ही ध्यान दिया था और जगह-जगह गौशालाओं का निर्माण कराया। मरीजों के लिए अस्पताल तो कुष्ठ रोगियों के लिए कुष्ठ आश्रम और जानवरों की बलि देने से रोकने के लिए जीव दया नामक संस्थाओं की स्थापना की। एक साधारण से दिखने वाले इंसान ने आज-कल के कई मंत्रियों के बराबर काम उस दौर में अकेले किया।
किसी को गुरु नहीं माना और न ही किसी को अपना शिष्य बनाया
सरकारों ने उनके द्वारा किए गए सारे कार्यों का अनुकरण एक-एक कर, कर लिया और उन्हीं कार्यों को अन्य महापुरुषों के नाम पर योजनाएं बना कर संचालित किया और कर भी रही हैं, परंतु अस्पृश्यता और भेदभावपूर्ण व्यवहार के खिलाफ आजीवन अहिंसात्मक लड़ाई लड़ने वाले तथा सबके दिलों पर राज करने वाले संत गाडगे महाराज के साथ अस्पृश्यता और भेदभावपूर्ण व्यवहार कर रही हैं। तभी तो स्वच्छता अभियान, सामूहिक विवाह आदि जैसी तमाम योजनाएं पहले नेहरू-गांधी परिवार और अब सरदार वल्लभ भाई पटेल और दीन दयाल उपाध्याय आदि के नाम (कुछ अपवादों को छोड़कर) पर चलाई जा रही हैं।
मेरे ऐसा कहने का तात्पर्य यह बिल्कुल नहीं है कि इनके नाम से योजनाएं चलाए जाने पर आपत्ति है, आपत्ति है तो इस बात पर है कि अन्य जिन विभूतियों ने आजादी के पहले या परतंत्र भारत में जो उल्लेखनीय कार्य किए उनको स्थान क्यों नहीं दिया जाता या जिन्होंने जो महत्वपूर्ण कार्य किया है उस तरह की योजनाएं और परियोजनाएं उन्हीं महान विभूतियों के नाम पर क्यों नहीं चलाई जातीं? प्रसिद्ध गांधीवादी और पर्यावरणविद अनुपम मिश्र ने 7-8 वर्ष पूर्व कहा था कि, ‘‘राष्ट्रीय किस्म की योजनाओं का नामकरण किसी न किसी राष्ट्रीय स्तर की विभूति पर होना चाहिए लेकिन यह प्रधानमंत्री जैसे पद तक सिमट कर रह जाए, ऐसी राष्ट्रीय परिभाषा संकीर्ण कहलाएगी। नाम ऐसे लोगों पर हो जिन्हें पूरे देश में उनके पद के अलावा भी जाना जाता हो और आदर दिया जाता हो।’’ ऐसे ही वैराग्य मूर्ति थे गाडगे बाबा। उन्होंने कभी किसी को गुरु नहीं माना और न ही किसी को अपना शिष्य बनाया। वे कहा करते थे कि-“मला कुणी शिष्य नाही, मी कुणाचागुरु नाही।”
‘संतों की कोई जाति नहीं होती’
उदाहरण के लिए यदि हम देखें तो लड़कियों की शिक्षा के लिए पहला स्कूल महात्मा ज्योतिबा फुले ने खोला था पर उनके नाम पर शिक्षण संस्थान नाम मात्र के ही होंगे। ठीक ऐसी ही उपेक्षा गाडगे बाबा के नाम के साथ की जा रही है। एक प्रसिद्ध कहावत है कि ‘संतों की कोई जाति नहीं होती’ परंतु वंचित तबके से आने वाले समाज सुधारकों और संतों के द्वारा उल्लेखनीय कार्य किए जाने के बाद भी उन्हें वह सम्मान नहीं दिया गया/दिया जा रहा है जिसके वे हकदार हैं। विभिन्न सरकारों द्वारा उनके साथ आज भी अस्पृश्यता और भेदभावपूर्ण व्यवहार किया जा रहा है। सरकारी नुमाइन्दे उनकी जयंती समारोह और अन्य अवसरों पर बड़े-बड़े बोल तो बोल देते हैं परंतु जब उनके नाम से कुछ करने की बारी आती है तो उन्हें याद तक नहीं करते। गाडगे बाबा ने जो भी कार्य किया सम्पूर्ण मानव जाति के लिए किया फिर भी उनके वंचित तबके के होने कारण ही उनके नाम के साथ ऐसा व्यवहार किया जा रहा है नहीं तो स्वच्छता अभियान जैसी योजना का नाम महात्मा गांधी के नाम पर न होकर संत गाडगे महाराज के नाम पर ही होता। उन्हें बहुत हद तक महाराष्ट्र तक ही सीमित कर दिया गया जबकि उन्होंने पूरे भारत भर में भ्रमण कर लोगों को जागरूक करने का काम किया। नवंबर, 2017 में दिल्ली से मोहन नगर (गाजीपुर-मोहन नगर मार्ग) की तरफ जाने वाले संत गाडगे महाराज मार्ग का नाम रातों-रात बदलकर पंडित मदन मोहन मालवीय मार्ग कर दिया गया है, तब से लेकर आज तक तमाम पत्राचार के बाद भी उस मार्ग का नाम पुनः बदलकर संत गाडगे मार्ग नहीं किया गया है। यह शायद इसलिए हुआ या ऐसा करने वाले इसलिए करने की हिमाकत कर सके क्योंकि संत गाडगे महाराज एक वंचित तबके (धोबी समुदाय) से आते थे। ऐसी हरकत कोई तब तक नहीं करेगा जब तक कि सरकार या सरकारी तंत्र की सहमति न हो।
वैज्ञानिक, तर्कवादी और बुद्धिवादी सोंच के धनी अवश्य थे
वे गाडगे बाबा जिन्होंने कभी अंग्रेज सरकार का विरोध नहीं किया और न ही कभी किसी को दुःख पहुंचाया फिर भी तत्कालीन समाज में एक बहुत बड़ा परिवर्तन लाए, वह भी उन वंचितों और अछूतों के जीवन में जिनको कोई अपने पास फटकने भी नहीं देता था क्योंकि उनकी परछाई तक से ब्राह्मण और ऊंची जातियों को छूत लगने का डर था। जिन कुओं, घाटों, तालाबों, स्कूलों, पुस्तकालयों, छात्रावासों आदि में वाचितों का प्रवेश वर्जित था उन्हीं का निर्माण वंचित समाज के लिए करवाया। बिना किसी आंदोलन या क्रांति के सामाजिक परिवर्तन का अलख इतनी सादगी से कोई जागा सकता था तो वह थे गाडगे बाबा। वे पढ़े-लिखे तो नहीं थे पर वैज्ञानिक, तर्कवादी और बुद्धिवादी सोंच के धनी अवश्य थे। गाडगे बाबा की इसी बुद्धिवादी और वैज्ञानिक सोंच का ही परिणाम है कि ‘तमिलनाडु प्रेस डॉट ब्लॉग पोस्ट डॉट इन’ ने 30/10/2012 को ‘साइंटिस्ट श्री श्री श्री गाडगे बाबा’ नाम से एक लेख प्रकाशित किया है।
सरकार स्वच्छता अभियान के वास्तविक जनक गाडगे बाबा
यह एक बड़ी विडंबना ही है कि सरकार स्वच्छता अभियान के वास्तविक जनक गाडगे बाबा के नाम से स्वच्छता अभियान चलाने के बजाय महात्मा गांधी के नाम पर स्वच्छता अभियान चला रही है। गाडगे बाबा ने सफाई पर तब से काम करना शुरू कर दिया था जब गांधी जी दक्षिण अफ्रीका से लौटकर भारत आए भी नहीं थे। गाडगे बाबा ने सामूहिक स्वच्छता पर बल दिया था और जिस गांव में प्रवेश करते थे वहां वे स्वच्छता प्रारंभ कर देते थे जबकि गांधी जी ने व्यक्तिगत स्वच्छता पर बल दिया था। गाडगे बाबा ने सामाजिक परिवर्तन आंदोलन चलाकर लोगों को जनसेवा का पाठ पढ़ाया। बाबा अनपढ़ जरूर थे पर बात हमेशा सौ टके की ही कहते क्योंकि उनकी बाते स्वयं के अनुभवों पर आधारित होती थीं। वे मानव सेवा को ही ईश्वर सेवा मानते थे और गंदगी को सभी बीमारियों का कारण। इसीलिए अपनी जनसेवा का आगाज ही उन्होंने स्वच्छता से किया। परंतु आज स्वच्छता अभियान सिर्फ जबर्दस्त प्रचारों और रैलियों तक ही सिमट कर रह गया है और अगर वहाँ से निकला तो नए नोटों तक ही पहुंच पाया है। जब-जब स्वच्छता अभियान चलाया गया है, सफाई के काम में लगे कर्मियों का मखौल ही उड़ाया गया है, क्योंकि वह अभियान या तो सिर्फ पक्की जगहों पर या सुबह सवेरे सफाई कर्मियों द्वारा परिसरों की सफाई कर लेने के बाद ही चलाया गया है।
दिनचर्या का प्रथम कार्य बनाना होगा
स्वच्छता कोई अभियान वाली चीज नहीं है न ही कोई जड़ वस्तु है जिसे हम चलाने की बात कर रहे हैं अपितु स्वच्छता हमें नया जीवन देने या स्वस्थ बनाए रखने का मूल मंत्र है जिसके लिए न केवल सरकार और हर नागरिक को प्रण लेना होगा अपितु उसे अपनी दिनचर्या का प्रथम कार्य बनाना होगा। तब कहीं जाकर हम गाडगे बाबा के सपनों को साकार कर पाएंगे। केवल इतना ही नहीं अपितु स्वच्छता जैसे कार्यक्रम में लगे लोगों को सम्मान की नज़रों से भी देखना होगा।
गाडगे बाबा व उनके विचारों, उपदेशों और आदर्शों को याद रख सकेंगे
गाडगे बाबा ने यह प्रदर्शित किया कि स्वच्छता हमारी दिनचर्या का प्रथम कार्य या हिस्सा होना चाहिए। कई सामाजिक संगठन उनके जन्मदिन 23 फरवरी को सार्वजनिक अवकाश घोषित करने और देश का सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार भारत रत्न देने की भी मांग समय-समय पर उठाते रहते हैं। मेरी नजर में इस दिन सिर्फ अवकाश घोषित करने के बजाय गाडगे बाबा के जन्मदिन अर्थात 23 फरवरी को सभी निजी, शैक्षणिक-प्रशासनिक एवं सार्वजनिक संस्थानों में गाडगे जयंती के रूप में मनाना अनिवार्य किया जाय और ऐसा प्रयास अवश्य करना चाहिए कि गाडगे बाबा का ‘स्वच्छता’ का यह मूल मंत्र समाज या देश के सभी लोगों की दिनचर्या का हिस्सा बन सके। इस तरह से देश भर के लोग गाडगे बाबा व उनके विचारों, उपदेशों और आदर्शों को याद रख सकेंगे। अन्यथा स्वच्छता अभियान भी हिमालय बचाओ अभियान की तरह ही बनकर रह जाएगा। क्या यह प्रासंगिक होगा कि जिस महापुरुष ने स्वच्छता को अपने जीवन का मूलमंत्र माना हो उसे मात्र एक दिवस तक ही सीमित कर दिया जाय?
गाडगे बाबा का झाड़ू उनका ट्रेडमार्क
गाडगे बाबा का झाड़ू उनका ट्रेडमार्क बन गया था। कीर्तन के जरिए वे लोगों से विचार-विमर्श करते थे, इसी के जरिए वे मानव सेवा पर ज़ोर देते थे। उनके अनुसार ‘मानव सेवा ही ईश्वर सेवा है।’ इस दौरान वे लोगों को अंधविश्वास और रूढ़ियों के विरुद्ध शिक्षित करते थे। वे अपने बहस में राष्ट्र संत तुकड़ोजी, कबीर दास जी, संत ज्ञानेश्वर आदि के दोहे भी शामिल करते थे। उनके कीर्तन के विषय हिंसाबंदी, शराबबंदी, अस्पृश्यता निवारण, पशुबलि प्रथा निषेध आदि हुआ करते थे। भारत सरकार और महाराष्ट्र सरकार द्वारा 2000-01 में संत गाडगे बाबा ग्राम स्वच्छता अभियान चलाया गया। इस अभियान में स्वच्छ गांव को सम्मानित किया जाता है। साथ ही भारत सरकार ने उनके सम्मान में स्वच्छता और जल के लिए एक राष्ट्रीय पुरस्कार भी शुरू किया है। गाडगे बाबा आचार्य अत्रे और भीम राव आंबेडकर जी द्वारा पसंद किए जाते थे। वे अकेले ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने 19वीं सदी में स्वास्थ्य, हाइजीन, पर्यावरण और जानवरों की बलि के संबंध में लोगों को जागरूक किया करते थे। यह एक बहुत बड़ा प्रश्न है कि गाडगे बाबा भी भीमराव आंबेडकर, गांधी, आचार्य अत्रे के काल में ही रहते थे परंतु उन्हें पूर्ण भारत में प्रसिद्धि नहीं मिली। लखनऊ, उत्तर प्रदेश में मा. मुलायम सिंह यादव के कार्यकाल में शारदा नदी के किनारे संत गाडगे बाबा के नाम से 6 एकड़ भूमि में जलाशय और संत गाडगे बाबा के ही नाम से ओडिटोरियम का निर्माण कार्य कराया। साथ ही गाडगे बाबा के जीवन और कार्यों से परिचय कराने के लिए भारत की ‘संत परंपरा और सामाजिक समरसता’ नामक पुस्तक में उनकी जीवनी को पाठ्यक्रम में शामिल किया गया। लखनऊ स्थित संत गाडगे धर्मशाला का सुंदरीकरण मा. अटल बिहारी वाजपेयी ने अपने प्रधानमंत्रित्व काल में कराया।
समाज सुधारकों में से एक
गाडगे बाबा महान समाज सुधारकों में से एक थे। उन्होंने गरीबों में भी सबसे अंतिम आदमी के लिए काम शुरू किया, जिसे गांधी जी ने ‘अंतिम जन’ कहा था। उन्होंने जब 1905 में एक बार गांव छोड़ा तब से वे अंतिम समय तक देश भर में भ्रमण कर लोगों को न केवल स्वच्छता का संदेश दिया अपितु स्वयं आजीवन करते भी रहे। वे समस्त समाज की बेहतरी के लिए उपदेशक बने रहे। संत तुकाराम को वह बहुत पसंद करते थे। वे प्रायः गांव में प्रवेश करते ही झाड़ू लगाना शुरू कर देते थे, विशेषतौर से अछूतों की बस्तियों में। उन्होंने धार्मिक कट्टरपंथियों और लोगों पर आरोपित मान्यताओं, जो व्यवहार में लाई जाती थी तथा शुद्धता-अशुद्धता, नैतिकता-अनैतिकता, आस्था और अंधविश्वास पर केन्द्रित और टिकी हुई थी, पर कड़ा प्रहार किया। उन्होंने जाति और जेण्डर के भेदभाव पर भी प्रश्न खड़े किए कि जब ईश्वर सभी मानव जाति का पिता है और यदि सबके प्रति दयालु है और सबको चाहने वाला है तो वह कैसे एक के प्रति दयालु हो सकता है और दूसरे के प्रति निर्दयी। वे कहते थे कि ईश्वर मंदिरों, मस्जिदों, मूर्तियों और धार्मिक स्थानों में नहीं रहता है। वे ईश्वर के बारे में तमाम आध्यात्मिक वाद-विवाद से मुक्त होकर साधारण लोगों की सांस्कृतिक रूप से सम्पन्न देशज भाषा को अपनाने का संदेश देते थे। भूखे को भोजन, प्यासे को पानी, नंगे को कपड़ा, आश्रयहीन को आश्रय, बीमारों की देखभाल, निर्धन बच्चों को शिक्षा, पशु-पक्षियों को संरक्षण और प्यार, निराश लोगों को आशा देना ही अपना धर्म समझते थे।
फटे-पुराने कपड़ों को जोड़कर
उनकी कथनी में कोई अन्तर नहीं था। वे सेंट फ्रांसिस की तरह चरम अवस्था की स्वैच्छिक गरीबी में रहते थे। वे जो वस्त्र धरण करते थे वह दूसरों के द्वारा प्रयोग किए गए, फटे-पुराने कपड़ों को जोड़कर बनाया गए होते थे। हालांकि तमाम छोटे-बड़े दान दाताओं ने उन्हें बहुत धन दिया परंतु उन्हें अपने प्रयोग में कभी नहीं लाए। उन पैसों से उन्होंने बहुत सी शालाएं, गोशाला, स्कूल व छात्रावास और आश्रयगृहों का निर्माण करवाया। उन्होंने साहूकारों द्वारा शोषण, भ्रष्टाचार, लालच, नशाखोरी, अंधविश्वास, पशुबलि सहित तमाम व्यक्तिगत और सामाजिक बुराइयों पर प्रचंड प्रहार किया।
मनुष्य स्वयं एक महान चमत्कार
वे कहते थे कि मनुष्य स्वयं एक महान चमत्कार है। समाज में अन्याय भी एक चमत्कार है। किसान जो जमीन से भोजन रूपी सोना उगाता है कैसे भूखा मर जाता है? यह भी वास्तव में एक अद्भुत चमत्कार है! उन्होंने स्वच्छता का जो, भौतिक, नैतिक, आध्यात्मिक और समाज सुधारवादी समग्र आदर्श प्रयास किया वह शायद ही किसी ने किया हो। इस तरह से वे महात्मा गांधी से भी अधिक साधारण थे। उन्होंने गांधी जी ही की तरह उन दिनों खतरनाक और कलंकित बीमारी कुष्ठ रोग से ग्रसित रोगियों की सेवा भी की। वे महात्मा गांधी का बहुत सम्मान करते थे और उन्हें देवदूत कहते थे। दोनों में एक-दूसरे के प्रति बहुत सम्मान था। डॉ. आंबेडकर जी भी बाबा का बहुत सम्मान करते थे। दोनों कई बार मिले भी। बाबा ने पंढरपूर की धर्मशाला के देखभाल का कारी आंबेडकर को सौंपा था।
आंबेडकर जी ने कहा…
जब बाबा 1949 में एक बार बीमार पड़े, उस समय आंबेडकर जी कानून मंत्री थे और वे गाडगे बाबा से मिलने मुंबई गए थे तब गाडगे बाबा ने उनसे कहा ‘तुमने यहाँ आने का कष्ट क्यों किया? तुम एक उच्च अधिकारी हो।’ आंबेडकर जी ने कहा ‘मेरा अधिकार एक मंत्री का है, बाबा कुछ समय ही जिएंगे। एक बार मिनिस्ट्रीशिप गई तो मेरे पास कोई अधिकार नहीं रहेगा, आपका अधिकार एक संत की तरह चिर स्थायी है।’
बाबा और फकीर
बाबा संत गाडगे महाराज के नाम से जाने जाते थे। यह बाबा के कार्यों की महानता है कि बाबा और फकीर जैसे शब्द को राजा के समानांतर शब्द से पुकारा जाता है। यही कारण है कि गाडगे बाबा मरने के बाद भी आम लोगों के दिलों पर राज कर रहे हैं।
इसलिए यदि लोगों में स्वच्छ भारत अभियान का उत्साह बनाए रखना है और इसे सफल सामाजिक बल में परिवर्तित करना है तो हमें भारत के परम आदरणीय सबसे अधिक पसंद किए जाने वाले समाज सुधारक संत गाडगे महाराज से प्रेरणा लेनी चाहिए। सरकार को भी चाहिए कि उन्हें स्वच्छ भारत अभियान का आइकन बनाए और पॉपुलराइज़ करे, कोई भी सेलिब्रेटी या ब्राण्ड अंबेस्डर या बहुत से पुरुष या महिलाएं जो भाग्य और प्रसिद्धि के लिए ललायित रहते हैं, समाज पर या लोगों पर कोई परिवर्तनकारी प्रभाव नहीं छोड़ पाएंगे।
गरीबी हटाने, स्वच्छता अभियान, अंधश्रद्धा निर्मूलन, नशाबंदी, सामाजिक कुरीतियों को खत्म
जब भी कभी गरीबी हटाने, स्वच्छता अभियान, अंधश्रद्धा निर्मूलन, नशाबंदी, सामाजिक कुरीतियों को खत्म करने, मूर्ति पूजा न करने, वंचितों के लिए शिक्षा, जातिप्रथा और अस्पृश्यता को ख़त्म करने, छात्रावास की व्यवस्था करने, निःस्वार्थ सेवा, पशु-पक्षियों अर्थात मूक जीवों की हत्या न कर उनकी रक्षा करने, धर्मशालाएं बनवाने आदि की बात की जाएगी तब-तब वह सख़्श न चाहते हुए भी याद आएगा। उनके कार्यों के कारण ही उनके समर्थकों/अनुयायियों में दीन-हीन व्यक्ति से लेकर मुख्यमंत्री और कानून मंत्री तक शामिल थे।
डॉक्टर नरेन्द्र कुमार दिवाकर मोबाइल नंबर- 9839675023
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निवास: सुधवर, चायल, कौशांबी (उ. प्र.)