विशेष: हुजूराबाद उपचुनाव लोकतांत्रिक मूल्यों और धर्मनिरपेक्ष नीतियों के लिए हैं खतरे का संकेत

[हमने 29 अक्टूबर को ‘विशेष संपादकीय: लोकतंत्र रक्षा के लिए हुजूराबाद उपचुनाव को स्थगित किया जाये’ लिखा था। मगर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। चुनाव हो गये। बीजेपी के उम्मीदवार जीत गये। कहा गया है कि इस चुनाव के दौरान करोड़ों रुपये बांटे गये। निर्वाचन अधिकारी ने कहा कि पैसे बांटने और लेने वालों के खिलाफ कार्रवाई की जाएगी। मगर यह विडंबना है कि अधिकारी ने यह नहीं कहा कि जिस किसी भी पार्टी ने पैसा बांटा है उसके खिलाफ कार्रवाई की जाएगी? हां यह सच है कि हुजूराबाद चुनाव परिणाम टीआरएस के लिए एक तमाचा है। क्योंकि झूठे आश्वासन, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, शिक्षण संस्थाओं की अनदेखी, अस्पतालों की दुर्दशा जैसे अनेक उदाहरण है जिन्हें सरकार ने नजरअंदाज किया है। यह सब देखकर तेलंगाना के लोग एक वैकल्पिक तलाश में बैठे थे। बीजेपी के ईटेला राजेंदर उन्हें वैकल्पिक नेता के रूप में मिला है और केसीआर को सबक सिखा दिया। भविष्य में बेरोजगार और महंगाई की मार सह रहे लोगों को अन्य वैकल्पिक पार्टी भी दिखाई दे सकते हैं। इसी क्रम में आज अनेक अखबारों ने इस चुनाव नतीजे को लेकर लेख और संपादकीय लिखे हैं। हम पाठकों के लिए तेलुगु दैनिक ‘नवतेलंगाना’ में प्रकाशित संपादकीय छाप रहे हैं। इस लेख को कुमार जी ने सोशल मीडिया में पोस्ट किया है। विश्वास है कि पाठक इस पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करेंगे।]

हुजूराबाद उपचुनाव सस्पेंस खत्म हुआ। फाइनल रिजल्ट आ गया है। ईटेला राजेंदर बनाम केसीआर के बीच चले नोटों की प्रतिस्पर्धा की लड़ाई में ईटेला जीत गये। एक विश्लेषक के कहने के अनुसार ईटेला के लिए बीजेपी वैल्यू एडिशन हो गया। सच में देखा जाये तो कौन जीतेगा इसके लिए आखिर राउंड तक इंतजार करना पड़ा। मगर पहले ही यह स्पष्ट हो गया था कि हार मात्र जनता की होगी। देश में सबसे महंगे साबित हुए इस चुनाव के नतीजे देखने के बाद हमें दो महान हस्तियों के बीच हुई अहम बातचीत याद आई है।

एक दिन डॉ बीआर अम्बेडकर जैसे ही संसद भवन से मुस्कारते हुए बाहर आते तो एक अन्य सांसद कृपलानी ने सवाल किया, “आज आप इतने खुश क्यों हैं?” जवाब में अंबेडकर ने कहा, ”एक जमाने में रानियों के गर्भ से राजा पैदा होते थे। लेकिन मैंने अब लोगों के वोटों के जरिए शासकों को पैदा होने की व्यवस्था की हैं। इसलिए यह खुशी है।” यह सुनकर कृपलानी उनकी खिल्ली उड़ाते हुए कहा, “लेकिन आपकी यह खुशी ज्यादा दिन नहीं रहेगी। क्योंकि ये हमारे दिन हैं। आपके लोग गरीब हैं। मजबूर हैं। हम उन्हें भिखारी बनाएंगे। उनके वोटों को खरीदेंगे और हम ही शासक बनेंगे। हम ही सरकारें बनाएंगे।” इसके जवाब में अम्बेडकर ने चेतावनी देते हुए कहा, “मेरे लोग गरीब और असहाय हो सकते हैं। उस लाचारी के कारण वो आपको बेचे जा सकते हैं। लेकिन याद रखना कि जिस दिन वो लोग अपने वोट की कीमत समझेंगे, उस दिन आपसे बड़ा भिखारी कोई नहीं रहेगा।” अंबेडकर के इस संवाद के दिन कब आएंगे पता नहीं, मगर हुजूराबाद चुनाव ने एक बार फिर साबित कर दिया है कि अब जो चल रहा रहा है वह कृपलानी के दिन है।

धन की सूनामी में हुए इस चुनावी संग्राम में जीत चुके लोग जुलूस निकालेंगे। हारने वाले घुट-घुट पानी पीएंगे। लेकिन इस हार-जीत का नेतृत्व करने वाले प्रमुख दलों के नेताओं को अब एक सवाल का जवाब देना है। राजनीति व्यवसाय और वोट एक वस्तू बन गई है। चुनाव का मतलब खरीदने और बेचने की प्रवृत्ति एक स्वाभाविक अवधारणा बने लंबा समय हो गया है। लेकिन सत्तर साल के इस स्वर्ण जयंती (अमृत महोत्सव) भारत में मतदाताओं को हमें पैसे नहीं मिला कहते हुए सरकारी दफ्तरों और नेताओं के घरों के सामने धरना देते हुए क्या कभी किसी ने देखा है? क्या हमने वोट का वाजिब दाम देने की मांग करते हुए सड़कों पर आकर रास्ता रोको करते या पैसे पूछते हुए या सुनते देखा है? हां सच है कि चुनावों में पैसों का बांटना एक खुला रहस्य है। फिर भी इतना खुल्लमखुल्ला कभी भी देखने में नहीं आया है। यह किसकी ‘महिमा’ हैं जिसने लोगों को ऐसी बदहाली में लाकर खड़ा कर दिया है? जाति, धर्म, क्षेत्र, शराब जैसे कई प्रलोभनों की बात एक तरफ है तो एक वोट को बारह हजार रुपये कीमत निर्धारित करने वाले महान लोग क्या इसके जिम्मेदारी नहीं है? क्या यह “लोगों से लोगों के हाथों लोगों के लिए’ जैसे लोकतांत्रिक के मूल सिद्धांत को हास्यास्पद करना नहीं है? लोकतंत्र का मजाक उड़ाने का मतलब लोगों का अपमानित करना ही है। इतना अपमान लोगों पर थोपने वाली जीत की उपलब्धि किन मूल्यों का पैमाना है?!

मार्क्स ने कहा था कि केवल इंसान ही नहीं बल्कि उनकी भावनाओं के साथ हर चीज वस्तु में बदलने का मतलब ही आज की राजनीति आंखों के सामने स्पष्ट दिखाई दे रही है। केंद्र और राज्य में सत्ताधारी दल दोनों प्रतिद्वंदी समान रूप से प्रलोभन देती है तो लोगों को ईमानदारी से जवाब देने के अलावा और कोई चारा नहीं बचता है! आसमान छूती कीमतें, रोजगार के अवसरों का अभाव, अनिच्छुक कृषि और अंतहीन भ्रष्टाचार के बीच फंस गये लोगों के जीवन इतने गहरे संकट में जी रहे लोगों की समस्या और समाधान के उपायों की वास्तविक चर्चा तक नहीं कर पा रहे है। चुनाव सिर्फ वोट खरीदने और बेचने के बाजार बन गये हैं। हुजूराबाद चुनाव इसका सबसे बड़ा प्रमाण है। इससे ज्यादा और क्या चाहिए?

किस पार्टी ने कितना खर्च किया, उसके खर्च का पता तक नहीं चल पा रहा है। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि हालात कितने बिगड़ गये हैं। इन सबके बावजूद चुनाव आयोग और अन्य अधिकारी तंत्र अनजान रहना आम बात है। फिर भी इतने खुले तौर पर होते देख आंखें बंद करके बैठना अन्याय है। पैसे देने वालों के खिलाफ ही नहीं पैसे लेने वालों के खिलाफ भी कार्रवाई करने की चेतावनी देने वाले अधिकारियों को यह सोचना चाहिए लोगों की यह स्थिति किसने बनाई? ‘हमारा लोकतंत्र एक रास्पबेरी है’ बुद्धिजीवी आरुद्रा का यह वाक्य हुजूराबाद उपचुनाव जीती जागती तस्वीरें है। इसे छोड़कर देखा जाये तो आखिर यह चुनाव परिणाम किसी बात का संकेत देता है? यह हार टीआरएस के लिए एक सबक है। जिसने अपने राजनीतिक हितों के अलावा राज्य के हितों पर ध्यान नहीं दिया। भले ही ईटेला राजेंदर जीत गये हैं। फिर भी जनकल्याण को हवा में छोड़कर बीजेपी के उम्मीदवार का जीतना प्रदेश की जनता को एक चेतावनी है। लोकतांत्रिक मूल्यों और धर्मनिरपेक्ष नीतियों को यह एक खतरे का संकेत है।

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