विशेष लेख : तुलसी जयंती पर चिंतन

“जाके प्रिय न राम वैदेही
तजिये ताहि कोटि बैरी सम
यद्यपि परम सनेही…।”

प्रायः यह प्रश्न उठता है, संत तुलसीदास जी के “राम” और “वैदेही” कौन है? राम मर्यादा पुरुषोत्तम राजाराम है?, पुराणों के ईश्वर “नारायण” (अपर ब्रह्म) हैं? या वेदांत के निर्गुण निराकार “पर ब्रह्म”?

इसका समाधान करते हुए गोस्वामी जी ने प्रथम पंक्ति में सगुण निर्गुण शिरोमणि अनूप भूप (आदर्शराजा राम) दशरथ नंदन, रघुकुल भूषण, राघव आदि भी कहा- “जय सगुन निर्गुन रूप रूप अनूप भूप सिरोमने”।

वहीं इसी छंद की लोकतृतीय पंक्ति में राम को अवतारी ईश्वर, भक्तों की करुण पुकार सुनने वाला, करुणा निधान, दुखभंजक (अपर ब्रह्म) बताया और इस छंद के पांचवे प्रस्तर में स्वयं ही वेदान्त के अंतिम निर्णय (कठोपनिषद 2/3/1) की अभिव्यक्ति उर्ध्वमूलो अवाक शाख: एषो अश्वत्थ: सनातनः। तदेव शुक्रम तत ब्रह्म तदेवामृतमुच्यते और गीता की अभिव्यक्ति ऊर्ध्व मूलं अध: शाखम अश्वतथम प्राहुर अव्ययम। छंदांसि यस्य पर्णानि यस्तम वेद स वेदवित।। (15/1) की मान्यताओं को ही स्पष्ट रूप से दुहराया है। … और अंततः राम को “वेदांत का अज: अमृतम शाश्वतम त्रिकालतीत परब्रह्म” ही घोषित किया है –

अव्यक्त मूलं अनादि तरु त्वच चारि निगमागम भने।
षट कंध साखा पंच बीस अनेक पर्न घने।। (रा. च. मानस उ. का. दोहा 12/5)।

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राम परब्रह्म हैं, यह जगत अश्वत्थ वृक्ष है।उनकी अचिंतशक्ति (माया) ही मूला अनादि प्रकृति ने ही वृक्ष रूप लिया है। इसकी चार शाखाएं चारो वेद हैं, छः शास्त्र इसके तने हैं, पच्चीस शाखाएं (महत, मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार, 5 तन्मात्रा, 5 विषय, 5 ज्ञानेंद्रियां, 5 कर्मेंद्रियां) हैं, अनेक पत्ते (ऋचाएं, छंद, यजुषि) है, मनमोहक, सुनहले पत्ते हैं (सनातसुजतिय मे इन्हे हिरण्यम पत्र कहा गया है)। इस वृक्ष मे कटु और तीक्ष्ण दो प्रकार के कर्मफल लगे हैं। मानव मन सुख – दुःख रूप इन कर्मफलों को भोगता है।

इस प्रकार इस उद्घोष को ज्ञान के तीन चरण मानना चाहिए, ये उत्तरोत्तर गहन से गहनतर अनुभूतियां हैं –

1) आदर्श अनूप भूप राजाराम रूप में जिज्ञासा और उनको समग्र रूप में जानने पहचानने की जिजीविषा, मुमुक्षा है।

2) ‘अवतार नर संसार भार भंजक’ रूप में करूणानिधान अनुभूति है।

3) पांचवें प्रस्तर में राजाराम के करूणानिधान रूप का ही “परमतत्त्व रूप मे साक्षात्कार” है। यह दृष्टि संपूर्ण जगत को ब्रह्ममय बना देती है और संत की वाणी बोल उठती है- “सियराममय सब जग जानी”। इसमें “सिय” या “वैदेही” तत्व ब्रह्म की चैतन्यता है, अंतःशक्ति है, परमेश शक्ति है, निर्वाचनीय माया है। सम्पूर्ण सृष्टि की रचयिता है, इसे संकल्प कहो, कामना कहो, ईक्षण कहो या लीला, अरूप से सरुप, निर्गुण से सगुण रूप में यही तो अभिव्यक्त है। यह लीला भी है, लीलाधर भी।

वेदांत और गीता के “उल्टे लटके अश्वत्थ वृक्ष” का बीज तत्व ब्रह्म है। वहीं “राम” है, “रामत्व” है तो पूरा विकसित फूल और फलों से लदा वृक्ष ही “वैदेही” तत्व है, माया सृजित त्रिगुणात्मिका लीला है, प्रकृति है। यहां नानात्व तो इन्हीं गुणों का खेल है। गीतजी यही तो कह रही हैं- गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते (3/28)। इसी सत्य को अनुभूत करना है। हे महाबाहो, हे अर्जुन ! तत्वविद होकर तुम इस सत्य को जानो। इसे प्रत्यक्ष अनुभूत करो।

यह प्रयक्ष बोध है। … और ये अनुभूतियां ही ज्ञान के विविध सोपान हैं। इस साक्षात्कार में जो भी बाधा और अवरोध है, उसे वैरी समझकर त्याग दो। इस आत्मबोध के लिए अनात्म का परित्याग प्रथम शर्त है। साक्षात्कार हो जाना ही अंतिम निर्णय है, इनमें आपस में कोई भी विरोधाभास नहीं है।

– डॉ जयप्रकाश तिवारी (94533 91020)
भरसर, बलिया,
उत्तर प्रदेश।

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