विशेष आलेख : परशुराम जयंती पर सांस्कृतिक विमर्श

10 मई को परशुराम जयंती है।

हम क्या थे, क्या हैं, होंगे क्या? अब यही बैठ कर सोच रहाँ हूँ। शिक्षा में ह्रास भिक्षा की आस। हर बात में पश्चिम देख रहा हूँ। आज प्रतिगामी सोच वाले शुक्राचार्यों की भरमार तो सब और है, परन्तु प्रगतिशीलता के पोषक परशुराम, वशिष्ठ, कोण, कौटिल्य, कबीर, नानक और विवेकानंद जैसों का आभाव क्यों है? नैतिक मूल्यों में ह्रास क्यों है? और भौतिकता की आंधी में अध्यात्मिकता का उपहास क्यों है? कहीं पढ़ा था – “कोई भी गम मनुष्य के साहस से बड़ा नहीं वही हारा जो लड़ा नहीं”। यह विचार नहीं, सिद्धांत है। हमें लड़नी है, एकसाथ दो लडाइयां- एक सांस्कृतिक पुनरुत्थान की और दूसरी मधुमय संतुलित प्रकृति की। उसके संरक्षण और अनुरक्षण की।

मूल अधिकार यह हक़ है अपना, नहीं कोई यह भिक्षा है। कंठ में शास्त्र और कर में शस्त्र यह परशुराम की शिक्षा है। शास्त्र पर तो चर्चा बहुत मिलती है। कुछ चर्चा उनके अस्त्र पर, उनके परशु और शास्त्र पर। परशुराम का सन्देश स्पष्ट है- जब शास्त्र की मर्यादा, राष्ट्रीय स्वाभिमान, अपना अस्तित्व, अपनी संस्कृति और अपनी प्यारी प्रकृति हो संकट में, अन्याय के दमन और लोकमंगल हेतु सर्वथा उचित है शस्त्र प्रयोग।

परन्तु आज का शस्त्र परशु नहीं, अपना मत है, वोट है, संवैधानिक अधिकार, सांस्कृतिक विमर्श है। तेजस्वी विश्वामित्र ने स्वीकार किया था कभी- “क्षात्र शक्ति बलं नास्ति ब्रह्म तेजो बलं बलम”। सांस्कृतिक अधिकार में, दायित्व निर्वहन में, उसी राष्ट्रीय उर्जा का प्रस्फुटन होना चाहिए। परशु हमेशा शिरोच्छेदक ही नहीं होता, होता है यह सर्जक और पोषक भी। अवांछित टहनियों को काट-छाँट कर, स्वस्थ शाखा, समर्थ वृक्ष के निर्माण में। देखो ! इसका कितना सुंदर उपयोग। लोकमंगल की तुला पर ही अब करना है इसका प्रयोग।

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परशुराम की यह शिक्षा छठे नानक के रूप में रंग लाई, जब ‘मीरी’ और ‘पीरी’ के रूप में, इसे गुरु ने अपनी जीवन संगिनी बनाई। दशमेश पिता ने किया इसे साकार, बना दिया जिसने नर को एक ही साथ,”संत” – “सिपाही” और “सरदार।

रम रहा जो जीव – जगत में,
एक वही तो है- राम। साथ विवेकी परशु हो जब, जानो उसे ही तब – परशुराम। था संस्कृति का रक्षक वह, “धनुष-भंग” सह सहता कैसे? देखा जब पूरी घटना, जाना जब सारा विवरण। जान लिया उत्तराधिकारी का अवतरण, क्षणमात्र ना किया विलम्ब तब। दिया सौप सब भार उसे ही तत्क्षण।

संघेशक्ति कलियुगे, विचार नहीं सच्चाई है, करनी होगी स्वीकार इसे, इसी में सबकी भलाई है। हम मिल बैठ विचार करेंगे, हे संभव उपचार करेंगे। साथ जियेंगे, साथ मरेंगे, आज यही संकल्प करेंगे। कर उपाय हरसंभव संतुलित परिस्थितिकी का निर्माण करेंगे। अब तक चाहे जितना खोया, अबसे हम उत्कर्ष करेंगे। कैसे हो सिरमौर राष्ट्र? अब इसका भी सुप्रबंध करेंगे।

लेखक डॉ जयप्रकाश तिवारी
बलिया/लखनऊ, उत्तर प्रदेश

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