नुक्कड़ नाटक एक ऐसी नाट्य विधा है, जो परंपरागत रंगमंचीय नाटकों से भिन्न है। ये रंगमंच पर नहीं खेले जाते बल्कि खुली जगहों में इनका मंचन किया जाता है। यह एक ऐसी जीवंत कला है, जो सामाजिक समस्याओं के प्रति जनता को जागरूक करने के लिए अस्तित्व में आई। नुक्कड़ नाटक के बारे में जर्मन नाटककार ब्रेख्त ने कहा- “नुक्कड़ नाटक बहुत पुरानी विधा है, इसकी उत्पत्ति, इसका उद्देश्य एवं लक्ष्य घरेलू है। इसमें कोई शक नहीं कि यह समाज के लिए महत्व की चीज है, जो उसके सभी तत्वों पर छाया हुआ है।”
नुक्कड़ नाटक के बारे में प्रसिद्ध रंगकर्मी सफदर हाशमी कहते हैं- “नुक्कड़ नाटक आधुनिक समाज के अंतर्विरोधों और मुखालफत का माध्यम है। नुक्कड़ नाटक भले ही एक समय राजनीतिक आवश्यकता के रूप में स्वीकार किया गया हो, लेकिन अब वह बढ़ते-बढ़ते राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक समस्याओं तक पहुंच गया है।”
नुक्कड़ नाटक थिएटर का ही एक रूप है। नुक्कड़ नाटक एक ऐसा नाट्य अभिनय होता है, जो प्रायः खुली जगहों में जनता के बीच प्रस्तुत किया जाता है। जैसे कोई पार्क या सड़क के किनारे या आजकल स्कूल और कॉलेज के प्रांगण में भी नुक्कड़ नाटक खेले जाते हैं। नुक्कड़ नाटक का उद्देश्य बिना किसी तामझाम के अपनी बात जनता तक पहुंचाना होता है।
इन नाटकों के विषय भी जनतांत्रिक की समस्याओं से जुड़े हुए होते हैं, जैसे- गरीबी, भुखमरी, अशिक्षा, महिलाओं पर हो रहे अत्याचार, दहेज प्रथा, बाल विवाह, जातिवाद, अस्पृश्यता, नशाखोरी आदि। ये नाटक आम जनता की सीधी पहुंच में होते हैं। जो लोग महंगी टिकट खरीद कर थिएटर में नाटक देखने नहीं जा सकते, वे इन नुक्कड़ नाटकों के द्वारा अपना मनोरंजन कर सकते हैं और बहुत सी बातें सीख सकते हैं।
नुक्कड़ नाटक पारम्परिक ग्रामीण अंचल से निकला हुआ थिएटर माना जाता है। लेकिन बाद में इसे शहरों में भी दिखाया जाने लगा। आजादी से पहले नुक्कड़ नाटक विधा का प्रयोग जनता में पराधीनता के विरुद्ध जागरूकता पैदा करने के लिए किया जाता था। नुक्कड़ नाटक की परम्परा को आगे बढ़ाने में भारतीय जन नाट्य संघ या इंडियन पीपुल्स थिएटर एसोसिएशन का प्रमुख योगदान रहा है। इस संस्था ने नुक्कड़ नाटक की विधा को मुख्य धारा में लाने का काम किया। आज़ हमारे देश में बड़ी संख्या में थिएटर एसोसिएशन मौजूद हैं, जिनमें थिएटर यूनियन, संवेदन, लोक कला मंच, निशांत और अस्मिता थिएटर ग्रुप आदि शामिल हैं।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी 50-60 के दशक में नुक्कड़ नाटक प्रचलित रहे। जिनमें हबीब तनवीर और उत्पल दत्त जैसे कलाकारों ने इसे आगे बढ़ाया। लेकिन 70-80 के दशक में देश में राजनीतिक उठा पटक का दौर जारी था और सन् 1975 में आपातकाल की घोषणा हुई, कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े लोगों पर हमले हुए तो नुक्कड़ नाटकों का अध्याय भी बदल गया। बादल सरकार ने मुख्य धारा का थिएटर छोड़ कर नुक्कड़ नाटकों के माध्यम से जनता के मुद्दों को लोगों के बीच रखा। सफदर हाशमी 70-80 के दशक के जाने माने कलाकार थे। उनके संगठन जन नाट्य मंच ने स्ट्रीट थिएटर मूवमेंट की शुरुआत की।
हाशमी ने 1973 में जन नाट्य मंच की स्थापना की और उसके बैनर के नीचे इस संगठन द्वारा सन् 2002 तक 58 नुक्कड़ नाटकों की 7 हज़ार तक प्रस्तुतियां पूरे देश में दी जा चुकी हैं। मगर सन् 1989 में नुक्कड़ नाटक ‘हल्ला बोल’ के मंचन के समय हाशमी की हत्या कर दी गई। उन्होंने मशीन, औरत आदि नाटकों का मंचन किया था। नुक्कड़ नाटकों के प्रति उनके प्रेम को देखते हुए उनके जन्म दिवस पर 12 अप्रैल को राष्ट्रीय नुक्कड़ नाटक दिवस के रूप में मनाया जाता है। नुक्कड़ नाटक सरकार को चुनौती देने और जनता के नजरिए को बदलने में अहम भूमिका निभाते हैं। आज़ नुक्कड़ नाटकों की परम्परा को पुनर्जीवित करने की आवश्यकता है।
– सरिता सुराणा
हिन्दी साहित्यकार एवं स्वतंत्र पत्रकार
हैदराबाद