श्वान का अर्थ तो आप जानते ही होंगे। नहीं जानते? तो कृपया शब्दकोश का सहारा अवश्य लीजिए। यदि मैं बताऊँगा तो आप नाक-मुंह अवश्य सिकुड़ने लगेंगे। गुस्सा भी आ सकता है। यदि आपके कोई मित्र यह कहे कि मैं टॉयलेट या वाशरूम होकर आता हूँ, तो आपको लगेगा कि वे किसी विदेश की यात्रा पर जा रहे हैं। वही, अगर कहें कि मैं पेशाब करके आऊँगा या पैखाने जा कर आऊँगा, टट्टी करके आऊँगा तो आप अवश्य ही नाक-मुंह सिकुड़ लेंगे। यह पढ़ते समय आपने अवश्य ऐसा किया होगा। इसलिए श्वान का अर्थ आप स्वयं ढूँढ लें।
अच्छा, आप जानते हैं, तो यह भी जानते होंगे कि इसके पूर्वज जंगली थे। मनुष्य के पूर्वज भी जंगली थे। कपि थे। अब कपि का अर्थ भी आप शब्दकोश से मालूम करेंगे तो अच्छा होगा। मेरी कलम से न बुलवाएँ। मनुष्य और श्वान के पूर्वजों के जंगली होने में जमीन-आसमान का फर्क है। मनुष्य के पूर्वजों को सभ्य बनाने में प्रकृति का बहुत बड़ा योगदान रहा है। प्रकृति ने मनुष्य को मनुष्य बनाया था।
सुझाव दिया था कि सभ्य बनने का अभ्यास जारी रखो। लेकिन मनुष्य के कुछ समुदायों ने प्रकृति की सीख की अवहेलना की। अभ्यास करने में आलस्य किया। काम चोरी की। इसी कारण वे पुनः जंगली बनते जा रहे हैं। फिर से मेरा आग्रह है कि जंगली होने की परिभाषा भी आप शब्दकोश में ढूँढ लेंगे तो बेहतर होगा। वरना आप मेरी प्रिय सखियों – कलम और कल्पना को कोसने लगेंगे।
इन दिनों श्वान अचानक फेमस हो गया है। अखबारों और समाचार चैनलों की सुर्खियों में छा गया है। शायद उसे पता चल गया है कि जो दिखता है, वही बिकता है। आजकल फेमस होने और बिकने के लिए समाचार की सुर्खियों में आना और समाचार चैनलों की चर्चा-परिचर्चा कार्यक्रमों का हिस्सा बनना बेहद जरूरी हो गया है। यह आसान भी है। अब पठान फिल्म के गीत – ‘बेशरम रंग’ को ही ले लीजिए। वह दिखा और बिका भी। पूरी फिल्म फेमस हो गई। खैर, हम विषय से भटक न जाएँ। श्वानों के समुदाय इन दिनों सुर्खियाँ बटोर रहे हैं।
पिछले कुछ दिनों से श्वान की प्रजातियों ने मनुष्य कहे जाने वाले प्राणियों के नाक में दम कर रखा है। कुछ श्वान तो मनुष्य का चोला पहनकर घूम रहे हैं। मनुष्य ने श्वान को सभ्य बनाने की कोशिश की। प्रकृति द्वारा सभ्य बनाया जाना और प्रकृति द्वारा सभ्य बनाए गए मनुष्य द्वारा किसी श्वान को सभ्य बनाए जाने में बड़ा अंतर है। यदि प्रकृति ही सीधे श्वान की काया पलट कर देती तो उसका रंग-रूप बदल जाता। लेकिन ऐसा नहीं हो सका। किंतु वह मनुष्य के साथ रहते-रहते अपना जंगली रूप-स्वभाव बदलने की कोशिश में लगा है।
समय, क्षेत्र, वातावरण के अनुसार मनुष्य का पहनावा बदला। लेकिन क्या पहनावा बदलने मात्र से वह सभ्य कहलाने का हकदार है? श्वान की पीढ़ियों ने हमारे पूर्वजों और हमारे साथ रहते-रहते हम लोगों की तरह ही सभ्य बनने की भरसक कोशिश की है। मेरी बेटी को श्वान बहुत पसंद है। उसे घर में रखना चाहती है। किंतु पत्नी को नहीं पसंद। पत्नी की जिद्द के आगे हम दोनों लाचार हैं। वरना हम बहुत पहले एक सभ्य श्वान घर पर लाए होते।
मेरी पत्नी के मना करने पर मेरे मन में प्रश्न उठा कि सभ्यता का मापदंड क्या होना चाहिए? केवल पोशाक बदलने मात्र से व्यक्ति सभ्य हो जाता है? कोई यदि खादी की धोती पहन ले, तो क्या वह गाँधी बन जाता है? गेरुएँ वस्त्र धारण करने मात्र से कोई स्वामी विवेकानंद बन जाता है? कोट पहनकर संविधान हाथ में लेकर फोटो खिंचवाने से कोई बाबा साहेब अंबेडकर बन जाता है? यदि ऐसा नहीं होता है, तो हर श्वान भी सभ्य नहीं हो सकता।
यदि इन प्रश्नों के उत्तर संदर्भ-समय के अनुसार हाँ या नहीं हो सकते हैं तो श्वान के सभ्य होने की मिली-जुली संभावनाएँ हैं। फिर भी श्वान तो श्वान है, मनुष्य नहीं। श्वान बोल नहीं सकता। अपने सभ्य होने के प्रमाण बोलकर दे नहीं सकता। इसीलिए जिस श्वान के गले में पहचान पत्र के रूप में पट्टा होता है, उसे सभ्य मान लिया जा रहा है और अन्य श्वानों की पूछताछ हो रही है। उन्हें काले पानी की सजा हो सकती है।
श्वान के समुदाय के कुछ सदस्य मनमानी करने लगे हैं। सड़कों पर उतर आए हैं। अरे नहीं, वे पहले से ही सड़कों पर थे। उनके लिए अभी स्वगृह की परियोजना बनी नहीं है। उन्हें अभी मतदान करने का अधिकार नहीं मिला है। वे मतदान करने जितनी सभ्यता के स्तर तक नहीं उठ पाएँ हैं। वैसे मतदान करने वाले सभी लोग कहाँ अपने स्वगृह में रहते हैं। सड़कों पर बिना पट्टे के आवारागर्दी करने वाले सभी श्वानों को पकड़ने का आदेश जारी हो चुका है। उन्हें हमारे पूर्वजों द्वारा झेले गए जलियाँवाला बाग की तरह यातनाओं का सामना करना पड़ सकता है। शायद उनके कोई मानवाधिकार नहीं हैं, शायद पेटा का कोई सदस्य भी इनका पक्ष लेना नहीं चाहता है। क्योंकि, इन आवारा श्वानों का कोई मसीहा नहीं है। पीड़ा से गुजरने वाला ही जानता है, उस पर क्या गुजर रही है। चाहे मनुष्य हो या श्वान। अस्तु।
लेखक डॉ बी बालाजी