(महर्षि दयानन्द सरस्वती जी ने आर्य समाज की स्थापना 7 अप्रैल 1875 में मुम्बई स्थित गिरगांव मुहल्ले में की थी। महर्षि देव दयानन्द सरस्वती जी के हैदराबाद में जन्मे और निजाम शासन के विरूद्ध क्रान्ति की ज्वाला प्रज्वलित करने वाले अनन्य देशभक्त, पण्डित गंगाराम जी ने फरवरी 1946 को ‘ऋषि चरित्र प्रकाश’ लिखा था। यह धर्म ग्रन्थ प्रकाशक संघ, हैदराबाद का पहला पुष्प था। इस ऋषि जीवनी को आर्य प्रतिनिधि सभा के अधीनस्थ चलने वाले शिक्षा केन्द्रों के लिए स्वीकृत हो चुकी थी, लेकिन निज़ाम रियासत ने फरमान जारी कर ऋषि जीवनी को जब्त किया था। इस ग्रन्थ के प्रथम भाग के विषय संख्या 10 में ‘आर्य समाज की स्थापना’ को आप सभी पाठकों में प्रस्तुत करते हुए हर्ष हो रहा है। जानिए और पढ़िए नवीन भारत के जन्मदाता महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती जी द्वारा आर्य समाज की स्थापना। शुक्रवार को स्वामी दयानंद सरस्वती जी पर एक पोस्टल स्टाम्प का विमोचन समारोह विज्ञान भवन दिल्ली में है।)
महर्षि दयानन्द सरस्वती जी ने हुगली, छपरा, डुमरांव, अहमदाबाद आदि अनेकों स्थानों में शास्त्रार्थ करके वहां के पण्डितों को परास्त किया। इन शास्त्रार्थों और व्याख्यानों का देश पर अच्छा प्रभाव पडा। सहस्रों व्यक्ति वेदों के भक्त बन गये। महाराज इसको चिरस्थायी बनाये रखना चाहते थे। ‘अतः उन्होने फरूखाबाद, काशी, कलकत्ता, कासगंज, छलेसर, मिर्जापुर आदि स्थानों में ‘वैदिक पाठशालाएं’ खोलना आरंभ किया। महाराज का अधिक समय इन्हीं के प्रबन्ध में व्यतीत होने लगा था। इन पाठशालाओं के लिये जो अध्यापक मिले थे उनके हृदयों मे से पुराणों की गहरी छाप अभी निकली न थी। यह देख स्वामीजी ने इन पाठशालाओं को तुरत ही बन्द कर दिया। इस प्रकार महाराज काशी को केन्द्र बनाकर वैदिक पाठशालाओं द्वारा वेदों का जो प्रचार करना चाहते थे वह निष्फल हुआ।
स्वामीजी वेद प्रचार कार्य को स्थिर बनाये रखना चाहते थे। उन दिनों ब्रह्म समाज और प्रार्थना समाज सुधार कार्य के लिये प्रसिद्ध थे। घूमते फिरते 1872 ई. में स्वामीजी कलकत्ता पहुंचे। बैरिस्टर केशवचन्द्र सेन, बाबू देवेन्द्रनाथ ठाकुर, राजा शौरिन्द्र मोहन आदि ब्रह्म समाज के नेताओं को ‘वेद के आप्तत्व’ या ‘वेद की प्रधानता’ को मानने के लिये स्वामीजी ने निमन्त्रण दिया। महाराज का विचार ब्रह्मसमाज में रहकर देश और जाति की सेवा करने का था। पर ब्रह्म समाज ने महाराज के निमन्त्रण को अस्वीकृत किया जिसके कारण वह कुछ और विचार करने लगे थे।
कलकत्ता से स्वामीजी 1873 ई. में अहमदाबाद पहुंचे। उन दिनों राव बहादुर भोलानाथ साराभाई और राय साहेब महीपतराय प्रार्थना समाज के स्थम्भ-स्वरूप थे। उनसे ऋषि ने कहा था कि ‘प्रार्थना समाज’ का नाम बदलकर ‘आर्य समाज’ रखा जाये और ‘वेदों के आप्तत्व’ और ‘वेद की प्रधा नता’ को स्वीकार किया जाये ताकि महाराज उनके साथ, रहकर कार्य कर सकें। यह प्रस्ताव भी अस्वीकृत हुआ। तब ‘स्वामी दयानन्द को निश्चय हो गया कि न तो वर्तमान संस्थाओं से उनका काम चल सकता है और न उन संस्थाओं के मठाधिकारी अपने निर्दिष्ट पक्ष में परिवर्तन करने के लिये उद्दत हैं। अतः यदि कुछ करना है तो किसी के आश्रय से काम न चलेगा।’
कहते हैं कि राजकोट प्रार्थना समाज ने महाराज का प्रस्ताव स्वीकार किया था। श्री देवन्द्रनाथजी मुखोपाध्याय के अनुसार ‘(स्वामी) दयानंद (जी महाराज) ने बिना अधिक विलम्ब के प्रार्थना समाज की ही सामग्री से राजकोट के रमणीय क्षेत्र में आर्य समाज की नींव डाल दी।’ “महर्षि दयानन्द का जीवन- चरीत्र” में एक स्थान पर श्री मुखोपाध्यायजी लिखते हैं:-
“राजकोट का आर्य समाज ही वास्तव में भारतवर्ष का सबसे पहला आर्य समाज था। आर्य समाज राजकोट का काम 5 – 6 मास चलता रहा, परन्तु फिर एक अप्रत्याशित कारण से उसका कार्य बन्द हो गया।” इस प्रकार सब से पहले आर्य समाज की स्थापना राजकोट में हुई। ऐसा श्री देवेन्द्रनाथजी मानते हैं। पर आर्य समाज से सम्बन्ध रखने वाले आर्य नेताओं का कथन है कि महाराज ने बम्बई नगर के गिरगांव मुहल्ले में – डॉक्टर माणिकचन्द्र जी की वाटिका में सायंकाल के समय आर्यसमाज की पहले पहल स्थापना की। चैत्र शुक्ल 1 रोज बुधवार 1932 वि. (7 अप्रैल स.1875 ई.) का वह शुभ दिन था, जबकि आर्यसमाज की स्थापना हुई, ऐसा आजकल प्रसिद्ध है।
संकलन भक्त राम, चेयरमैन, स्वतंत्रता सेनानी पण्डित गंगाराम स्मारक मंच