धोबी जिस सूझबूझ से अपना काम करते थे, उनकी बौद्धिक संपदा का अधिकार वे किसी और पर जमाते ही नहीं थे। रेह जैसे उम्दा साबुन की खोज उन्होंने ही की। उनका सारा ज्ञान उन्होंने खुद ही पीढ़ी दर पीढ़ी की साधना और सतत प्रयोगों से जुटाया था। इस हेतु उन्होंने किसी कॉलेज में दाखिला पाने के लिए कभी कोई आंदोलन नहीं किया था। उनके कपड़े धोने के तरीके में आज की तरह बिजली नहीं लगती थी और न ही कोई खतरनाक रसायन युक्त कोई धुलाई सामग्री लगती थी।
उनके कपड़े धोने से आज की तरह कोई जलस्रोत प्रदूषित नहीं होते थे और न ही जलस्रोतों में कभी झाग की समस्या आई थी। उन्हें कभी किसी तरह का तकनीकी प्रशिक्षण नहीं दिया गया था और न ही सरकार या किसी अन्य संस्थान से शोध व प्रशिक्षण कार्यक्रम हेतु अनुदान मांगा। आजकल की तरह महंगी व अत्याधुनिक मशीनों से भी बेहतर कपड़े धोने व पर्यावरण को संरक्षित करने के लिए किसी प्रकार का पुरस्कार नहीं मांगा।
कपड़ों को धवल चांदनी सा चमकाने व जलस्रोतों को बचाए रखने के लिए कभी किसी के आदेश का इंतजार नहीं किया। पर्यावरण दिवस जैसा कोई आयोजन नहीं किया और न ही किसी प्रकार के प्रशस्ति पत्र की मांग की। इसके बदले में सरकार ने रेह उत्पन्न करने वाली जमीनों को खत्म करने के लिए भूमि सुधार निगम बनाए। रेह जैसी खोज करने वाले अधिकतर लोग शौक कर कौतूहल से काम करने वाले थे या फिर वे अपना काम निकालने के लिए विभिन्न प्रयोग आजमाते थे।
लेकिन आज युग बदल रहा है। शोध जगत में केवल पेशेवर लोगों की ही जगह बची है। जो बिकाऊ है उस पर ही अनुसंधान करने हेतु सरकारी और आर्थिक इमदाद मिलती है। जो बिकाऊ नहीं है उसके अनुसंधान के लिए वैज्ञानिकों को आर्थिक मदद नहीं मिलती है। यही हाल रेह भूमि (Fuller’s Earth) के साथ हुआ। उसे उपेक्षित किया गया। जिसके कारण बिकाऊ नहीं समझा गया जबकि मुल्तानी मिट्टी आज बाजार में सौंदर्य प्रसाधन सामग्री के तौर पर बिक रही है। इसके जिम्मेदार काफी हद तक हम भी हैं, क्योंकि हमने शायद इसकी महत्ता को नहीं समझा और न ही इस पर अनुसंधान किया।
रेह की खूबी और महत्ता से अनजान आम जनमानस ने रेह से कपड़ा धुलने वालों को आउटडेटेड घोषित कर दिया। तथाकथित उच्च जातियों ने उनके काम की महत्ता को बिना जाने उन्हें अछूत घोषित कर दिया। केवल इतना ही नहीं धुलाई की अत्याधुनिक व भारी-भरकम मशीनों को देख हतप्रभ होकर उनसे होने वाली हानियों से अनजान अपने आपको भविष्यवक्ता कहने वाले धोबियों को ही जलस्रोतों को प्रदूषित करने का जिम्मेदार ठहराना शुरू कर दिया। जब सबने किसी न किसी चीज के लिए दोषी माना तो उनके अपने कैसे पीछे रहते?
उनके अपने समुदाय की पढ़ी लिखी आबादी, जिन्हें रेह की गुणवत्ता और अपने पुरखों द्वारा खोजी गई धुलाई सामग्री व धुलाई प्रक्रिया की महत्ता की जानकारी नहीं थी, ने उस कार्य को घृणित माना। तथाकथित उच्च जातियों ने उनके कार्य को सराहने व उन्हें सम्मान देने के बजाय अछूतों की श्रेणी में रखा, नतीजतन आज झाग वाली नदियां हमारे सामने हैं। (सोशल मीडिया से साभार)
– लेखक नरेन्द्र दिवाकर, मोबाइल नंबर- 9839675023