डायरी-अंश, समकाल में स्त्री : कुछ टिप्पणियां

[‘स्त्री’ यों तो सदा से तमाम सभ्यताओं के केंद्र में रही है। लेकिन दुनिया भर में पुरुष-वर्चस्व के चलते उसे सदा ही हाशिये पर रहने को विवश किया गया है। पिछली शताब्दी में जब लोकतंत्र और मानवाधिकार की बात छिड़ी, तो इस विडंबना के ऊपर भी लोगों का ध्यान गया। इससे दुनियाभर में स्त्री-मुक्ति की चेतना और स्त्री-विमर्श की आवाज़ें उठीं और वैश्विक स्तर पर बड़े सामाजिक बदलाव का सूत्रपात हुआ। इसके बावजूद अभी तक देश-दुनिया में स्त्री को आज भी बहुत जगह और बहुत बार ‘मनुष्य’ तक नहीं समझा जाता। यह स्थिति किसी भी संवेदनशील लेखक को बेचैन करती है। इसी बेचैनी का परिणाम हैं प्रोफेसर ऋषभदेव शर्मा की ये टिप्पणियाँ, जो उनकी गत एक वर्ष (मार्च 2023-फ़रवरी 2024) की लेखकीय डायरी से ली गई हैं।]

8 मार्च, 2023:
कुछ सत्ता है नारी की!?

8 मार्च अर्थात अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस!

इस अवसर पर यह सूचना सुखद कही जा सकती है कि ऐसा पहली बार हुआ है कि विश्व के सभी देशों में, महिला सांसदों का प्रतिनिधित्व हो गया है, और एक भी संसद ऐसी नहीं है जहाँ केवल पुरुष सांसद हों। कहना न होगा कि इस उपलब्धि तक पहुँचने के लिए दुनिया की आधी आबादी को लंबी लड़ाई लड़नी पड़ी है। लेकिन अभी समान अनुपात के लिहाज से यह उपलब्धि बहुत नाकाफी है – ऊँट के मुँह में जीरा सरीखी! अंतर-संसदीय संघ (आईपीयू) के महासचिव मार्टिन चुनगाँग की मानें तो प्रगति की इस रफ़्तार के साथ, संसदों में लैंगिक समता हासिल करने में अभी 80 साल और लगेंगे। यही नहीं, फ़िलहाल यौनवाद, उत्पीड़न और महिलाओं के विरुद्ध हिंसा का माहौल वे सबसे बड़ी चुनौतियाँ हैं, जिन्हें हम दुनिया भर में देख रहे हैं!

भले ही आज महिलाएँ दुनिया भर में अनेक क्षेत्रों में शिखर पर हों, लेकिन सबसे विकसित समाजों तक में उन्हें किसी न किसी रूप में लैंगिक भेदभाव का सामना करना ही पड़ता है। पुरुष वर्चस्व की सामंती मानसिकता घर से लेकर कार्यक्षेत्र तक व्यापक असमानताओं के रूप में स्त्रियों का पीछा किया करती है। इस कारण उन्हें कई तरह की असुरक्षाओं से लड़ना पड़ता है। इसलिए यह बहुत ज़रूरी है कि केवल आज के ही दिन नहीं, बल्कि लगातार, हिंसा और भेदभाव जैसे उन तमाम मुद्दों पर चर्चा की जाती रहे, जिनका सामना आज भी दुनिया भर की महिलाएँ कर रही हैं। साथ ही ज़रूरी है उन उपायों की खोज जो इन महिलाओं को ऐसा बेहतर परिवेश प्रदान कर सकें जिसमें सुरक्षित और सम्मानित जीवन की गारंटी शामिल हो।

यह जानकर कुछ लोग चौंक सकते हैं कि महिलाओं के मानव अधिकारों को बहाल करने की दिशा में दुनिया फिलहाल जिस गति (या सुस्ती?) से काम कर रही है, उससे महिलाओं और लड़कियों के लिए समानता लाने में लगभग तीन शताब्दियाँ और लगेंगी! सयाने बता रहे हैं कि लगातार असमानताओं से पीड़ित, लगभग 38 करोड़ 30 लाख महिलाएँ और लड़कियाँ, अत्यधिक ग़रीबी में रहने को मजबूर हैं। संयुक्त राष्ट्र के आँकड़ों के मुताबिक, हर 11 मिनट में एक महिला या लड़की अपने ही परिवार के किसी सदस्य के हाथों मौत का शिकार होती है!

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यहाँ यह भी विचारणीय है कि विकास के नए सोपान चढ़ती दुनिया महिलाओं के सामने नित नई और अबूझी समस्याएँ पैदा कर रही है। कई बार तो ऐसा लगता है कि इक्कीसवीं सदी इस आधी दुनिया के लिए नई चुनौतियाँ लेकर आई है। यह कम चिंताजनक बात नहीं है कि महिलाओं के ख़िलाफ़ भौतिक दुनिया में होने वाला भेदभाव, दुर्व्यवहार और स्त्री-द्वेष बड़ी तेजी से वर्चुअल दुनिया में भी पैर पसार रहा है। इसका शिकार बनने वाली महिला जब तक इसे पहचान पाती है, तब तक सब कुछ बिगड़ चुका होता है। और तब यह कह कर हाथ मलने के अलावा कुछ नहीं बचता कि ‘सब कुछ लुटा के होश में आए तो क्या किया?’ इसलिए वक़्त रहते महिलाओं और लड़कियों को वर्चुअल दुनिया यानी डिजिटल क्षेत्र के संभावित खतरों से अवगत कराना आज की बड़ी जरूरत है। देखना यह भी होगा कि औरतें प्रौद्योगिकी तक सीमित पहुँच के कारण प्रगति की दौड़ में पीछे न रह जाएँ। समाज को सुनिश्चित करना होगा कि उन्हें ऑनलाइन हिंसा का शिकार न बनाया जा सके। तकनीकी उद्योगों में प्रतिनिधित्व एवं लैंगिक पूर्वाग्रह जैसे मुद्दों को भी सुलटाना ज़रूरी होगा।

कहना न होगा कि नए हालात में लैंगिक समानता पर चर्चा करते हुए यह तय करना ज़रूरी होगा कि सभी महिलाओं एवं लड़कियों के सशक्तीकरण के लिए डिजिटल युग में नवाचार व तकनीकी परिवर्तन तथा शिक्षा पर ज़ोर दिया जाए, क्योंकि अंततः शिक्षा ही मुक्ति का आधार है!

14 अप्रैल, 2023:
मासिक धर्म स्वच्छता प्रबंधन

भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार को निर्देश दिया है कि वह विद्यालयों में पढ़ने वाली लड़कियों के लिए मासिक धर्म स्वच्छता के प्रबंधन के लिए ‘मानक संचालन प्रक्रिया’ (एसओपी) और एक राष्ट्रीय मॉडल तैयार करे, जिसे सभी राज्य तथा केंद्र शासित प्रदेश अपना सकें।

कहना न होगा कि आज भी तरह तरह की दकियानूसी प्रथाओं में बँधी भारत की बेटियों के स्वास्थ्य और स्वच्छता की यह चिंता बहुत प्रासंगिक है। भारतीय समाज आज भी स्त्री मामलों पर कई तरह की गैर जरूरी वर्जनाओं को अभिशाप की तरह ढो रहा है। यहाँ तक कि मासिक धर्म, माहवारी और मेंस्ट्रुएशन जैसे शब्द बोलने तक में हिचक आम बात है। ऐसे में इस विषय पर बातचीत, चर्चा, विमर्श या इससे जुड़े प्रबंधन को चिंता का मुख्य विषय बनाना आसान नहीं। गौरतलब है कि मासिक धर्म साफ पानी और स्वच्छता की आवश्यकता को विशेष रूप से महिलाओं के लिए महत्वपूर्ण बनाता है। ऐसी स्थितियों में, साफ पानी और स्वच्छता तक पहुँच जीवन और मृत्यु का मामला हो सकता है। इस तथ्य की भी उपेक्षा नहीं की जा सकती कि उचित मासिक धर्म स्वच्छता प्रबंधन की कमी लड़कियों को शिक्षा प्राप्त करने में एक बड़ी बाधा के रूप में कार्य करती है। माहवारी के बारे में प्रचलित मिथक लाखों लड़कियों को हर महीने अपने मासिक धर्म की अवधि के लिए जल्दी स्कूल छोड़ने के लिए मजबूर करते हैं। इसलिए शीर्ष अदालत के इस कदम की प्रशंसा की जानी चाहिए कि उसने इस मुद्दे को ‘बेहद महत्वपूर्ण’ करार देते हुए कहा है कि केंद्र को सरकारी और सरकारी-सहायता प्राप्त विद्यालयों सहित सभी विद्यालयों में मासिक धर्म स्वच्छता के प्रबंधन पर एक समान राष्ट्रीय नीति के कार्यान्वयन के लिए सभी हितधारकों के साथ जुड़ना चाहिए।

इतना ही नहीं, प्रधान न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति पीएस नरसिम्हा और न्यायमूर्ति जेबी पारदीवाला की पीठ ने सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के साथ समन्वय करने और राष्ट्रीय नीति तैयार करने के लिए प्रासंगिक डेटा एकत्र करने के लिए स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय के सचिव को नोडल अधिकारी भी नियुक्त किया है। उम्मीद की जानी चाहिए कि सियासी उठापटक से कुछ समय निकाल कर सरकारें व्यापक समाज हित के ऐसे मुद्दों पर भी कुछ सक्रियता दिखाएँगी।

बेशक, स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय, शिक्षा मंत्रालय और जल शक्ति मंत्रालय की मासिक धर्म स्वच्छता के मुद्दे पर योजनाएँ चल रही हैं। लेकिन उनकी गति और प्रगति को संतोषजनक नहीं माना जा सकता, क्योंकि अब भी बहुत सी बेटियाँ अस्वच्छता का अभिशाप झेल रही हैं। कहना न होगा कि उचित जानकारी और प्रशिक्षण का अभाव भी इसके लिए ज़िम्मेदार है। यह भी कि देश भर में शौचालयों के निर्माण के अभियान के बावजूद यह कहना मुश्किल है कि सभी राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों में तमाम आवासीय और गैर-आवासीय विद्यालयों में उचित संख्या में लड़कियों के शौचालय हैं और उनकी विधिवत साफ-सफाई की व्यवस्था है। विचाराधीन याचिका में इसीलिए अदालत से तीन चरणों में जागरूकता कार्यक्रम प्रदान करने के लिए केंद्र और राज्यों को निर्देश देने की प्रार्थना की गई थी : पहला, मासिक धर्म के स्वास्थ्य के बारे में जागरूकता फैलाना और इसके चारों ओर की वर्जनाओं को दूर करना, दूसरा, महिलाओं और युवा छात्राओं को पर्याप्त स्वच्छता सुविधाएँ और सब्सिडी वाले या मुफ्त सैनिटरी उत्पाद प्रदान करना और तीसरा, मासिक धर्म अपशिष्ट निपटान के लिए एक कुशल और स्वच्छ तरीका सुनिश्चित करना। यही वजह है कि पीठ ने सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को निर्देश दिया है कि वे स्कूलों में गुणवत्तापूर्ण किफायती सैनिटरी पैड्स की वेंडिंग मशीनों की उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए प्रावधान करें। साथ ही इस्तेमाल हो चुके सैनिटरी पैड्स के निपटान की भी स्कूल में व्यवस्था सुनिश्चित की जानी चाहिए।

प्रसंगवश, इस ‘चर्चा योग्य न समझे जाने वाले’ अनुभव पर अनामिका की कविता ‘प्रथम स्राव’ का एक अंश देखते चलें-

“अनहद-सी बज रही है लड़की/
काँपती हुई।
लगातार झंकृत हैं/
उसकी जंघाओं में इकतारे,
चक्रों सी नाच रही है वह/
एक महीयसी मुद्रा में
गोद में छुपाए हुए/
सृष्टि के प्रथम सूर्य सा, लाल-लाल तकिया।”

9 मई, 2023:
तालिबान का चरम स्त्री-द्वेष बनाम संयुक्त राष्ट्र की निरीहता

अफगानिस्तान में चरमपंथी तालिबान अपनी स्त्री-द्वेषी नीतियों से बाज आता नहीं दिखाई दे रहा है। अगर संयुक्त राष्ट्र की मानें तो कहना होगा कि तालिबान स्त्री-द्वेष के जरिये ही अपनी सत्ता चला रहा है। संयुक्त राष्ट्र तो यहाँ तक कह चुका है कि अगर तालिबान ने अपने रंग-ढंग नहीं बदले तो संयुक्त राष्ट्र अफगानिस्तान से अपना बोरिया-बिस्तर समेट लेगा। इससे उस देश के सबसे अधिक वंचित लोगों को महत्वपूर्ण मानवीय सहायता और सुरक्षा मिलना भी बंद हो सकता है, जो मानवीय दृष्टि से बहुत खराब कहा जाएगा! इसलिए इस धमकी के जवाब में तालिबान ने यह ज़रूर कहा है कि वह महिलाओं और लड़कियों को शिक्षा और कामकाज की सुविधा दे देगा, पर ज़मीनी स्तर पर हालात इसके उलट ही दिखाई देते हैं। सच्चाई तो यह है कि तालिबान लड़कियों और महिलाओं के प्रति बहुत क्रूर है और संयुक्त राष्ट्र भी इसे समझता है कि वह ऐसा जानबूझकर कर रहा है।

दरअसल अफगान महिलाओं के संयुक्त राष्ट्र और गैर-सरकारी संगठनों के साथ काम करने पर प्रतिबंध लगाने के तालिबानी फैसले के कारण संयुक्त राष्ट्र बड़े असमंजस में है। इस सिलसिले में संयुक्त राष्ट्र के विशेषज्ञों ने अफगानिस्तान में मानवाधिकारों और अफगान महिलाओं के खिलाफ भेदभाव की स्थिति पर अपने निष्कर्षों में कहा है कि तालिबान अपने “दुर्भावना के सबसे चरम रूपों” के माध्यम से सापेक्ष प्रगति को नष्ट कर रहा है। इसे दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि अफगानिस्तान में पिछले दो दशकों में जो लैंगिक समानता हासिल की गई थी, तालिबान उसकी धज्जियाँ उड़ा रहा है और मानवाधिकारों की अलमबरदार बनी वैश्विक संस्थाएँ इसे मजबूर होकर देखने के अलावा इन मजलूम औरतों के लिए कुछ भी नहीं कर पा रही हैं। गौरतलब है कि इसका जायजा लेने के लिए हाल ही में संयुक्त राष्ट्र के विशेषज्ञों ने अफगानिस्तान की आठ दिवसीय यात्रा की थी। इस जाँच दल की रिपोर्ट में किया गया यह खुलासा आँख खोलने वाला है कि गणतंत्र के पतन के बाद से, वास्तविक अधिकारियों ने कानूनी और संस्थागत ढांचे को खत्म कर दिया है और तालिबान धर्म की कुछ ऐसी व्याख्याएँ लोगों पर थोप रहा है जिनसे अधिकांश अफगान सहमत नहीं हैं!

आज के वैश्विक समाज में इस स्थिति को भला कैसे स्वीकार्य कहा जा सकता कि तालिबान कह रहा है कि महिलाओं के अधिकार का मामला उसका एक आंतरिक मामला है और अंतरराष्ट्रीय समुदाय को इसमें हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए? सवाल यह भी है कि क्या विश्व बिरादरी को स्त्रियों के साथ हो रहे इस अमानवीय भेदभाव को चुपचाप देखते रहना होगा? क्या बाकी दुनिया अफगानिस्तान में चल रहे तालिबान के इस स्त्री-द्वेषी नाच को रोकने के लिए कुछ भी नहीं कर सकती? संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट में यह तो कहा गया है कि अफगानिस्तान में महिलाओं और लड़कियों का जीवन उनके मानवाधिकारों के हनन से तबाह हो गया है, लेकिन इस समस्या के समाधान के लिए संयुक्त राष्ट्र क्या क्या कर सकता है, इसका कोई जवाब शायद किसी के पास नहीं है! अगर ऐसा है तो कहना होगा कि चरमपंथी तालिबान के समक्ष संयुक्त राष्ट्र ने भी घुटने टेक दिए हैं! काश, ऐसा न हो! लेकिन इस सच्चाई का क्या कीजिएगा कि अफगामीस्तान में लड़कियाँ और महिलाएँ यह गुहार लगा रही हैं कि “हम जीवित हैं, लेकिन जीवित नहीं हैं!” क्या संयुक्त राष्ट्र इन निरीह महिलाओं को उनका जीने का हक़ वापस दिलवाने के लिए कुछ भी नहीं कर सकता? सिवा इसके कि हाथ जोड़ कर प्रार्थना करता रहे कि तालिबान को अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार उपकरणों के तहत अपने दायित्वों का पालन करना चाहिए! अगर ऐसा है तो कहना ही होगा कि संयुक्त राष्ट्र और उसकी मानवाधिकार एजेंसियों के बने रहने के औचित्य पर पुनर्विचार का समय आ गया है!

26 मई, 2023:
शिखर पर बेटियाँ

संघ लोक सेवा आयोग (यूपीएससी) की सिविल सेवा परीक्षा में इस वर्ष 4 महिला प्रत्याशियों ने प्रथम 4 स्थानों पर कब्ज़ा जमा कर सचमुच इतिहास रच दिया है। इन्होंने इससे पहले का 3 स्थान का रिकॉर्ड तोड़ दिया है। यूपीएससी सिविल सेवा परीक्षा दुनिया की सबसे कठिन परीक्षाओं में से एक मानी जाती है और इन चारों बेटियों ने शिखर पर पहुँच कर कड़ी मेहनत और समर्पण का प्रमाण दिया है। शीर्ष रैंक पाने वाली इशिता किशोर, गरिमा लोहिया, उमा हरति एन. और स्मृति मिश्रा की यह उपलब्धि निजी हो सकती है, लेकिन यह भारतीय समाज की भी सार्वजनिक उपलब्धि है कि उसकी बेटियाँ हर क्षेत्र में नित्य नूतन कीर्तिमान रच रही हैं।

इस बार के परिणाम इसलिए और भी महत्वपूर्ण हैं कि घोषित परिणामों में 34 प्रतिशत स्थान महिलाओं को मिले हैं। कुल 933 स्थानों में से महिला उम्मीदवार 320 स्थानों पर सफल रही हैं। देश को अपनी इन सभी बेटियों पर नाज़ होना चाहिए। इनकी सफलता भारत में महिलाओं के लिए प्रगति का संकेत है। इससे पता चलता है कि महिलाएँ किसी भी क्षेत्र में उत्कृष्ट प्रदर्शन करने में पुरुषों की तरह ही सक्षम हैं, यहाँ तक ​​कि सबसे अधिक प्रतिस्पर्धी भी। यह भी एक संकेत है कि समाज नेतृत्व की भूमिका में महिलाओं को अधिक स्वीकार कर रहा है। लेकिन इस सच से भी मुँह नहीं चुराया जा सकता कि भारत की कुल कार्यरत आबादी में महिलाओं का अनुपात आज भी 17 प्रतिशत से अधिक नहीं है। इसका मतलब है कि अभी भी एक लंबा रास्ता तय करना बाकी है। याद रहे कि किसी भी समाज के समग्र विकास की खरी कसौटी उस समाज में महिलाओं की हैसियत ही होती है अर्थात समाज उनका सम्मान किस तरह और किस रूप में करता है! खेद के साथ कहना पड़ता है कि भले ही देश के सर्वोच्च शिखर पर पहुँच कर भारत की बेटियाँ तरह तरह से यह साबित कर चुकी/रही हैं कि स्त्री शक्ति सचमुच सर्वसमर्थ है, फिर भी यह महादेश अभी तक उन्हें उनके हिस्से का पूरा सम्मान देने में कोताही बरतता है, भेदभाव करता है। पुरुष-वर्चस्व की ग्रंथि अभी तक भी हमारे समाज को इस तरह जकड़े हुए है कि बेटियों की सारी उपलब्धियाँ उसके सामने निष्प्रभावी हो जाती हैं। यह कोई रहस्य नहीं है कि भारत में आज भी महिलाओं को जीवन के कई क्षेत्रों में लैंगिक भेदभाव का सामना करना पड़ता है। उदाहरण के लिए, समान कार्य करने के लिए उन्हें अक्सर पुरुषों की तुलना में कम भुगतान किया जाता है, और निर्णय लेने वाले पदों पर उनका प्रतिनिधित्व कम होता है। ऐसे में यूपीएससी में इन महिलाओं की रिकॉर्ड सफलता इस बात की याद दिलाती है कि हमें लैंगिक समानता के लिए लड़ाई जारी रखनी होगी। हमें एक ऐसा समाज बनाने की जरूरत है जहाँ महिलाओं को पुरुषों के समान अवसर मिलें और जहाँ उनके साथ भेदभाव न हो।

इन बेटियों की उपलब्धियाँ भारत की सभी बेटियों के लिए प्रेरणा का स्रोत हैं। इनकी सफलता अन्य महिलाओं को भी अपने सपने पूरे करने के लिए प्रेरित कर सकती है। इससे पता चलता है कि अगर आप कड़ी मेहनत करते हैं और कभी हार नहीं मानते हैं तो कुछ भी संभव है। इससे एक अधिक सशक्त और उत्पादक समाज बन सकता है। इस उपलब्धि का भारत के सामाजिक-सांस्कृतिक पारिस्थितिकी तंत्र पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ना चाहिए। इससे हम लैंगिक रूढ़ियों को तोड़ने और अधिक समान समाज बनाने की दिशा में प्रेरित हो सकते हैं। असल में इन महिला प्रत्याशियों की सफलता भारत के विकास का एक सकारात्मक चरण है। यह भविष्य के लिए प्रगति और आशा का संकेत है।

अंततः यह भी कि जिस देश में स्वर्ण पदक लाने वाली विश्वविजेता महिला एथलीटों तक को यौन उत्पीड़न का सामना करना पड़ता हो और न्याय के लिए सड़कों पर उतरना पड़ता हो, जिस समाज में परिवार और सार्वजनिक जीवन में निर्णय लेने में अधिकांश महिलाओं का कोई स्थान न हो, वहाँ प्रशासन के क्षेत्र में इन बेटियों की उपलब्धियों का गहरा अर्थ है- व्यवहारपरक भी और प्रतीकात्मक भी। इनकी सफलता भविष्य के लिए उम्मीद की निशानी भी है। इससे कम से कम इतना तो पता चलता ही है कि भारत में चीज़ें बदल रही हैं, और महिलाएँ धीरे-धीरे लेकिन निश्चित रूप से अधिक अधिकार और अवसर प्राप्त कर रही हैं।

31 मई, 2023:
राजधानी में स्त्री-(अ)सुरक्षा

भारत की राजधानी कितनी असुरक्षित और असंवेदनशील है, बाहरी दिल्ली के शाहबाद डेरी इलाके में एक युवक द्वारा बीच सड़क पर एक नाबालिग लड़की की 20 से ज्यादा बार चाकू से गोद कर हत्या की वारदात इसका एक और सबूत ही है। सीसीटीवी कैमरे के वीडियो से पता चलता है कि क्रोध, नफरत और प्रतिहिंसा से भरा हुआ वह युवा तब तक उस लड़की पर चाकू से वार करता रहा जब तक वह निढ़ाल होकर सड़क पर गिर नहीं गई। इससे भी जब उसके कथित रूप से आहत पुरुष-अहं को संतोष नहीं हुआ तो उसने सड़क पर पड़े बड़े से पत्थर से भी उसे पलट पलट कर आकर कुचला।

दृश्य इतना वीभत्स, क्रूर और नृशंस था कि किसी भी आते जाते व्यक्ति का साहस उसे टोकने का नहीं हो सका! इसके लिए लोगों को उनके दब्बू और कायर होने के लिए ज़रूर कोसा जा सकता है लेकिन इससे कानून और व्यवस्था के लिए प्रशासन की जवाबदेही कम नहीं हो जाती। दुर्भाग्य यह कि यह हिंसा भी उसी दिन हुई जिस दिन भारत को नया संसद भवन और सुनहरा राजदंड मिला और जंतर-मंतर से स्वर्णपदक विजेता महिला पालवानों को घसीट कर फेंका गया। बेशक, यह केवल संयोग है; लेकिन है तो राजधानी की कानून-व्यवस्था के माथे पर कलंक ही।

दरअसल, दिल्ली में कानून का राज कितना शिथिल हो चुका है, यह किसी से छिपा नहीं है। केंद्र और राज्य की सरकारें या तो आपस में टकराती रहती हैं या ज़िम्मेदारी एक दूसरे की ओर सरकाती रहती हैं, सकारात्मक कुछ भी नहीं करतीं। खास तौर से महिलाएँ और लड़कियाँ तो वहाँ इतनी असुरक्षित और ख़ौफ़ज़दा हैं कि घर से निकलते काँपने लगी हैं। सरकारों ने ओछी सियासत छोड़ कर इस ओर ध्यान न दिया तो देश की राजधानी कहीं स्त्री-असुरक्षा की राजधानी न बन जाए!

सवाल है कि किसी महिला के ऊपर तेजाब फेंकना, किसी के चेहरे पर ब्लेड से हमला करना, किसी को टक्कर मार कर मीलों कार के नीचे घसीटना और किसी को मार कर उसके शव के टुकड़े टुकड़े करना जैसे स्त्री-द्वेषी अपराध ही क्या राजधानी की पहचान बन कर रह जाएँगे? क्या ऐसे तमाम क्रूर और जघन्य कृत्य करने वालों को सिरफिरा भर कह कर समाज और सरकार अपनी ज़िम्मेदारी से बच सकते हैं? क्या हुआ अगर कोई लड़की किसी लड़के से परिचित थी, या किसी प्रकार के संबंध में थी और अब वह उस संबंध से बाहर निकलना चाहती थी? क्या इससे उस पर अत्याचार किए जाने या उसकी हत्या किए जाने को उचित मान लिया जाए? पुलिस की इस तरह की थ्योरियाँ स्त्री को पुरुष की संपत्ति मानने की विकृत मानसिकता की उपज हैं और स्त्री को अपने बारे में निर्णय लेने से वंचित रखने वाले दकियानूसी समाज की देन है। समाज तो खैर जब बदलेगा, तब बदलेगा; लेकिन पुलिस और प्रशासन को हर स्थिति में स्त्री को ही दोषी और ज़िम्मेदार साबित करने वाला अपना यह रवैया फौरन बदलना चाहिए। यही रवैया तो इन अपराधी मानस वाले पुरुषों को इन हिंसक वारदातों के लिए उकसाता है।

विडंबना यह है कि स्त्रियों के प्रति जघन्य अपराध करने वालों के प्रति न्याय व्यवस्था के पर्याप्त कठोर होने के बावजूद कानून की किसी न किसी कमज़ोरी का फायदा उठाकर ऐसे लोग बहुत बार छुट्टे घूमते रहते हैं! सयाने नब्बे के दशक के नैना साहनी और जेसिका लाल की हत्या के मामलों की याद दिला रहे हैं कि कैसे एक को टुकड़े टुकड़े करके तंदूर के हवाले कर दिया गया था और दूसरी को खुले आम सामने से गोली मार कर हत्या की गई थी। अखबारों से लेकर सिनेमा तक तहलका मचाने वाले इन हत्याकांडों का अंत क्या हुआ? इससे बड़ी विडंबना और क्या होगी कि “इन दोनों केस ने खूब सुर्खियाँ बटोरीं और आज भी अपराधी जेल के बाहर हैं!” शायद यही वजह है कि आम नागरिक का पुलिस, राजनीति और न्याय व्यवस्था से यकीन लगभग उठ गया है। इसे उस देश के लिए अच्छी खबर तो नहीं ही माना जा सकता न, जिसका दावा ‘लोकतंत्र की जननी’ होने का हो?

12 जून, 2023:
क्रूर, वीभत्स और निंदनीय

मुंबई के मीरा रोड में सरस्वती वैद्य की हालिया हत्या ने एक बार फिर भारत में महिलाओं के खिलाफ हिंसा की बढ़ती प्रवृत्ति को उजागर किया है। 32 वर्षीया सरस्वती को कथित तौर पर उसके 56 वर्षीय लिव-इन पार्टनर मनोज साने ने गला घोंट कर मार डाला था। मारने के बाद साने ने उसके शरीर के टुकड़े किए और उन्हें प्रेशर कुकर में पकाया। इस क्रूर, वीभत्स और जघन्य हत्याकांड ने देश को झकझोर कर रख दिया है और महिलाओं पर हिंसा के खिलाफ आक्रोश पैदा कर दिया है। इस प्रकार की हत्याओं के बढ़ना निंदनीय तो है ही, सभ्य समाज के ऊपर कलंक भी है। सोचना होगा कि समाज में स्त्री-द्वेष इतना घृणित और अमानवीय रूप क्यों लेता जा रहा है। इन अपराधों का बढ़ना बीमार और विकृत मानसिकता का लक्षण है जिसका समय रहते निदान न किया गया तो परिणाम समूचे देश के लिए घातक हो सकते हैं।

सरस्वती वैद्य की हत्या भारत में महिलाओं के खिलाफ हिंसा के असंख्य मामलों में से बस एक है! राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार, 2022 में भारत में महिलाओं के खिलाफ हिंसा के 31,000 से अधिक मामले दर्ज किए गए थे। वास्तव में यह संख्या इससे बहुत अधिक होने की संभावना है, क्योंकि महिलाओं के खिलाफ हिंसा के अनेक मामले दर्ज नहीं होते हैं। साफ है कि भारत में महिलाओं के खिलाफ बढ़ती हिंसा गंभीर चिंता का विषय है। इस प्रवृत्ति में योगदान देने वाले कई कारक हैं, जिनमें पितृसत्ता और उससे जुड़ी पुरुष-वर्चस्व की भावना सर्वोपरि है। भारत एक पितृसत्तात्मक समाज है, जहाँ पुरुषों को महिलाओं से श्रेष्ठ माना जाता है। यह मानसिकता पुरुषों में अधिकार की भावना पैदा करती है। ऐसे पुरुष स्त्री को गुलाम ही नहीं बल्कि भोग्य पदार्थ भर समझते हैं और उस पर अत्याचार व हिंसा करना अपना नैसर्गिक अधिकार। भारत में महिलाओं को शिक्षा, स्वास्थ्य देखभाल और रोजगार तक पहुँच की कमी सहित कई तरह से लैंगिक असमानताओं का सामना करना पड़ता है। ये असमानताएँ उन्हें यौन शोषण और हिंसा का सॉफ्ट टारगेट बनाती हैं। दुर्भाग्य है कि आम लोगों से लेकर सत्ताधीशों तक में स्त्री-प्रश्नों के प्रति आपराधिक किस्म की संवेदनहीनता पाई जाती है। इसके लिए महिला-अधिकारों के प्रति जागरूकता की कमी को भी ज़िम्मेदार माना जा सकता है। भारत में बहुत से लोगों को महिलाओं को हिंसा से बचाने वाले कानूनों की जानकारी नहीं है। जागरूकता की इस कमी के कारण महिलाएँ हिंसा की रिपोर्ट करने या मदद लेने से डरती हैं। इससे अपराधियों का हौसला बढ़ना स्वाभाविक है। सबसे खराब और शर्मनाक बात यह है कि यह असंवेदनशील समाज आम तौर पर अपनी बेटियों का समर्थन नहीं करता है। स्त्रियों को देवी और मातृशक्ति कहना और कन्याओं का पूजन करना ऐसे में कितना बेमानी लगता है! हिंसा झेलने वाली महिलाओं को अक्सर अपने परिवार, दोस्तों या समुदाय से समर्थन नहीं मिलता। इससे वे टूट जाती हैं। उनके लिए हिंसा से बचना या अपने जीवन का पुनर्निर्माण करना दूभर हो जाता है। राजनीति से लेकर पुलिस और न्याय-प्रक्रिया तक का यह स्त्री-द्वेषी चरित्र जाने कब बदलेगा!

श्रद्धा या साक्षी या सरस्वती – पति या प्रेमी या मित्र के रूप में किसी पुरुष की हिंसक वृत्ति का शिकार बनी इन महिलाओं का नाम या संप्रदाय कुछ भी हो, ये घटनाएँ बड़े सभ्यतागत खतरे का सायरन हैं। वक़्त आ गया है कि एक देश के रूप में हम इस मुद्दे को हल करने और सभी महिलाओं के लिए अधिक न्यायपूर्ण और न्यायसंगत समाज बनाने के लिए ठोस कार्रवाई करें। इसके लिए सबसे पहली ज़रूरत है – लैंगिक भेदभाव से मुक्ति। हमें शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा और रोजगार सहित जीवन के सभी क्षेत्रों में लैंगिक समानता को बढ़ावा देना होगा। इससे उन असमानताओं को कम करने में मदद मिलेगी जो महिलाओं को हिंसा का सुलभ शिकार बनाती हैं। हमें महिलाओं को हिंसा से बचाने वाले कानूनों के बारे में लोगों को शिक्षित करने की ज़रूरत है। इससे यह सुनिश्चित करने में मदद मिलेगी कि महिलाएँ अपने अधिकारों को जानती हैं और प्रतिशोध के डर के बिना हिंसा की रिपोर्ट करने में सक्षम हैं। साथ ही बेहद ज़रूरी है हिंसा का अनुभव करने वाली महिलाओं को सहायता और समर्थन प्रदान करने के समाज के हर वर्ग का सदा प्रस्तुत रहना। इसमें उन्हें सुरक्षित आवास, परामर्श और कानूनी सहायता प्रदान करना भी शामिल है।

अंततः, जब तक सामाजिक-राजनैतिक व्यवस्था स्त्री पर अत्याचार के प्रति सहिष्णु बनी रहेगी, तब तक इन अपराधों के रुकने की कल्पना नहीं की जा सकती। इसलिए हमें एक ऐसे समाज का निर्माण करने के लिए मिलकर काम करने की जरूरत है, जहाँ महिलाएँ सुरक्षित और सम्मानित हों। सरस्वती वैद्य की हत्या एक त्रासदी है, लेकिन इसे व्यर्थ नहीं जाना चाहिए।

15 जुलाई, 2023:
मलाला यानी स्त्री-शिक्षा की लड़ाई

नोबेल पुरस्कार विजेता और संयुक्त राष्ट्र शांतिदूत मलाला यूसुफ़ज़ई का अपने 26वें जन्मदिन के मौक़े पर, नाइजीरिया के अबूजा शहर में, यह ध्यान दिलाना बेहद अहम है कि आज भी दुनिया भर में 12 करोड़ से ज़्यादा लड़कियाँ स्कूली शिक्षा से वंचित हैं और विश्व को उनकी शिक्षा सुनिश्चित करने के लिए, और ज़्यादा कार्रवाई करनी होगी। दरअसल दुनिया के ज़्यादातर समाजों में लड़कियों को लंबे समय तक दोयम दर्जे का नागरिक माना जाता रहा है। बहुत बार तो उन्हें मनुष्य तक नहीं समझा जाता। उन्हें ग़ुलाम और यौन यंत्र बनाए रखने के लिए ज़रूरी था कि उन्हें शिक्षा से दूर रखा जाए। आज भी अनेक समाजों में उन्हें अपने लोकतांत्रिक अधिकार ही नहीं मानवाधिकार और जीने के अधिकार तक के लिए जूझना पड़ता है। उनकी मुक्ति के लिए शिक्षा सबसे ज़रूरी उपकरण है जिससे स्त्री-सशक्तीकरण की शुरूआत होती है (सा विद्या या विमुक्तये)।

कहना न होगा कि मलाला यूसुफ़ज़ई वर्तमान में लड़कियों की शिक्षा के लिए अपराजेय जद्दोजहद का प्रतीक बन गई हैं। याद रहे कि पाकिस्तानी मूल की शिक्षा पैरोकार मलाला को, उनकी इस पैरोकारी के कारण, तालिबान ने गोली मार दी थी जिसमें वे बाल-बाल जीवित बच गई थीं। यही वजह है कि उनके जन्मदिन (12 जुलाई) को ‘मलाला दिवस’ के रूप में मनाया जाता है। हर बार यह दिन लड़कियों के ‘शिक्षा के अधिकार’ की याद दिलाता है और निरक्षरता, निर्धनता तथा आतंकवाद के विरुद्ध वैश्विक कार्रवाई की ज़रूरत को उजागर करता है। इन तीनों अभिशापों से मुक्त हुए बिना कभी भी मानव जाति के कल्याण की संकल्पना पूरी नहीं हो सकती।

संयुक्त राष्ट्र की उप महासचिव आमिना जे. मोहम्मद ने मलाला के 26 वें जन्मदिन पर सही ही तो कहा कि ‘मलाला हमें कल्पना करने के लिए उकसाती रहती हैं: एक ऐसी दुनिया की कल्पना करने के लिए, जहाँ कम असहिष्णुता हो, ज़्यादा समझदारी व सम्मान हो। कम नफ़रत और ज़्यादा इनसानियत की एक दुनिया। कम भेदभाव और ज़्यादा समानता की एक दुनिया। कम अज्ञानता, और ज़्यादा शिक्षा व अधिक ज्ञान की एक दुनिया।’ लेकिन सवाल यह उठता है कि, आज इक्कीसवीं सदी में दुनिया का नेतृत्व करने वाली ताकतों को क्या सचमुच इन चीज़ों की परवाह है? अपनी-अपनी चौधराहट चमकाने में लगी ये ताकतें क्या संयुक्त राष्ट्र और उसकी शांतिदूत की आवाज़ को कोई अहमियत देती हैं? क्या सचमुच वे ऐसी दुनिया बनाना चाहेंगे जिसमें असहिष्णुता, नफरत, भेदभाव और अज्ञानता न हो, बल्कि जो समझदारी, सम्मान, इनसानियत, समानता, शिक्षा और ज्ञान जैसे उदार मूल्यों से संचालित हो? अगर ऐसा हो जाए तो यह धरती सचमुच रहनेलायक जगह बन जाए, जिसे इन ताकतों ने प्रत्यक्ष और परोक्ष वर्चस्ववादी युद्धों की आग में झोंक कर तबाह कर रखा है। मलाला दिवस कहीं न कहीं वैश्विक व्यवस्था के इस मानवविरोधी चरित्र के लिए चुनौती भी है। इस चुनौती की आवाज़ फिलहाल भले ही नक्कारखाने में तूती की आवाज़ जैसी लगे, लेकिन उसमें लोगों के विवेक को झकझोरने की ताकत ज़रूर है। उम्मीद की जानी चाहिए कि दुनिया में जहाँ जहाँ लड़कियाँ शिक्षा की रोशनी से वंचित हैं, यह आवाज़ वहाँ वहाँ नया झरोखा खोल सकेगी।

सयाने याद दिला रहे हैं कि मलाला यूसुफ़ज़ई ने, दस वर्ष पहले संयुक्त राष्ट्र में दिए गए अपने ऐतिहासिक संबोधन के बाद से, अपनी हाई स्कूल और विश्वविद्यालय शिक्षा पूरी कर ली है, 30 से अधिक देशों की यात्रा की है, और लड़कियों की शिक्षा में बाधाओं को कम करने की दिशा में काम करते हुए, अपार चंदा इकट्ठा किया है। यानी अब वे इस दिशा में असरकारी कार्य कर सकने के लिए पूरी तरह सन्नद्ध हैं। उम्मीद की जानी चाहिए कि उनकी कोशिशें दुनिया भर में संपूर्ण स्त्री शिक्षा के नए युग को संभव कर सकेंगी।

21 जून, 2023:
मणिपुर : इतना सन्नाटा क्यों?

2 महीने से ज़्यादा वक़्त से नस्ली हिंसा की लपटों में जल रहे मणिपुर में 2 महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार की अब सामने आई घटना किसी भी समाज के लिए शर्मनाक और निंदनीय है। इस घटना के वीडियो से जिस चरम बर्बरता का पता चलता है, काश वह सच न हो! अन्यथा मणिपुर जैसे स्त्री-सत्तात्मक समाज में स्त्रियों के साथ भीड़ का ऐसे अशोभन आचरण को भयंकर सामाजिक-सांस्कृतिक पतन का ही द्योतक कहा जा सकता है। राजनीति की तो बात छोड़ ही दीजिए। वह तो गर्त में जा ही चुकी है। राजनीति ने ही तो दो मणिपुरी समुदायों को इस कदर नफ़रत से भर दिया है कि वे एक-दूसरे की स्त्रियों के शीलहरण को पराक्रम समझ रहे हैं। इस अराजकता के लिए कौन जिम्मेदार है, यह तो खैर जब तय होगा तब होगा। लेकिन इसमें जिस तरह स्त्रियों को शिकार बनाया गया है, वह हमारे समय की कल्पनातीत त्रासदी है।

बहुत विलंब से सामने आए इस खौफनाक वीडियो से अगर राजनीतिक गलियारों में हंगामा मचता है तो यह स्वाभाविक है। सयाने बता रहे हैं कि इस वीडियो में भीड़ में घिरी दो महिलाएँ दिख रही हैं। उनके शरीर पर कपड़े नहीं हैं। भीड़ में शामिल पुरुष उनके साथ अमानवीय व्यवहार करते दिख रहे हैं। इस भीड़ ने इन दोनों महिलाओं को नग्न कर उनकी परेड कराई थी। कथित रूप से उनका बलात्कार किया गया था। इंडिया टुडे नॉर्थ ईस्ट के हवाले से बताया गया है कि इन महिलाओं को धान के खेतों में ले जाकर उनके साथ सामूहिक दुष्कर्म किया गया था।

एक पीड़िता ने अपनी आपबीती भी सुनाई, बताते हैं! इस पीड़िता के लिए वे पल कितने आतंकपूर्ण रहे होंगे जब उस दिन मैतेई समुदाय के लोगों की भीड़ गाँव में घरों को जला रही थी और कुकी समुदाय का यह परिवार कच्ची सड़क से भाग निकला था! लेकिन भीड़ ने उन्हें पकड़ लिया। पुरुषों को मौत के घाट उतारने के बाद भीड़ ने महिलाओं का उत्पीड़न करना शुरू किया और उन्हें कपड़े उतारने पर मजबूर किया। 21 साल और 40 साल की इन महिलाओं को इस तरह अपना शिकार बना कर वह भीड़ शायद पहले दिन अपने समुदाय की एक महिला के साथ हुए दुष्कर्म का बदला ले रही थी! ख़ून का बदला ख़ून और बलात्कार का बदला बलात्कार?

दो समुदायों के वर्चस्व की आपसी लड़ाई इतनी क्रूर और निर्मम हो जाए तो समझना चाहिए कि संस्कृति और सभ्यता से लेकर कानून और व्यवस्था तक सब कुछ सत्ता-संघर्ष की राजनीति की आग में स्वाहा हो चुका है! क्या यह उम्मीद की जा सकती है कि केंद्र और राज्य सरकारें, राष्ट्रीय महिला आयोग और राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग इस दुष्कांड का संज्ञान लेंगे और पीड़िताओं को न्याय मिलेगा? आख़िर कोई तो पूछे, ‘इतना सन्नाटा क्यों है भाई?’

यहाँ ठहर कर यह भी पूछा जाना चाहिए कि इस जघन्य कांड का वीडियो वायरल किया जाना, क्या उचित और नैतिक कहा जा सकता है? क्या पुलिस और मीडिया का ध्यान आकर्षित करने का कोई और तरीका नहीं हो सकता था? इस वीडियो को प्रचारित करने वालों ने क्या एक पल के लिए भी सोचा होगा कि इन निर्दोष महिलाओं की झेली गई भयावह यातना ऐसे वीडियो को शेयर करने से कितनी बढ़ जाएगी, जिससे सोशल मीडिया पर पीड़ितों की पहचान जाहिर हो रही हो? क्या यह भी असंवेदनशीलता नहीं है? लेकिन शायद ऐसा करने वालों को संवेदना से ज़्यादा परवाह सनसनी से मिलने वाले सुख की रही हो! यह भी समाज की मानसिक विकृति ही तो है न!

अंततः साहिर लुधियानवी के शब्दों में इतना ही कि-

ज़रा मुल्क के रहबरों को बुलाओ
ये कूचे, ये गलियाँ, ये मंज़र दिखाओ
जिन्हें नाज़ है हिंद पर उनको लाओ
जिन्हें नाज़ है हिंद पर वो कहाँ हैं
कहाँ हैं, कहाँ हैं, कहाँ हैं???

18 अगस्त, 2023:
अदालत की भाषा बनाम लैंगिक न्याय

लैंगिक रूढ़िवादिता से निपटने के लिए भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा हाल ही में लॉन्च की गई पुस्तिका (हैंडबुक) देश में लैंगिक न्याय सुनिश्चित करने की दिशा में एक स्वागतयोग्य कदम है। हैंडबुक सामान्य लैंगिक रूढ़िवादिता की पहचान करती है जो अक्सर कानूनी दस्तावेजों, बहसों और फैसलों की भाषा में दिखाई देती है, और वैकल्पिक भाषा प्रदान करती है जो अधिक सटीक और समावेशी है। यह महत्वपूर्ण है क्योंकि भाषा हमारी सोच पर गहरा असर डाल सकती है, और लैंगिक रूढ़िवादिता का उपयोग स्त्री-पुरुषों के बारे में हानिकारक धारणाओं को कायम रख सकता है।

पुस्तिका दो भागों में विभाजित है। पहला भाग लैंगिक रूढ़िवादिता को समझाते हुए यह बताता है कि वह कैसे हानिकारक हो सकती हैं। दूसरे भाग में लैंगिक अन्यायपूर्ण शब्दों की सूची शामिल है। साथ ही ऐसे शब्दों के स्थान पर बरतने लायक बेहतर विकल्प भी सुझाए गए हैं। इस सूची में शब्दों की एक विस्तृत शृंखला शामिल है, जिसमें “वेश्या” और “कुँवारी माँ” जैसे सामान्य शब्दों से लेकर “वैवाहिक बलात्कार” और “यौन उत्पीड़न” जैसे अधिक तकनीकी शब्द तक शामिल हैं जिनका इस्तेमाल आम तौर पर समाज स्त्रियों की गौण दशा का द्योतक है। इन शब्दों में कहीं न कहीं तिरस्कार का भाव भी शामिल होता है। यही वजह है कि इन शब्दों के न्यायपालिका में व्यवहार को अवांछनीय करार दिया गया है। इसे लैंगिक भेदभाव को दूर करने की एक सार्थक कोशिश कहा जा सकता है।

यह पुस्तिका न्यायाधीशों, वकीलों और कानूनी क्षेत्र में काम करने वाले किसी भी व्यक्ति के लिए एक मूल्यवान संसाधन है। इससे यह सुनिश्चित करने में मदद मिलेगी कि देश में कानूनी चर्चा अधिक लिंग-संवेदनशील है और महिलाओं के अधिकार सुरक्षित हैं। यह हैंडबुक उन लोगों के लिए भी एक अच्छी शुरूआत हो सकती है, जो लैंगिक रूढ़िवादिता और उसे चुनौती देने के बारे में अधिक जानना चाहते हैं।

सयाने बता रहे हैं कि इस पुस्तिका में यह दर्शाया गया है कि लैंगिक रूढ़ियाँ हानिकारक हैं क्योंकि वे लोगों की क्षमता को सीमित करती हैं, महिलाओं को उनकी पूरी क्षमता हासिल करने से रोकती हैं, और वे पुरुषों के खिलाफ भेदभाव को भी जन्म दे सकती हैं। याद रहे कि कानूनी संवाद में अक्सर लैंगिक रूढ़िवादिता का उपयोग किया जाता है, भले ही वह गलत और भ्रामक हो। इसका मामलों के नतीजे पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है, और इससे कानूनी प्रणाली में लिंगवाद की संस्कृति को बढ़ावा मिलता है। इसलिए यह ज़रूरी है कि अधिक सटीक और समावेशी भाषा का उपयोग करके लैंगिक रूढ़िवादिता के प्रयोग से बचा जाए। इस लिहाज से इस पुस्तिका में दी गई लैंगिक अन्यायपूर्ण शब्दों की सूची और सुझाए गए विकल्प न्याय जगत में भाषा के स्तर पर लैंगिक न्याय को सुनिश्चित करने में तो सहायक होंगे ही, वकीलों और जजों की बिरादरी में नए भाषिक संस्कार का आधार भी बन सकेंगे।

बेशक, सुप्रीम कोर्ट की यह कार्रवाई प्रगति का संकेत है। लेकिन अभी भी बहुत काम किया जाना बाकी है। क्योंकि भारतीय समाज में लैंगिक रूढ़ियाँ गहराई से व्याप्त हैं और इन्हें बदलना आसान नहीं होगा। उम्मीद की जानी चाहिए कि न्यायाधीश, वकील और कानूनी क्षेत्र में काम करने वाले लोग भर ही नहीं, बल्कि व्यापक स्तर पर देश भर में शिक्षक, छात्र, मीडिया और राजनेता भी इस पुस्तिका के निर्देशों को अपने दैनिक भाषा-व्यवहार में अपनाएँगे। ऐसा करके ही हम एक अधिक लिंग-समान भारत का निर्माण कर सकते हैं। वरना तो हम ऐसा रूढ़िग्रस्त समाज हैं जिसमें सारे आशीर्वाद पुरुषों के लिए आरक्षित हैं और सारी गालियों का लक्ष्य स्त्रियाँ हैं!

21 सितंबर, 2023:
महिला आरक्षण : लेकिन शर्तें लागू!

लोकसभा में नारी शक्ति वंदन अधिनियम के नाम से पेश किए गए महिला आरक्षण बिल को जहाँ एक लंबे अरसे से अधूरी पड़ी सदाशयतापूर्ण आकांक्षा की पूर्ति के लिहाज से बड़ा कदम कहा जा सकता है, वहीं इसका श्रेय बटोरने की अलग अलग पार्टियों की इच्छा इसे विवादास्पद भी बनाती दिख रही है। बिल पेश करने के क्षण से ही यह सियासी खींचतान शुरू हो गई। इसके बावजूद सरकार इसके पास होने के मामले में पूर्ण आश्वस्त है।

इस बिल/कानून का आधार यह कठोर सच्चाई हूं कि आधी आबादी अर्थात महिलाओं को लोकसभा में एक तिहाई प्रतिनिधित्व तो दूर, एक बटा छह प्रतिनिधित्व भी कभी नहीं मिला है। आज़ादी के बाद से अब तक सबसे ज़्यादा महिला प्रतिनिधित्व मौजूदा 17वीं लोकसभा में ही देखने में आया, जो केवल 15.2 प्रतिशत है। इसलिए, जैसा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा, इस विधेयक का लक्ष्‍य लोकसभा और विधानसभाओं में महिलाओं की भागीदारी का विस्‍तार करने का है। विश्वास किया जाना चाहिए कि इससे हमारा लोकतंत्र अधिक समावेशी और मजबूत बन सकेगा। यह बात अलग है कि इसे लागू होने के लिए कम से कम 2026-27 तक इंतजार करना होगा।

गौरतलब है कि इस कानून के लागू होने पर लोकसभा और दिल्ली समेत सभी राज्यों की विधानसभाओं में एक तिहाई सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित होगीं। खास बात यह भी कि अनुसूचित जाति/जनजाति के लिए ‘कोटा के अंदर ही कोटा’ होगा. यानी इन दोनों समूहों के लिए जो सीटें पहले से रिजर्व हैं, उनमें 33 प्रतिशत महिलाओं के लिए आरक्षित होंगी। यहाँ तक तो ठीक है लेकिन इसमें अन्य पिछड़ा वर्ग और अल्पसंख्यक समूहों की महिलाओं के लिए कोई आरक्षण न दिए जाने को लेकर विपक्षी दल ही नाराज़ नहीं हैं, खुद भाजपा के भीतर में अप्रसन्नता के स्वर सुनाई पड़ रहे हैं। सरकार इस बिल में अलग से ऐसी व्यवस्था न कर पाने के लिए तकनीकी मुद्दों की दुहाई दे सकती है, लेकिन इस पर उसका घेराव आगे चुनाव प्रचार तक में होने की भविष्यवाणी शायद अभी से की जा सकती है!

बेशक यह कानून स्त्री सशक्तीकरण के लिए लाया जा रहा है। लेकिन यह आशंका भी बेबुनियाद नहीं है कि भारतीय सामाजिक व्यवस्था में आज भी स्त्रियों का दोयम दर्जा होने के कारण उनकी आड़ में उनके परिवार के पुरुष सियासी खेल खेलते रहेंगे। ग्राम पंचायतों के स्तर पर देश इस तरह की चालाकी देख चुका है। दरअसल सियासत अभी तक बड़ी हद तक पुरुषों की लीलाभूमि है। अब स्त्रियों के लिए आरक्षण होने पर उन्हें मैदान खाली करना पड़ेगा, तो स्वाभाविक है कि वे अपने परिवार की स्त्रियों को ही आगे लाने की जुगत लगाएँगे। इसका एक पहलू यह भी है कि इससे सबसे ज़्यादा मुश्किल भाजपा को होगी क्योंकि वह परिवारवाद की विरोधी रही है! सयाने बता रहे हैं कि 2019 के चुनाव में जो महिलाएँ सांसद बनीं, उनमें अधिकतर या तो राजनीतिक परिवार से हैं या फिर ऐसी सीट से जहाँ उनकी जीत सुनिश्चित जानकर ही टिकट दिया गया। यानी, महिला सशक्तीकरण तो बस बहाना था, असली मकसद सीट जिताना था! खैर, फिलहाल सभी दलों को इस बारे में अपनी रणनीति बनाने के लिए अगली जनगणना और परिसीमन तक का समय मिल रहा है।

कुछ भी हो, लेकिन यह तय है कि स्त्री शक्ति वंदन कानून के आने से भारतीय राजनीति में ही नहीं, सामाजिक परिवेश में भी बड़ा और सकारात्मक बदलाव आएगा। देखना दिलचस्प होगा कि आगामी चुनाव में फायदा उठाने के लिए पक्ष-प्रतिपक्ष इस मुद्दे से किस तरह खेलेंगे!

22 सितंबर, 2023:
सोमा का साहस
मणिपुर के एक नागरिक समाज संगठन

‘कांगलेइपाक कनबा लुप’ (केकेएल) के उस बयान की निंदा ही की जा सकती है, जिसके तहत मणिपुरी फिल्म स्टार सोमा लैशराम के अगले तीन वर्षों तक फिल्मों में अभिनय करने और सामाजिक कार्यक्रमों में भाग लेने पर प्रतिबंध लगाया गया है। यह प्रतिबंध नई दिल्ली में आयोजित नॉर्थ ईस्ट स्टूडेंट्स फेस्टिवल के दौरान एक सौंदर्य प्रतियोगिता में शो-स्टॉपर के रूप में सोमा की भागीदारी से चिढ़कर उन पर थोपा गया है। केकेएल को लगता है कि सौंदर्य प्रतियोगिता में भाग लेकर सोमा ने हिंसा और अशांति से ग्रस्त मणिपुर में चल रहे संकट की “स्पष्ट अवज्ञा” की है। संगठन ने यह भी कहा है कि सोमा का यह कृत्य उन लोगों की स्मृति के प्रति अपमानजनक है, जिन्होंने संघर्ष में अपनी जान और आजीविका खो दी है। दूसरी तरफ सोमा ने सौंदर्य प्रतियोगिता में भाग लेने के अपने फैसले का बचाव करते हुए तर्क दिया है कि उन्होंने तो केवल राष्ट्रीय मंच पर मणिपुर का प्रतिनिधित्व करने और राज्य की संस्कृति और परंपराओं के बारे में जागरूकता बढ़ाने की कोशिश की है। उन्होंने यह भी कहा है कि आयोजन के समय उन्हें केकेएल के बहिष्कार के आह्वान की जानकारी नहीं थी।

गौरतलब है कि फिल्म फोरम मणिपुर और फिल्म एक्टर्स गिल्ड मणिपुर ने इस अवांछित प्रतिबंध की निंदा की है और कहा है कि यह सोमा की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उल्लंघन है। कहना न होगा कि इस प्रतिबंध का खुद अभिनेत्री पर और समग्र रूप से मणिपुरी फिल्म उद्योग पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा। याद रहे कि सोमा लैशराम मणिपुर की सबसे लोकप्रिय और सफल अभिनेत्रियों में शामिल हैं। उनकी फिल्में उच्च मूल्यों और मणिपुरी संस्कृति को बढ़ावा देने के लिए जानी जाती हैं। उन पर प्रतिबंध से मणिपुरी फिल्मों की गुणवत्ता और लोकप्रियता में गिरावट आ सकती है, जिसका पूरे उद्योग पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। व्यक्तिगत रूप से सोमा के लिए इस प्रतिबंध का मतलब है कि वह अगले तीन वर्षों तक फिल्मों में काम करने या सार्वजनिक कार्यक्रमों में भाग लेने में असमर्थ होंगी। उनके कॅरियर और आजीविका पर संकट छा जाएगा। वे अपने सहयोगियों और प्रशंसकों से अलग-थलग होने को मजबूर होंगी। इस प्रतिबंध से कलाकारों में भय व्याप्त होगा, जिसका मणिपुरी फिल्म उद्योग की स्वतंत्रता रचनात्मकता और नवीनता पर बुरा असर पड़ेगा। इससे अन्य अभिनेता और फिल्म निर्माता मणिपुर के बाहर के कार्यक्रमों में भाग लेते हुए डरेंगे। इस तरह, इस प्रतिबंध ने मणिपुर में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और नागरिक समाज संगठनों की भूमिका के बारे में भी चिंताएँ बढ़ा दी हैं। यह प्रतिबंध सोमा की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उल्लंघन है और यह एक खतरनाक मिसाल कायम करता है।

कानूनी नज़रिये से, सोमा लैशराम पर केकेएल का प्रतिबंध यकीनन असंवैधानिक है। भारतीय संविधान भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार की गारंटी देता है। इस अधिकार में सांस्कृतिक और कलात्मक गतिविधियों में भाग लेने का अधिकार भी शामिल है। सोमा पर केकेएल का प्रतिबंध इस अधिकार का स्पष्ट उल्लंघन है। सोमा ने ठीक ही कहा है कि “एक कलाकार और एक सामाजिक व्यक्ति के रूप में, मुझे जहाँ भी और जब भी जरूरत हो, बोलने का पूरा अधिकार है। मैंने अपने राज्य और अपनी मातृभूमि के खिलाफ कुछ भी नहीं किया है।”

सामाजिक परिप्रेक्ष्य से, सोमा लैशराम पर प्रतिबंध मणिपुर में संस्कृति, परंपरा और आधुनिकता के बीच विद्यमान जटिल और भयावह संबंधों को दर्शाता है। दरअसल केकेएल एक रूढ़िवादी संगठन है जो पारंपरिक मैतेई संस्कृति को बढ़ावा देता है। वह सौंदर्य प्रतियोगिता को पश्चिमी संस्कृति और मूल्यों के प्रतीक के रूप में देखता है जो पारंपरिक मैतेई मूल्यों के साथ असंगत हैं। तथापि, शुभ संकेत यह है कि प्रतिबंध को मणिपुर में सार्वभौमिक रूप से समर्थन नहीं मिला है। उम्मीद की जानी चाहिए कि लोग सोमा के साहस का समर्थन करने और केकेएल के प्रतिबंध को खारिज करने के लिए आगे आएँगे।

9 अक्टूबर, 2023:
नरगिस को नोबेल : स्त्री संघर्ष की स्वीकृति का जश्न

ईरानी मानवाधिकार कार्यकर्ता नरगिस मोहम्मदी को ‘ईरान में महिलाओं के उत्पीड़न के खिलाफ संघर्ष और सभी के लिए मानवाधिकारों और स्वतंत्रता को बढ़ावा देने की उनकी लड़ाई’ के लिए नोबेल शांति पुरस्कार (2023) दिए जाने की घोषणा की गई है। गौरतलब है कि फिलहाल नरगिस ईरान में 16 साल की जेल की सज़ा काट रही हैं। वे उस मुल्क के मानवाधिकार रिकॉर्ड की मुखर आलोचक रही हैं और उन्होंने मृत्युदंड को खत्म करने के लिए अभियान चलाया है। नरगिस को नोबेल मिलना ईरान और दुनिया भर में मानवाधिकार रक्षकों के लिए बेहद अहम है। इससे यह यकीन पुख्ता होता है कि उत्पीड़न के बावजूद कोई इंसान न्याय और समानता के लिए अपनी लड़ाई से दुनिया को आंदोलित कर सकता है।

सयाने बता रहे हैं कि नरगिस मोहम्मदी की सक्रियता 2000 के दशक की शुरूआत में शुरू हुई, जब वे ईरान में महिलाओं के अधिकारों के अभियान में शामिल हुईं। वे ‘वन मिलियन सिग्नेचर अभियान’ की संस्थापक सदस्य रहीं, जिसने लैंगिक समानता को बढ़ावा देने वाले कानून के समर्थन में 1.1 मिलियन से अधिक हस्ताक्षर इकट्ठा किए थे। 2009 में, उन्हें विवादित ईरानी राष्ट्रपति चुनाव के बाद लोकतंत्र समर्थक विरोध प्रदर्शन में सक्रिय भूमिका के लिए गिरफ्तार किया गया और छह साल जेल की सजा सुनाई गई थी, लेकिन 2015 में मेडिकल छुट्टी पर रिहा कर दिया गया था। 2016 में फिर से गिरफ्तार किया गया और ‘राष्ट्रीय सुरक्षा अपराधों’ के आरोप में 16 साल जेल की सजा सुनाई गई। जेल में रहने के दौरान उन्हें बार-बार चिकित्सा देखभाल से वंचित किया गया और उन्हें अनेक स्वास्थ्य समस्याओं का सामना करना पड़ा। चुनौतियों का सामना करने के बावजूद उन्होंने मानवाधिकारों के समर्थन में बोलना जारी रखा और 2021 में सभी राजनीतिक कैदियों की रिहाई के लिए ईरानी सरकार को एक खुला ख़त लिखा। इस तरह, उनका यह सम्मान उत्पीड़न के खिलाफ उनके साहस, दृढ़ संकल्प और संघर्ष की वैश्विक स्वीकृति का प्रमाण है। यह लोकतंत्र और मानवाधिकारों की लड़ाई में महिलाओं द्वारा निभाई जाने वाली महत्वपूर्ण भूमिका को मान्यता मिलने का भी प्रतीक है।

कहना ही होगा कि नरगिस मोहम्मदी को नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित किया जाना कई वजहों से बेहद अहम और ऐतिहासिक घटना है। सबसे पहले तो, ईरान के किसी मानवाधिकार कार्यकर्ता के लिए नोबेल शांति पुरस्कार प्राप्त करना एक दुर्लभ सम्मान है। यह असहमति को दबाने और मानवाधिकार रक्षकों पर अत्याचार करने के ईरानी सरकार के लंबे इतिहास का करारा जवाब है। दूसरे, यह पुरस्कार लोकतंत्र और मानवाधिकारों के लिए ईरानी लोगों के संघर्ष के समर्थन में एक शक्तिशाली संदेश है। ईरानी लोगों ने दशकों तक उत्पीड़न और दमन का सामना किया है, लेकिन उन्होंने अपने अधिकारों के लिए लड़ना जारी रखा है। नरगिस का सम्मान उनके साहस और दृढ़ संकल्प की अंतरराष्ट्रीय पहचान का प्रतीक है। तीसरे, यह सम्मान लोकतंत्र और मानवाधिकारों की लड़ाई में महिलाओं की महत्वपूर्ण भूमिका को रेखांकित करता है। याद रहे कि महिलाएँ अक्सर इन संघर्षों में सबसे आगे होती हैं और उन्हें भीषण चुनौतियों और क्रूरतम जोखिमों का सामना करना पड़ता है। इसलिए नरगिस का यह सम्मान मानवाधिकार आंदोलन में महिलाओं के योगदान का जश्न है।

अंततः यह भी विचारणीय है कि नरगिस मोहम्मदी को नोबेल शांति पुरस्कार मिलने के कई सकारात्मक प्रभाव सामने आ सकते हैं। सबसे पहले तो, इससे ईरान में मानवाधिकार की स्थिति पर अंतरराष्ट्रीय ध्यान बढ़ने की उम्मीद की जानी चाहिए। इससे ईरानी सरकार पर अपने मानवाधिकार रिकॉर्ड में सुधार करने का दबाव पड़ सकता है। दूसरे, इससे ईरान और दुनिया भर में अन्य मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को प्रेरणा मिलनी चाहिए और दुनिया के अलग अलग हिस्सों में जारी उत्पीड़न के खिलाफ सामाजिक न्याय और मानवीय समानता के अभियानों को बल मिलना चाहिए। तीसरे, लोकतंत्र और मानवाधिकारों की लड़ाई में महिलाओं द्वारा निभाई जाने वाली महत्वपूर्ण भूमिका के बारे में जागरूकता तथा महिला अधिकार कार्यकर्ताओं और संगठनों के लिए समर्थन तो बढ़ना ही चाहिए।

26 अक्टूबर, 2023:
वे मारी जाती हैं क्योंकि वे औरतें हैं!

संयुक्त राष्ट्र महासभा में हाल ही में पेश की गई एक रिपोर्ट में आगाह किया गया है कि लैंगिक कारणों से महिलाओं व लड़कियों को जान से मार दिए जाने की ख़तरनाक प्रवृत्ति विश्व भर में फैल रही है। और दुर्भाग्य यह कि सदस्य देश लैंगिक हिंसा के पीड़ितों की रक्षा करने के दायित्व में विफल साबित हो रहे हैं। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि स्त्री-हत्या (फ़ेमिसाइड) एक वैश्विक त्रासदी है, जो कि वैश्विक महामारी (पैंडेमिक) के स्तर पर फैल रही है। इससे तात्पर्य, लिंग-संबंधी वजह से किसी महिला व लड़की को जानबूझकर जान से मार देना है। विशेष रैपोर्टेयर टिडबॉल-बिन्ज़ ने अपनी रिपोर्ट में सचेत किया है कि लिंग-आधारित वजहों से मारना, लिंग-आधारित हिंसा के मौजूदा रूपों का एक चरम और व्यापक स्तर पर फैला हुआ रूप है। अनेक देशों में सैकड़ों महिलाएँ, लैंगिक पूर्वाग्रह के परिणामस्वरूप हुए अभियोजन और सज़ा देने के तौर-तरीक़ों के कारण, मृत्युदंड मिलने का सामना कर रही हैं। दूसरी तरफ स्त्री-हत्या के अपराधी, समाज में इस शान से घूमते देखे जा सकते हैं, मानो उन्होंने कोई अपराध ही न किया हो! जब तक दंडमुक्ति की यह भावना बरकरार है, तब तक भला इस विश्वव्यापी की आपराधिक मनोवृत्ति को कैसे जड़ से उखाड़ा जा सकता है?

दरअसल स्त्री-हत्या एक वैश्विक समस्या है, लेकिन यह लैटिन अमेरिका और कैरिबियन जैसे कुछ क्षेत्रों में विशेष रूप से प्रचलित है, जहाँ यह 15 से 44 वर्ष की महिलाओं की मृत्यु का प्रमुख कारण है। स्त्री-हत्या दुनिया के अन्य हिस्सों में भी भारी असर डालती है जिनमें अफ्रीका, एशिया और उत्तरी अमेरिका शामिल हैं। 2021 में, दुनिया भर में 15 से 49 वर्ष की आयु की अनुमानित 24.6 करोड़ महिलाओं और लड़कियों को अंतरंग साथी की ओर से शारीरिक या यौन हिंसा का अनुभव हुआ। इनमें से 45,000 को उनके अंतरंग साथी या परिवार के अन्य सदस्यों ने मार डाला। इसका मतलब यह है कि हर दिन औसतन 12 महिलाओं की उनके अंतरंग साथियों या परिवार के अन्य सदस्यों द्वारा हत्या कर दी जाती है।

महिलाओं को स्त्री-हत्या सहित हिंसा से बचाना सभी देशों और समाजों का कर्तव्य है। मगर अफसोस कि ज़्यादातर समाज इस जिम्मेदारी को मानने तक को तैयार नहीं दिखाई देते। जबकि कमजोर कानून और नीतियों, अपर्याप्त संसाधनों और दुर्बल राजनीतिक इच्छाशक्ति के कारण इन अपराधों में लगातार बढ़ोतरी सारी मानवता के लिए चिंता का विषय होनी चाहिए। यही वजह है कि संयुक्त राष्ट्र ने तमाम देशों का आह्वान किया है कि स्त्री-हत्या की इस विश्वमारी से निपटने के लिए तत्काल कार्रवाई करें।

ऐसी कई चीजें हैं जो व्यक्तिगत और सामाजिक दोनों स्तरों पर स्त्री-हत्या रूपी विश्वमारी से निपटने के लिए की जा सकती हैं। व्यक्तिगत स्तर पर यह ज़रूरी है कि हम स्त्री-हत्या और इसके मूल कारणों के बारे में स्वयं को शिक्षित करें, लैंगिक रूढ़िवादिता और स्त्री-द्वेष को चुनौती दें, उन महिला अधिकारों और संगठनों का समर्थन करें जो स्त्री-हत्या को समाप्त करने के लिए काम कर रहे हैं तथा स्त्री-हत्या और महिलाओं पर हिंसा के अन्य रूपों के खिलाफ बोलने की संस्कृति का विकास करें। इसी तरह समाज और सरकारों को चाहिए कि स्त्री-हत्या के विरुद्ध मजबूत कानून और नीतियाँ बनाएँ और लागू करें। ऐसे रोकथाम कार्यक्रमों में निवेश बढ़ाने की ज़रूरत है जो स्त्री-हत्या के मूल कारणों, जैसे लैंगिक असमानता, स्त्री-द्वेष और गरीबी के उन्मूलन पर केंद्रित हों। यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि पीड़ित और सर्वाइवर महिलाओं को न्याय और सहायता सेवाओं तक त्वरित पहुँच मिले।

सबसे बड़ी बात यह कि जब तक दुनिया भर में महिलाओं और लड़कियों के प्रति सम्मान की संस्कृति का विकास नहीं किया जाएगा, तब तक वे सिर्फ इसीलिए मारी जाती रहेंगी कि उन्होंने मर्दों की दुनिया में औरत के रूप में जन्म लिया!

7 दिसंबर, 2023:
स्त्रीविरोधी अपराध की राजधानी!

यह व्यापक सामाजिक चिंता का विषय है कि राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की वार्षिक रिपोर्ट में देश की राजधानी एक बार फिर से महिलाओं के खिलाफ हो रहे अपराध में सबसे आगे है। महिलाओं के खिलाफ यौन हिंसा के सबसे ज्यादा मामले दिल्ली में हो रहे हैं।

ग़ौरतलब है कि एनसीआरबी ने 3 दिसंबर, 2023 को ‘क्राइम इन इंडिया’ के आँकड़े जारी किए हैं। इसमें देश में महिलाओं की सुरक्षा की गंभीर तस्वीर पेश की गई है। रिपोर्ट में 2021 की तुलना में 2022 में महिलाओं के खिलाफ अपराधों में 4 प्रतिशत की आश्चर्यजनक वृद्धि का पता चला। इस अवधि में कुल 4,45,256 मामले दर्ज किए गए। रिपोर्ट के मुताबिक, दिल्ली महिलाओं के लिए देश का सबसे असुरक्षित महानगर है। वहाँ में प्रतिदिन औसतन तीन बलात्कार के मामले दर्ज होते हैं।

महिलाओं के लिए विशेष रूप से असुरक्षित शहर के रूप में दिल्ली की यह कुख्याति निस्संदेह एक जटिल मुद्दा है। इस स्थिति के लिए निश्चय ही गहरी जड़ें जमा चुके सामाजिक और संरचनात्मक कारक ज़िम्मेदार हैं। हालाँकि यह नहीं भूला जा सकता कि महिलाओं के खिलाफ अपराध एक राष्ट्रव्यापी मुद्दा है। तो भी अगर दिल्ली लगातार भारत में महिलाओं के लिए सबसे असुरक्षित बनी हुई है, तो यह मानना पड़ेगा कि सियासत के दाँवपेंचों में व्यस्त भारतीय समाज अपनी इस भीतरी बीमारी का सही निदान नहीं कर पा रहा है। एनसीआरबी की वार्षिक रिपोर्टों में बार बार यह दिखाई देता है कि दिल्ली में अन्य प्रमुख शहरों की तुलना में महिलाओं के खिलाफ अपराधों की संख्या अधिक है। लेकिन शायद ही किसी कर्णधार के कान पर जूँ रेंगती हो!

इस स्थिति के कई पहलू हैं। सबसे पहले, दिल्ली के तेजी से शहरीकरण और विकास के कारण इसकी आबादी में वृद्धि हुई है, जिससे यह घनी आबादी वाला महानगर बन गया है। इससे गुमनामी की भावना पैदा हो हुई है और अपराधियों के लिए बिना ध्यान में आए अपराध करना आसान हो गया है। दूसरे, दिल्ली का सामाजिक और सांस्कृतिक संदर्भ एक भूमिका निभाता है। पितृसत्तात्मक मानदंड और लिंग भेदभाव अभी भी समाज के कई हिस्सों में कायम हैं, जो महिलाओं के खिलाफ हिंसा को सामान्य बना सकते हैं और न्याय तक उनकी पहुँच में बाधा डाल सकते हैं। इसके अतिरिक्त, शहर के बुनियादी ढाँचे और सार्वजनिक सुरक्षा उपायों की अक्सर अपर्याप्त होने के कारण आलोचना की जाती है, जो शहर में आती-जाती महिलाओं को सुरक्षित महसूस कराने में असमर्थ हैं।

यहाँ यह कहना भी ज़रूरी है कि स्त्रीविरोधी अपराध की राजधानी होने के बावजूद इसके लिए पूरे शहर या उसके निवासियों को लांछित नहीं किया जा सकता। दिल्ली में अनेक महिलाएँ किसी भी प्रकार की हिंसा का अनुभव किए बिना भी निर्द्वंद्व रहकर जीवन जीती है और सार्वजनिक जीवन में सक्रिय रहकर काम करती हैं।

स्त्री-विरोधी अपराध की प्रवृत्ति पर काबू पाने के लिए बहुआयामी दृष्टिकोण की ज़रूरत है। सबसे पहले, महिलाओं के प्रति सामाजिक दृष्टिकोण को बदलने और पितृसत्तात्मक मानदंडों को चुनौती देने के लिए ठोस प्रयास करने होंगे। इसे शिक्षा, जागरूकता अभियान और लैंगिक समानता को बढ़ावा देने वाली पहलों के माध्यम से हासिल किया जा सकता है। दूसरे, महिलाओं के खिलाफ हिंसा से जुड़े मामलों की कुशल और संवेदनशील हैंडलिंग सुनिश्चित करने के लिए कानून प्रवर्तन एजेंसियों और न्यायिक प्रणाली को मजबूत करने की ज़रूरत है। इसमें कानून प्रवर्तन कर्मियों को पर्याप्त प्रशिक्षण प्रदान करना, त्वरित और प्रभावी जाँच सुनिश्चित करना और यह सुनिश्चित करना शामिल है कि अपराधियों को न्याय के कटघरे में लाया जाए। इसके अतिरिक्त, बेहतर रोशनी, सीसीटीवी निगरानी और पुलिस की बढ़ती उपस्थिति जैसे सार्वजनिक सुरक्षा उपायों में सुधार से अपराध को रोकने और महिलाओं को अधिक सुरक्षित महसूस कराने में मदद मिल सकती है।

19 दिसंबर, 2023:
यौन हिंसा : पीड़िताओं को जेल?

हाल ही में अफगानिस्तान में संयुक्त राष्ट्र सहायता मिशन (यूएनएएमए) की रिपोर्ट से इस भयावह सच का पता चला है कि अफगानिस्तान में लिंग आधारित हिंसा के ख़िलाफ़ मदद मांगने वाली महिलाओं को तालिबान शासन के तहत कारावास का खतरा है। व्यवस्था उनकी सुरक्षा के लिए आगे आने के बजाय उनकी जेलर बन गई है। यौन हिंसा झेल रही महिलाओं को सुरक्षा की दुहाई देकर जेल में रखना किसी भी तरह मानवीय नहीं कहा जा सकता। तालिबान की नई नीति के तहत, लिंग आधारित हिंसा की रिपोर्ट करने वाली महिलाओं को ‘सुरक्षा’ की विकृत व्याख्या के आधार पर कारावास का सामना करना पड़ता है। इसमें “नैतिक अपराधों” के संदेह में महिलाओं को हिरासत में लेना भी शामिल है ताकि वे घरेलू हिंसा के परेशान होकर कहीं भाग न जाएँ। इस तरह तालिबान उनके परिवारों को संभावित नुकसान और सामाजिक कलंक से बचाना चाहता है! कहना न होगा कि उसे इन महिलाओं की यातना से कोई सहानुभूति नहीं है।

सयाने बता रहे हैं कि जेल में ठूँस दिए जाने का डर इन महिलाओं को मदद मांगने से रोकेगा। इससे अपराधियों के लिए चुप्पी और दंडमुक्ति की संस्कृति को कायम होगी। कहना न होगा कि न्याय की यह विकृत व्याख्या लिंग आधारित हिंसा को स्वीकार्य बनाती है, जिसे हर हाल में अस्वीकार्य होना चाहिए!

इस मुद्दे को समझने के लिए तालिबान के तहत अफगान समाज को नियंत्रित करने वाली जटिल और अक्सर विरोधाभासी परतों को खोलने की ज़रूरत है। ऐसे विवादों को सुलझाने के परंपरागत तौर तरीके, आम तौर पर, पीड़ित महिलाओं को ही लांछित करने की प्रवृत्ति से ग्रस्त हैं। इसके अलावा, शरिया की तालिबानी व्याख्या मामले को और भी जटिल बना देती है क्योंकि उसका इस्तेमाल औरतों को गुलाम बनाए रखने के हथियार की तरह किया जाता है। हर तरह के लोकतांत्रिक हक़ों से महरूम ये औरतें घुट घुट कर मरने के अलावा और कर ही क्या सकती हैं? उन्हें यह भी कहाँ पता होता है कि यौन हिंसा की शिकायत कहाँ और कैसे करनी है? यह भी किसे पता कि जिनके सामने शिकायत की जा रही है, वे खुद पुरुषवादी स्त्रीविरोधी नज़रिये के पोषक नहीं निकलेंगे?

कहना ही होगा कि इन हालात में अंतरराष्ट्रीय समुदाय और तालिबान को स्त्री-शोषण की इस व्यवस्था को खत्म करने के लिए तत्काल और निरंतर कार्रवाई करनी चाहिए। अंतरराष्ट्रीय समुदाय को लिंग आधारित हिंसा की रिपोर्टिंग से जुड़ी तालिबान की गलत प्रथाओं को खत्म करने के लिए उस पर लगातार और समन्वित दबाव डालना चाहिए। ज़रूरत पड़े तो इसके लिए लक्षित प्रतिबंध और राजनयिक अलगाव जैसे उपाय भी अपनाए जाने चाहिए क्योंकि मामला ‘आधी आबादी’ की सुरक्षा और मानवाधिकार का है। साथ ही, स्थानीय महिला अधिकार संगठनों और समुदाय-आधारित समूहों को मजबूत करना और उनका समर्थन करना महत्वपूर्ण होगा, जिन्हें तालिबान तनिक भी बर्दाश्त नहीं करता! ऐसे में ज़रूरी है कि स्वतंत्र मानवाधिकार मॉनिटरों और जांचकर्ताओं को लिंग आधारित दुर्व्यवहार का दस्तावेजीकरण करने और अपराधियों को जवाबदेह ठहराने के लिए हिरासत सुविधाओं और समुदायों तक निर्बाध पहुंच प्रदान की जाए! ऐसा दुर्व्यवहार झेल चुकी महिलाओं के लिए व्यापक चिकित्सा, मनोवैज्ञानिक और आर्थिक सहायता तो मुहैया कराई जानी चाहिए ही, उनके पुनर्वास और समाज में पुनः एकीकरण की व्यवस्था भी सुनिश्चित होनी चाहिए। समस्या के दीर्घकालीन समाधान के लिए ज़रूरी है कि लड़कियों की शिक्षा और उनके सम्मान के साथ समानता की संस्कृति का विकास किया जाए। भले ही यह तालिबान राज में असंभव सपने जैसा ही लगता हो!

अंततः शौहर खतौलवी के शब्दों में इतना और कि:

“वे उनकी ज़बान खींच लेंगे,
कोड़े बरसाएँगे और बंद कर देंगे
काल कोठरी में, क्योंकि
खतरनाक होती हैं बोलने वाली औरतें;
बेपर्दा कर देती हैं खूँखार मर्दों को!”

21 दिसंबर, 2023:
दुष्कर्म तो दुष्कर्म है!

गुजरात उच्च न्यायालय ने हाल ही में एक ऐतिहासिक फैसले में उचित ही कहा है कि “बलात्कार तो बलात्कार है, भले ही पति ने अपनी पत्नी के खिलाफ किया हो।” हालाँकि यह मुद्दा कानूनी के साथ साथ सामाजिक और सांस्कृतिक जटिलताओं से भरा हुआ है। तो भी इसे लैंगिक समानता और महिलाओं की शारीरिक स्वायत्तता की सुरक्षा के प्रति भारत के चल रहे संघर्ष में यह फैसला एक संभावित महत्वपूर्ण क्षण का प्रतीक है।

ग़ौरतलब है कि अरसे से भारतीय दंड संहिता की उस व्यवस्था को लेकर विवाद रहा है, जो पतियों को विवाह के दायरे में अपनी पत्नियों के साथ बिना सहमति के यौन संबंध बनाने पर मुकदमे से बचाती है। इस व्यवस्था के समर्थक अक्सर तर्क देते हैं कि यह विवाह की पवित्रता की रक्षा करती है और निरर्थक मुकदमेबाजी को रोकती है। कहना न होगा कि तर्क वैवाहिक स्वामित्व की हानिकारक धारणाओं पर टिका है और उन अनगिनत महिलाओं के जीवन के अनुभवों को खामोश कर देता है जो अपने ही घरों में यौन हिंसा का सामना करती हैं।

गुजरात उच्च न्यायालय का हस्तक्षेप इस दमनकारी यथास्थिति का एक शक्तिशाली प्रतिवाद है। स्पष्ट रूप से यह घोषित करके कि वैवाहिक बलात्कार एक अपराध है, अदालत सभी महिलाओं की शारीरिक स्वायत्तता और यौन हिंसा से मुक्ति के मौलिक अधिकार को बरकरार रखती है। यह निर्णय भारतीय संविधान के सिद्धांतों के अनुरूप है, जिनमें कानून के समक्ष समानता की गारंटी तथा जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार की रक्षा शामिल हैं।

वैसे कानूनी हार-जीत से परे इस फैसले का प्रतीकात्मक महत्व बहुत अहम है। इसमें यह स्पष्ट संदेश निहित है कि जीवनसाथी के साथ दुर्व्यवहार और विवाह के भीतर गैर-सहमति वाले यौन कृत्यों को अब बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। इसमें अनगिनत महिलाओं को अपने अनुभवों को व्यक्त करने, न्याय पाने तथा चुप्पी और पीड़ा के चक्र से मुक्त होने के लिए सशक्त बनाने की क्षमता है। यह निर्णय वैवाहिक बलात्कार के मुद्दे को पहचानने और संबोधित करने के लिए पुलिस और स्वास्थ्य सेवा प्रणाली जैसी संस्थाओं को भी जवाबदेह बनाता है।

यहाँ यह भी कहना ज़रूरी है कि वैवाहिक बलात्कार को ख़त्म करने की दिशा में यह आखिरी नहीं पहला पड़ाव भर है। वैवाहिक बलात्कार को स्पष्ट रूप से अपराध घोषित करने, सामाजिक कलंक और पीड़ित को दोष देने की प्रवृत्ति पर काबू पाने और देश भर में कानून के प्रभावी कार्यान्वयन को सुनिश्चित करने के लिए भारतीय दंड संहिता में संशोधन अपेक्षित है, जो हमारे विधायी तंत्र में पुरुष वर्चस्व के चलते फिलहाल तो संभव नहीं दीखता!

सयाने बता रहे हैं कि भारतीय स्त्री को इस भेदभाव से मुक्त करने के लिए केंद्र सरकार को भारतीय दंड संहिता के उस प्रावधान को निरस्त करना होगा जो पुरुष को अपनी पत्नी की कामेच्छा पर मालिकाना हक देता है! साथ ही, भारत के कानूनी ढांचे को अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार मानकों के अनुरूप बनाना होगा। सबसे ज़्यादा ज़रूरी है, विवाह को वर्चस्व का प्रतीक मानने की प्रथा से छुटकारा। इसके अलावा, वैवाहिक बलात्कार के बारे में जनता को शिक्षित करने, भ्रामक मान्यताओं और गलतफहमियों को दूर करने और इस संवेदनशील मुद्दे पर खुली बातचीत को प्रोत्साहित करने के लिए राष्ट्रव्यापी जागरूकता अभियान की बड़ी जरूरत हैं। साथ ही, कानून प्रवर्तन और स्वास्थ्य देखभाल कर्मियों के लिए मजबूत प्रशिक्षण कार्यक्रम वैवाहिक बलात्कार के मामलों को सहानुभूति और सक्षमता के साथ पहचानने और संभालने के प्रति संवेदनशील बनाने के लिए आवश्यक हैं।

अंततः, बेहद ज़रूरी है कि स्त्री-पुरुष संबंधों में स्वस्थ सामाजिक दृष्टिकोण को बढ़ावा दिया जाए और वैवाहिक बलात्कार के लिए किसी भी प्रकार के सांस्कृतिक औचित्य को खारिज किया जाए।

10 जनवरी, 2024:
पारिवारिक दायित्व बनाम स्त्री सशक्तीकरण

सामाजिक संस्था के रूप में परिवार को संरक्षित करने और दांपत्य में महिलाओं की समानता सुनिश्चित करने के बीच नाजुक संतुलन पर सुप्रीम कोर्ट की जज न्यायमूर्ति बी वी नागरत्ना की हालिया टिप्पणी भारतीय संदर्भ में बेहद मानीखेज है। महिला सशक्तीकरण पर एक व्याख्यान में कहे गए उनके शब्द भारत भर में अनगिनत व्यक्तियों और परिवारों के जीवन के अनुभवों से मेल खाते हैं।

दरअसल, न्यायमूर्ति नागरत्ना की टिप्पणी के मूल में यह मौलिक सत्य निहित है कि परिवार, अपने स्वस्थ रूप में, प्यार, समर्थन और साझा उद्देश्य के अभयारण्य हैं! परिवार ही तो एक मजबूत और जीवंत समाज की आधारशिलाएँ हैं। वे स्थिरता और अपनेपन का आधार प्रदान करते हैं। इसलिए, इस संस्था को संरक्षित करना अतीत के प्रति आसक्त होना भर नहीं है। बल्कि इसमें लोगों और समुदायों की भलाई निहित है।

लेकिन ध्यान यह रखना होगा कि परिवार के महत्व को पहचानना महिलाओं की स्वायत्तता और समानता की कीमत पर नहीं होना चाहिए। परिवार या विवाह के नाम पर स्त्रियों को सार्वजनिक जीवन को तिलांजलि देने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता। न्यायमूर्ति नागरत्ना ने ठीक ही इस बात पर ज़ोर दिया कि सुदृढ परिवार की दीवारें महिला अधीनता की नींव पर नहीं खड़ी की जा सकतीं। अगर आप महिलाओं को वैवाहिक इकाई के भीतर अधीनस्थ या असमान साझेदार मानते हैं, तो आपसी सम्मान और साझा जिम्मेदारी जैसे परिवार का मूल तत्वों को कमजोर ही करते हैं।

ऐसे असंतुलन के परिणाम बहुत गहरे होते हैं। घरेलू हिंसा, भावनात्मक शोषण और मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दों में वृद्धि के लिए परिवारों के भीतर लैंगिक असमानता भारी हद तक ज़िम्मेदार है। यह असंतुलन ही कार्यबल में महिलाओं की भागीदारी को बाधित करता है और शिक्षा और अवसरों तक उनकी पहुँच पर बंदिशें लगाता है। यह सामाजिक-सांस्कृतिक नुकसान के एक चक्र को कायम रखता है जो पीढ़ियों तक चलता है।

ऐसे में न्यायमूर्ति नागरत्ना का एक पुनर्कल्पित पारिवारिक संरचना का आह्वान सोचने को मजबूर करता है। हमें असंतुलित नहीं बल्कि ऐसा समाज चाहिए जहाँ स्त्री-पुरुष समान भागीदार के रूप में कंधे से कंधा मिलाकर खड़े हों। यह मानसिकता में बदलाव, पारंपरिक सत्ता विमर्श को खत्म करने और घरेलू क्षेत्र के भीतर साझा जिम्मेदारी के प्रति प्रतिबद्धता की माँग करता है। पुरुषों को बच्चों की देखभाल, घरेलू कामकाज और भावनात्मक भूमिकाओं में सक्रिय भागीदार होना चाहिए। सामाजिक या पारिवारिक दबाव का सामना किए बिना, महिलाओं को युगों से लादी गई लैंगिक भूमिकाओं से इतर अपने कॅरियर, सपनों और आकांक्षाओं को आगे बढ़ाने के लिए सशक्त होना चाहिए। वरना हम स्वयं को स्वस्थ समाज नहीं कह सकते!

कहना न होगा कि मध्यकालीन जड़ता के अवशेषों को तोड़े बिना इस पुनर्कल्पित पारिवारिक गत्वरता को पाया नहीं जा सकता। इसके लिए बहु-आयामी दृष्टिकोण की ज़रूरत है। सबसे पहले, लैंगिक समानता सुनिश्चित करने और घरेलू हिंसा और भेदभाव के खिलाफ मजबूत सुरक्षा प्रदान करने के लिए कानूनी ढांचे को मजबूत करना होगा। दूसरे, जड़ रूढ़ियों को खत्म करने और परिवारों के भीतर लैंगिक भूमिकाओं के प्रति प्रगतिशील दृष्टिकोण को बढ़ावा देने के लिए सामाजिक कंडीशनिंग और सांस्कृतिक आख्यानों को भी चुनौती देनी पड़ेगी। तीसरे, पति-पत्नी को घरेलू जिम्मेदारियों को अधिक समान रूप से साझा करने में सक्षम बनाने के लिए कई व्यावहारिक उपाय करने होंगे। इन व्यावहारिक उपायों में सुलभ और किफायती बाल-देखभाल सुविधाएँ, पुरुषों और महिलाओं दोनों के लिए माता-पिता की छुट्टी की नीतियाँ और लचीली कार्य व्यवस्था जैसी चीजें शामिल हैं।

कुल मिलाकर, न्यायमूर्ति नागरत्ना के दृष्टिकोण में व्यक्तिगत परिवारों की सीमा से परे एक व्यापक सामाजिक परिवर्तन की माँग निहित है, जो जीवन के सभी क्षेत्रों में महिलाओं के लिए समावेशिता और सम्मान की संस्कृति को बढ़ावा दे सके। इसमें कार्यस्थल में भेदभावपूर्ण प्रथाओं को खत्म करना, शिक्षा और स्वास्थ्य देखभाल तक समान पहुँच सुनिश्चित करना और मीडिया से फिल्मों तक में महिलाओं के सकारात्मक चित्रण को बढ़ावा देना भी शामिल हैं। इसके बिना तो स्त्री मुक्ति की हर परिभाषा अधूरी ही है न!

13 जनवरी, 2024:
यहाँ ज़िन्दगी है रिवाज़ों के बस में!

7 जनवरी, 2024 को कर्नाटक के हावेरी से आई खबर असहिष्णुता और हिंसा की भयावह गूँजों से भरी है। छह-सात अल्पसंख्यक पुरुषों के एक समूह ने, नैतिक अधिकार की विकृत भावना से प्रेरित होकर, होटल के कमरे की गोपनीयता में एक अंतरधार्मिक जोड़े पर हमला किया, शर्मनाक व्यवहार किया। पीड़िता के साथ हुए कथित भयावह सामूहिक बलात्कार की घटना बेहद परेशान करने वाला और जघन्य अपराध है जो त्वरित और गंभीर न्याय की माँग करता है। नैतिक पुलिसिंग के ऐसे कुकृत्य न केवल इनसे पीड़ित व्यक्तियों पर हमला हैं, बल्कि भारत के उदार और लोकतांत्रिक चरित्र पर काले धब्बे की तरह हैं। माना कि पीड़ित स्त्री-पुरुष अलग-अलग धर्मों के हैं, लेकिन प्रेम या विवाह उनका निजी निर्णय है। उसमें खुदाई फौजदारों का पाशविक हस्तक्षेप किसी भी सभ्य समाज में स्वीकार्य नहीं हो सकता। किसी को भी किसी के विश्वास, रिश्ते और अस्तित्व के अधिकार का अतिक्रमण करने का अधिकार नहीं है।

इस मौके पर सयाने कर्नाटक के जटिल सामाजिक-धार्मिक परिदृश्य की याद दिला रहे हैं, जहाँ दुखद रूप से, नैतिक पुलिसिंग की घटनाएँ पूरी तरह से असामान्य नहीं हैं। कहा यह भी जा सकता है कि ऐसी हिंसक घटनाएँ समय-समय पर देशभर में देखने में आती रहती हैं। इन कृत्यों में अक्सर अंतरधार्मिक जोड़ों, एलजीबीटीक्यू + समुदाय के सदस्यों और मनमाने सामाजिक मानदंडों/रिवाज़ों का उल्लंघन करने वालों को निशाना बनाया जाता है। हालाँकि इन कृत्यों में अपराधी परंपरा को कायम रखने या अपने समुदाय की रक्षा करने का दावा कर सकते हैं, लेकिन उनके कार्य नैतिकता की घोर गलत व्याख्या और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के घोर उल्लंघन से कम नहीं हैं।

यहाँ प्रसंगवश, सबसे पहले ‘नैतिक पुलिसिंग’ की गलत धारणा की निंदा ज़रूरी है। ये कौन लोग हैं जो धर्म/मजहब या सामाजिक मानदंडों/रिवाज़ों की अपनी व्याख्या के आधार पर दूसरों की व्यक्तिगत पसंद तय करते हैं? किसी को अपना साथी चुनने का अधिकार, अपनी आस्था और अपनी जीवन शैली का अधिकार भारतीय संविधान में निहित मौलिक स्वतंत्रताओं में शामिल हैं। बिना किसी पूर्वग्रह के इन संवैधानिक अधिकारों को बनाए रखना प्रत्येक नागरिक और प्रत्येक राज्य संस्थान की ज़िम्मेदारी है। यदि ऐसी अवांछित घटनाएँ हो रही हैं तो इनके लिए सरकारों को भी आसानी से बरी नहीं किया जा सकता न?

दरअसल, इस तरह की अवांछित सतर्कता का बढ़ना कहीं न कहीं बड़ी सामाजिक बीमारी का लक्षण है। जब समुदाय कानूनी प्रणाली को दरकिनार करते हुए और उचित प्रक्रिया की उपेक्षा करते हुए, न्याय के अपने ब्रांड को लागू करने की जिम्मेदारी लेते हैं, तो कानून का शासन ही कमजोर हो जाता है। यह एक खतरनाक मिसाल है जिसके सामाजिक व्यवस्था और व्यक्तिगत सुरक्षा पर दूरगामी परिणाम हो सकते हैं।

इसमें दोराय नहीं कि अंतरधार्मिक रिश्तों को निशाना बनाने से अपने से इतर धर्म के प्रति गहरी असहिष्णुता, घृणा और पूर्वग्रह का पता चलता है। भारत जैसे बहु-सांस्कृतिक समाज में ऐसी कट्टरता का कोई स्थान नहीं है। किसी का धर्म चुनने की स्वतंत्रता और किसी भिन्न धर्म के व्यक्ति से प्रेम करने की स्वतंत्रता, वास्तव में समावेशी और धर्मनिरपेक्ष समाज में अंतर्निहित है। इस स्वतंत्रता को नकारना हमारे लोकतंत्र की नींव को नकारना है।

इस घटना की तेजी से जाँच करने और अपराधियों को न्याय के कटघरे में लाने की जिम्मेदारी सिर्फ पुलिस और प्रशासन पर नहीं है। नागरिक समाज, धार्मिक नेताओं और कर्नाटक के लोगों को भी सामूहिक रूप से हिंसा और असहिष्णुता के इस कृत्य की निंदा करनी चाहिए। नैतिक पुलिसिंग के लिए शून्य सहनशीलता का स्पष्ट संदेश ऐसे कृत्यों को कायम रखने वाली ताकतों को खत्म करने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम हो सकता है।

3 फ़रवरी, 2024:
लखपति दीदी : नारी शक्ति की सुध

वित्त एवं कॉरपोरेट कार्य मंत्री निर्मला सीतारमण ने 1 फरवरी को लोकसभा में अंतरिम बजट 2024-25 पेश करते हुए पूरे ज़ोर और जोश के साथ कहा कि उद्यमशीलता, जीवन में सुगमता और आत्म-सम्मान को बढ़ावा देकर वर्तमान सरकार ने पिछले दस वर्षों में महिलाओं के सशक्तीकरण के प्रति अपनी प्रतिबद्धता जाहिर की है। चुनाव वर्ष में बजट पेश करने का मौका सत्ताधारी दल/गठबंधन की उपलब्धियों को गिनवाने का भी मौका होता है। इसलिए उन्होंने यह याद दिलाना भी ज़रूरी समझा कि महिला उद्यमियों को मुद्रा योजना के अंतर्गत अब तक 30 करोड़ ऋण प्रदान किए गए हैं। पिछले 10 वर्षों में उच्च शिक्षा के लिए महिलाओं का नामांकन 28 प्रतिशत तक बढ़ चुका है। एसटीईएम (साइंस, टेक्नोलॉजी, इंजीनियरिंग, मैथेमैटिक्स) पाठ्यक्रमों में 43 प्रतिशत नामांकन बालिकाओं और महिलाओं का हुआ है, यह संख्या विश्व में सबसे अधिक है। यह सचमुच बड़ी उपलब्धि है। इस तरह के सभी उपाय कार्यक्षेत्र में महिलाओं की बढ़ती भागीदारी के रूप में प्रतिबिंबित हो रहे हैं। इसका अर्थ है कि मोदी सरकार गरीब, किसान, महिला और युवा के रूप में जिन चार जातियों के उत्थान के प्रति संकल्पित होने की बात करती है, उनमें से महिला जाति पर उसका खासा ज़ोर पहले से रहा है।

सरकार के इस दावे की भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि ‘तीन तलाक’ को गैर-कानूनी बनाने और लोक सभा एवं राज्य विधान सभाओं में महिलाओं के लिए एक-तिहाई सीटें आरक्षित करने तथा प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं के नाम पर या उन्हें संयुक्त मालिकों के रूप में 70 प्रतिशत से अधिक मकान उपलब्ध कराने के फलस्वरूप उनका आत्मसम्मान बढ़ा है।

वित्त मंत्री ने उचित ही ध्यान दिलाया कि इन 4 जातियों की ज़रूरतें, उनकी आकांक्षाएँ और उनका कल्याण सरकार की सर्वोच्च प्राथमिकता है। जब ये जातियाँ उन्नति करती हैं तो देश की प्रगति होती है। इन चारों जातियों को अपना जीवनस्तर बेहतर बनाने के प्रयास में सरकारी मदद की दरकार है और इन्हें सरकार से सहायता मिल भी रही है। इन लोगों के सशक्तीकरण से और कल्याण से देश भी आगे बढ़ेगा। इसी प्रसंग में वित्त मंत्री ने अपने बजट भाषण में महिलाओं के लिए मोदी सरकार द्वारा शुरू की गई ‘लखपति दीदी योजना’ के बारे में बताया। उन्होंने ने कहा कि इस योजना के तहत महिलाओं को सशक्त किया जा रहा है। दरअसल, महिलाओं को सशक्त बनाने के लिए केंद्र सरकार कई योजनाएँ चला रही है। लखपति दीदी योजना भी उन्हीं में से एक है। वित्त मंत्री की मानें तो इस योजना ने 9 करोड़ महिलाओं के जीवन में बदलाव लाया है, यानी इससे देश में महिलाओं की आत्मनिर्भरता में वृद्धि हुई है। याद रहे कि केंद्र सरकार की यह योजना महिलाओं की आर्थिक स्थिति सुधारने के लिए, उन्हें स्किल डेवलपमेंट ट्रेनिंग प्रोग्राम देने के लिए और उन्हें पैसा कमाने के योग्य बनाने के लिए समर्पित है। महिलाओं को अपना बिजनेस शुरू करने के लिए इस योजना के माध्यम से दिशा दिखाई जाती है। बताया गया है कि स्वयं सहायता समूह से जुड़कर इस योजना का लाभ उठाया जा सकता है। अपने नजदीकी आंगनवाड़ी केंद्र के जरिये भी इस योजना के बारे में जानकारी प्राप्त की जा सकती है। इस योजना के तहत, महिलाओं को कौशल प्रशिक्षण दिया जाता है। जैसे उन्हें प्लंबिंग, ड्रोन के संचालन, एलईडी बल्ब बनाना जैसे काम भी सिखाये जा रहे हैं ताकि वे अपना खुद का काम शुरू करके आत्मनिर्भर बन सकें।

अब तक एक करोड़ महिलाएँ लखपति दीदी बन चुकी हैं जो देश के लिए बड़ी उपलब्धि है। अब 3 करोड़ लखपति दीदी बनाने का लक्ष्य रखा गया है। सयानों का मानना है कि यह संख्या यहीं नहीं रुकेगी, बल्कि महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाने के इस अभियान का विस्तार आने वाले वर्षों में संक्रामक रूप में होना चाहिए।

अंततः यह कहना भी ज़रूरी है कि महिलाओं के आर्थिक सशक्तीकरण का हर अभियान तब तक अधूरा रहेगा, जब तक समाज में लैंगिक आधार पर महिलाओं के साथ भेदभाव बना हुआ है। देशभर में आए दिन घर और बाहर यत्र-तत्र-सर्वत्र महिलाओं को जिस तरह की असुरक्षा, अश्लीलता और हिंसा का सामना करना पड़ता है, सरकार को वह सब भी तो दीखता-सुनता होगा न?

– संकलनकर्ता: गुर्रमकोंडा नीरजा

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