खून से लथपथ आंदोलन: कब रुकेगी नक्सल-पुलिस हिंसा..? (भाग-4), कोंडापल्ली सीतारामय्या के आह्वान पर छात्रों ने छोड़ दी उच्च शिक्षा

[नोट- हमारे खास मित्र और तेलुगु दैनिक ‘निर्देशम’ के मुख्य संपादक याटकर्ला मल्लेश ने खून से “लथपथ” आंदोलन: कब रुकेगी नक्सल-पुलिस हिंसा..? को धारावाहिक प्रकाशित करने की अनुमति दी है। इसके लिए हम उनके आभारी है। विश्वास है कि पाठकों और शोधकर्ताओं को ये रचनाएं लाभादायक साबित होगी।]

तेलुगु दैनिक ‘निर्देशम’ के मुख्य संपादक याटकर्ला मल्लेश की कलम से…

कामरेड कोंडापल्ली सीतारामय्या के आह्वान पर छात्रों ने उच्च शिक्षा छोड़ दी और तेलंगाना के ग्रामीण प्रांतों में ज़मींदारों द्वारा जबरन श्रम (बंधुआ मजदूर) शोषण के खिलाफ संघर्ष करने के लिए उठ खड़े हो गये। इस तरह तेलंगाना में नक्सल आंदोलनों के युग की शुरुआत हो गई। इसी समय (वरंगल आरईसी के छात्र कोदंडराम, नागराज, मुक्कू सुब्बा रेड्डी, कंचन राव, लेनिन, चंद्रमौली, मल्लिकार्जुन शर्मा, वीर स्वामी, मुव्वा रवींद्रनाथ, प्रकाश जैसे नेता आंदोलन में शामिल हो गये। इनमें से मुक्कू सुब्बा रेड्डी मात्र लंबे समय तक नक्सल आंदोलन में काम किया।)

तब तक गरीबी और जी हुजूर की जीवन जीने वालों को कोंडापल्ली सीतारामय्या नामक एक बुजुर्ग ग्रामीण और आदिवासियों के लिए उनके हमदर्द के रूप में मिल गया। सीतारामय्या ने गरीब और कमजोर तबके के लोगों को संगठित किया। इसके बाद संगठित लोगों को ‘समुदाय’ (तेलुगु-संघम) में तब्दील कर दिया। परिणामस्वरूप गरीब और कमजोर तबके के लोगों को अपनी शक्ति का तब एहसास हो गया। उन्होंने नक्सल से हाथ से हाथ मिलाना शुरू किया और कुलीनों के दमन को चुनौती देना आरंभ किया। इसके चलते गांवों में नई जागरूकता आ गई। कुछ ही समय में बंधुआ मजदूर विरोधी समिति के संघर्ष कार्यक्रम तेलंगाना के करीमनगर, निजामाबाद, वरंगल, मेदक और आदिलाबाद जिलों के कोने-कोने तक फैल गये। पहली बार सामंती सरकार व्यवस्था के अहंकार पर तमाचा पड़ा।

इसी बीच कुछ ठिकानों पर ‘संघम’ और कुलीन वर्ग के बीच झड़पें हुईं। कुलीन वर्ग के हमले और पुलिस के दमन के चलते गांवों में अशांति फैल गई। फिर भी इन लोगों को ‘संघम’ की ताकत का पता चला तो उन्होंने कभी भी पीछे मुड़कर नहीं देखा। उन्होंने उन पर शासन करने वाले कुलीनों को अधीनता की स्थिति में लाकर खड़ा कर दिया। इतना ही नहीं, उनकी दया के बिना गांवों में कुलीनो को असहायता की स्थिति में लाकर खड़ा कर दिया। उनकी सुरक्षा के लिए आई पुलिस को भी संघम की ताकत के सामने दूम दबाकर वापस चला जाना पड़ा। इस प्रकार एक गांव की सफलता अन्य गांवों की सफलताओं के लिए प्रेरित किया। एक गांव के लोगों की सफलता कईं गांवों के लिए आदर्श बनते गये। यहां तक कि उस समय बसों में, मेलों में, शादी-ब्याह में, त्यौहारों में, श्राद्ध कार्यक्रमों में जहां पर भी चार लोग एकट्ठे होते तो यही बात करते थे कि किस गांव में किस कुलीन को किस तरह का सबक सिखाया गया।

उसी समय तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल लगाया था, तभी करीमनगर, वरंगल और निजामाबाद जिलों में क्रांतिकारी नेता अपना दबदबा जमा चुके थे। आपातकाल के दौरान भूमिगत रहकर क्रांतिकारी राजनीति को बुलंद करने वाले नक्सलवादी आज भी देश में लाल झंडे तले लड़ रहे हैं। (इसी दौरान भूमय्या और किष्टगौड़ ने तेलंगाना सशस्त्र संघर्ष आंदोलन से प्रभावित होकर आदिलाबाद जिले के उटनूर इलाके में गरीब लोगों पर दमन करने वाले ज़मींदार लच्छू पटेल की बैलगाड़ी से बांध दिया और कुल्हाड़ी से वार कर उसकी निर्मम हत्या कर दी थी। अदालत ने दोनों को मौत की सजा सुनाई। उनकी मौत की सजा के खिलाफ नागरिक अधिकार संघ के नेता पत्तिपति वेंकटेश्वर राव, कन्नभिराम, वरवर राव और चेरबंड राजू ने उच्च न्यायालय व उच्चतम न्यायालय का दरवाजा खटखटाया। राष्ट्रपति से क्षमादान की गुहार लगाई। लेकिन सब प्रयास नाकाम हो गये।

सरकार ने आपातकाल के समय 2 दिसंबर 1975 को भूमय्या और किष्टगौड़ को फांसी दे दी।) उस समय नक्सल आंदोलन अपनी चरमसीमा पर पहुंच गया था। अनेक छात्रों ने निचले वर्गों को शोषण मुक्त करने के उद्देश्य से अपनी इंजीनियरिंग की पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी और हथियार उठा लिए। मुख्य रूप से इन छात्रों ने मेदक और निजामाबाद जिलों में आंदोलनों की कमान संभाली। इसी समय सुरपनेनी जनार्दन राव के दल के सदस्यों को गिरफ्तार कर लिया गया। पुलिस ने मेदक जिले के सिद्दीपेट क्षेत्र के गिरईपल्ली जंगलों में पार्टी के रहस्यों को उजागर करने के लिए अनेक प्रकार की यातनाएं दी। मगर पार्टी कमांडर सुरपनेनी जनार्दन राव ने पार्टी के रहस्यों को उजागर नहीं किया। इससे बौखलाई पुलिस ने सुरपनेनी जनार्दन राव, लंका मुरलीमोहन रेड्डी, कालीशेट्टी आनंदराव और वनपर्ती सुधाकर की 25 जुलाई 1975 को गोली मारकर हत्या कर दी गई। बाद में पुलिस अधिकारियों ने यह कहानी गढ़ी कि चारों की मौत मुठभेड़ में मौत हो गई।

नक्सलियों का मानना ​​है कि अगर एक क्रांतिकारी शहीद होता है तो हजारों क्रांतिकारी पैदा होते हैं। कई युवकों ने सुरपनेनी जनार्दन राव की दल से प्रेरणा लेकर नक्सल आंदोलन में कूद पड़े। आपातकाल के दौरान भूमिगत क्रांतिकारियों ने पुलिस प्रतिबंधों की परवाह नहीं की। तेलंगाना के अनेक जिलों में आंदोलन को आगे लेकर गये। इस तरह आंदोलन कम होने के बजाय और भड़क गया।

आंदोलन की जोश से कुलीन वर्ग भयभीत

चारु मजूमदार, वेम्पटपु सत्यम, आदिबटला कैलासम, चागंटी भास्कर, पंचादि निर्मला और पंचादि कृष्णमूर्ति (दंपति) के बलिदान आंदोलन में आग में घी का काम किया। यह कहावत सत्य है कि नेताओं से आंदोलन से पैदा नहीं होते हैं। हालाँकि, नेताओं की प्रेरणा से आंदोलन पैदा होते हैं। किसी भी नेता की स्फूर्ति आंदोलन को हवा देती है। नेताओं की मौत के बाद आंदोलन की गति में अस्थायी रूप से व्यवधान अवश्य आएगा। इन नक्सली नेताओं की मौत के बाद भी यही हुआ। कुछ समय तक नक्सली आंदोलन की कोई गतिविधि दिखाई नहीं दी। हालांकि, इन नेताओं ने जो प्रेरणा दी वह अब भी कायम है। कुलीन शासन पर, बंधुआ मजदूरी और उत्पीड़न के खिलाफ नक्सली आंदोलन का प्रभाव अब भी जीवित है। कुलीनों ने लोगों पर अपना दमन कम कर लिया है। बंधुआ मजदूरी नेस्तनाबूत हो गई है। ऐसी स्थिति पैदा हो गई कि आम आदमी सिर उठकर चल-फिर सक रहा है। इसी समय नई सोच के साथ आगे ले जाने के लिए नक्सली शीर्ष नेता कोंडापल्ली सीतारामय्या और के. जी. सत्यमूर्ति, मुक्कु सुब्बारेड्डी, आई. वी. संबाशिव राव ने आंदोलन को तेज करने के लिए भारत के भौगोलिक और सामाजिक पहलुओं का अध्यन करके आंदोलन की योजना को क्रियान्वित किया। उन शीर्ष नेताओं के निर्देश पर ही करीमनगर, आदिलाबाद, बस्तर और चंद्रपुर क्षेत्रों में तुचारकांत भट्टाचार्य और मुप्पाल्ला लक्ष्मण राव जैसे क्रांतिकारियों के आह्वान पर आंदोलन में शामिल हुए युवाओं ने नक्सली गतिविधियों को चारों ओर ले जाने में सफल हो गये।

जी हुजूर, जी हुजूर कब तक करोगे कुलीन की गुलामी
हे दलित भाई, बदहाल जिंदगी को बदलने हो जा उठ खड़ा
देख इस कुलीन को बिना हाथ-पांव हिलाये पेट कैसे पेट कर मोटा
हे कुलीन चल गया है इसका सब पता अब करेंगे तेरी धुलाई
बंदूक के इस युग में तूफान की तरह हो उठ खड़ा हो गया दलित भाई
इस मायावी कंपनी के मेरे श्रमिक भाई
कब तक जीएगा ऐसी जिंदगी, हो जा उठ खड़ा मेरे भाई

ऐसे अनेक लोक गीतों ने आंदोलन के दौरान लोगों को कुलिन के उत्पीड़न के बारे में सोचने पर मजबूर कर दिया। ‘जज्जनकरी जेनारे.. जनकु जेना जेनारे.. तुर्पुचेनु गट्टूकाडा.. चेट्टु पुट्टा कोट्टेटोडा.. अंबटाल्ला पोएरो ओ कुलन्ना.. सद्दि बुव्वा संगती ऐमी रा.. ओरी मदिगन्ना..’ जैसे क्रांतिकारी गीत गांवों में गूंज उठे और लोकप्रिय हो गए।

सिरिमल्ले वृक्ष के नीचे लछुमम्मो… लछुमम्मो…
तुम फर्श पर दुखी होकर क्यों बैठी है…

इस तरह क्रांतिकारी कवि, गायक और लेखक गद्दर ने अपनी मां लक्ष्ममम्मा की पीड़ा का वर्णन करते हुए उपर्युक्त गीत को लिखा और गाया।

‘हे बहन, कमर को बांध साड़ी का पल्लू … पकड़ दरांती को हाथ में…’

गांवों में दिहाड़ी मजदूर के रूप में काम करने वाली महिलाओं के बारे में पामुला रामचंद्र द्वारा लिखा गया और गाया यह उपर्युक्त गीत लोग गुनगुना लगे। इन दो गीतों ने पूरे तेलंगाना महिलाओं को सोचने पर मजबूर कर दिया।

इसी क्रम में ढोल बजाते और गीत गाते हुए जागरूकता अभियान के लिए आए नक्सली दलों को आदिवासी और ग्रामीणों ने शिकायत की कि वन संपदा को वन रक्षक कैसे लूट रहे हैं और कैसे उन्हें परेशान कर रहे हैं। नक्सलियों ने इसी तेंदुपत्ता (बीड़ी बनाने वाले पत्ते) को आंदोलन का मुद्दा बनाया। ध्यान देने कि बात यह है कि हर साल और एक ही मौसम में हजारों आदिवासियों को तेंदुपत्ता रोजगार प्रदान करता है। इसी समय तेंदुपत्ता संग्रहण के दौरान कल्लेदार (ठेकेदार) बड़े पैमाने पर इनको लूट लेते थे। तड़तड़ाती कड़ी धूप में मेहनत से संग्रहित तेंदुपत्ता को वाजिब दाम नहीं मिलते थे। अशिक्षित और भोले-भाले आदिवासियों की कमजोरियों का फायदा उठाकर कल्लेदार और वन अधिकारियों ने उन्हें कई तरह से परेशान करते थे।

जहां पर शासन आदिवासियों को सुरक्षा प्रदान नहीं करती थी, वहां पर नक्सल उनके समर्थन में खड़े होते थे। इस समस्या पर नक्सलियों ने आह्वान किया कि एक या दो लोगों को दंडित करने से समस्या का समाधान नहीं होता। इसीलिए इस मुद्दे पर बड़े पैमाने पर अभियान चलाया। इसके बाद तेंदुपत्ता संग्रहण मुद्दे पर हड़ताल का आह्वान किया। यह देख सरकार ने हमेशा की तरह पुलिस तैनात कर दी है। फिर भी, आदिवासियों की हड़ताल के सरकार को घुटने टेकना पड़ा और तेंदुपत्ता के दाम बढ़ा दिये गये। आदिवासियों ने पहली बार ऐसे लोगों को देखा जो उनकी भलाई के बारे में सोचते हैं और उनकी सहायता के लिए आगे आते हैं। तब से आदिवासी नक्सल को “अन्ना…” (भाई) कहने लगे और प्यार से उन्हें गले लगाने लगे। उस समय से लेकर अब तक आदिवासी अन्ना के आह्वान का अनुसरण करते आ रहे हैं। इसका मुख्य कारण उस समय किया गया नक्सल संघर्ष रहा है।

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ఉన్నత చదువులకు స్వస్తీ పలికిన విద్యార్థులు తెలంగాణ గ్రామీణ ప్రాంతాలలో భూస్వాముల వెట్టిచాకిరి దోపీడికి వ్యతిరేకంగా పోరాట శంఖం వూరించడంతో ఉద్యమాల యుగానికి నాందీ ప్రస్తావన జరిగింది. (వరంగల్‌ ఆర్‌ఇసీ విద్యార్థులు కోదండరామ్‌, నాగరాజ్‌, ముక్కు సుబ్బరెడ్డి, కంచన్‌రావు, లెనిన్‌, చంద్రమౌలి, మల్లిఖార్జున శర్మ, వీరాస్వామి, మువ్వ రవీంద్రనాత్‌, ప్రకాష్‌లు వీరంతా మొదట ఉద్యమంలోకి వచ్చిన వారే. ఆ తరువాత ముక్కు సుబ్బరెడ్డి చాలా కాలం పాటు ఉద్యమంలో పని చేశారు.)

అప్పటి దాకా బాంచను బతుకులు బతికిన బడుగు జనానికి కొండపల్లి సీతారామయ్య అనే పెద్దాయన ఒక చేయూతలా దొరికారు. బడుగు ప్రజలను సంఘటితం చేసి ‘సంఘం’గా మార్చడంతో వారికి తమ శక్తి తెలియవచ్చింది. చేయి చేయి కలిపి పెత్తనాన్ని సవాలు చేయడం మొదలైంది. పల్లెల్లో కొత్త చైతన్యం వచ్చింది. అనతి కాలంలోనే వెట్టి వ్యతిరేక కమిటీ పోరాట కార్యక్రమం తెలంగాణలోని కరీంనగర్‌, నిజామాబాద్‌, వరంగల్‌, మెదక్‌, ఆదిలాబాద్‌ జిల్లాల నలుమూలలాకు పాకింది. తొలిసారి భూస్వామ్య వ్యవస్థ అహం మీద దెబ్బ పడింది.

ఈ క్రమంలో కొన్ని చోట్ల సంఘానికి దొరలకు ఘర్షణలు జరిగాయి. దొమ్మీలు, పోలీసు కేసులు, గ్రామాలు అల్లకల్లోలమయ్యాయి. సంఘం బలం తెలిసి వచ్చింతర్వాత జనం ఇక వెనుకకు తిరిగి చూడలేదు. తమను శాసించిన దొరలను శృాసీంచే స్థితికి తమ దయలేకుండా పల్లెల్లో మనలేని స్థితికి తెచ్చారు. రక్షణగా వచ్చిన పోలీసులు జనం బలం ముందు తోక ముడువక తప్పలేదు. ఒక విజయం మరిన్ని విజయాలకు స్ఫూర్తిచ్చినట్లు ఒక ఊళ్లో జనం విజయం మరిన్ని ఊళ్లకు ఆదర్శంగా మారాయి. బస్సుల్లో, సంతల్లో, పెళ్లిళ్లు, తద్దినాల్లో ఎక్కడ నలుగురు జమకూడినా ఏ గ్రామంలో ఏ దొరకు ఏ శాస్త్రీ చేశారో చెప్పుకోవడమే విశేషాంశంగా మారింది.

దేశంలో ఇందిరాగాందీ ఎమర్జేన్సీ విధించే నాటికే కరీంనగర్‌, వరంగల్‌, నిజామాబాద్‌ జిల్లాలు విప్లవ వీరులకు పురుడు పోశాయి. ఆ ఎమర్జేన్సీ కాలంలో ఆజ్ఞాతంలో ఉంటూ విప్లవ రాజకీయాలను రగిలించిన నక్సలైట్లు దేశంలో ఎర్రజెండాను రెపరెపలాడిస్తున్నారు. (తెలంగాణ సాయుధ పోరాట ఉద్యమ స్పూర్తితో ఆదిలాబాద్‌ జిల్లా ఉట్నూర్‌ ప్రాంతంలో ఆరాచాకలు చేస్తున్నారని భూస్వామి లచ్చు పటేల్‌ను బండి కచ్చడంకు కట్టి గొడ్డలితో నరికి చంపారు భూమయ్య, కిష్టాగౌడులు. ఆ ఇద్దరికి ఉరి శిక్ష పడ్డది. ఆ శిక్షలను రద్దు చేయడానికి పౌరహక్కుల సంఘం నాయకులు పత్తిపాటి వెంకటేశ్వర్‌రావు, కన్నాభిరాం, వరవరరావు, చెరబండరాజు ఇలా ఎందరో ప్రయత్నించారు. అయినా భూమయ్య, కిష్టాగౌడులను ఎమర్జెన్సీ కాలంలో 2 డిసెంబర్‌ 1975 నాడు ఉరి తీసింది ప్రభుత్వం.) ఉద్యమం శిఖరాన్ని చేరిన దశలో అట్టడుగు వర్గీయులను దోపీడి నుంచి రక్షించడమే లక్ష్యంగా ఇంజనీరింగ్‌ చదువును అర్ధాంతరంగా నిలిపేసి ఆయుధం పట్టి మెదక్‌, నిజామాబాద్‌ జిల్లాలలో నక్సల్స్‌ ఉద్యమాలకు బాధ్యతలు చేపట్టే క్రమంలోనే సురపనేని జనార్ధన్‌రావు దళంను అరెస్టు చేసి మెదక్‌ జిల్లా సిద్దిపేట్‌ ప్రాంతంలోని గిరాయిపల్లి అడవులలో పార్టీ రహాస్యల కోసం చిత్రహింసలు పెట్టారు పోలీసులు. ప్రాణాలు పోయిన పార్టీ రహాస్యలు చెప్పకుండా మొండి ధైర్యంతో ఉన్న దళ కమాండర్‌ సురపనేని జనార్ధన్‌ రావు, దళ సభ్యులు లంకా మురళీమోహన్‌ రెడ్డి, కాలిశెట్టి ఆనందరావు, వనపర్తి సుధాకర్‌లను 25 జూలై 1975లో కాల్చీ చంపారు. ఆ తరువాత ఎదురు కాల్పులలో ఆ నలుగురు మరణించారని కట్టుకథలు చెప్పారు పోలీసు అధికారులు.

ఒక విప్లవకారుడు అమరుడైతే వేలాది మంది విప్లవ కారులు పురుడు పోసుకుంటారని నమ్ముతారు నక్సలైట్లు.. సురపనేని జనార్ధన్‌ రావు దళంను స్పూర్తిగా తీసుకుని ఎందరో రణరంగంలోకి దూకారు. పోలీసు నిర్బందాన్ని లెక్క చేయకుండా ఎమర్జేన్సీ కాలంలో ఆజ్ఞాతంలోకి వెళ్లిన విప్లవ కారులు తెలంగాణ జిల్లాలలో బాధ్యతలు స్వీకరించారు. ఉద్యమాన్ని ఉధృతం చేసారు.

‘ఉవ్వెత్తున ఉద్యమం`భీతిల్లిన దొరతనం’

చారుమజుందర్‌, వెంపటాపు సత్యం, ఆదిబట్ల కైలాసం, ఛాగంటి భాస్కర్‌, పంచాది నిర్మల`పంచాది క్రిష్ణమూర్తి (దంపతులు) అమరత్వం ఉవ్వెత్తున ఎగిసి పడ్డ ఉద్యమ స్ఫూర్తికి శరాఘతాతమయ్యారు. నాయకుల వల్ల ఉద్యమాలు పుట్టవు. ఉద్యమాల్లోంచే నాయకులు పుడుతారనే నానుడి సత్యమే. అయినా నాయకులిచ్చిన స్ఫూర్తి ఉద్యమానికి ఊతమవుతుంది. ఆ నాయకులు నిష్క్రమించిన సందర్భంలో ఉద్యమ ఉధృతికి తాత్కాలికంగానైనా విఘాతం ఏర్పడక తప్పదు. నక్సల్స్‌ నేతల మరణం తర్వాత అదే జరిగింది. కొద్ది కాలం ఉద్యమాల హోరు వినిపించలేదు. అయితే వారిచ్చిన స్ఫూర్తి మిగిలే ఉంది. దొరల పెత్తనం మీద, వెట్టిచాకిరీ, దౌర్జన్యాలపై ప్రజలు జరిపిన తిరుగుబాటు తాలుకు ప్రభావం సజీవంగానే ఉంది. దొరల పెత్తనం తగ్గించుకున్నారు. వెట్టి కనుమరుగైంది. సామాన్యుడు తలెత్తుక తిరిగే పరిస్థితి ఏర్పడిరది. ఈ దశలో ఉద్యమాన్ని కొత్త అంశాలకు విస్తరించి ముందుకు తీసుకెళ్లడానికి నక్సలైట్‌ అగ్ర నేతలు కొండపల్లి సీతారామయ్య, కె.జి. సత్యమూర్తి, ముక్కు సుబ్బరెడ్డి, ఐ.వి. సాంబశివరావుల ఆలోచనలతో నక్సల్స్‌ ఉద్యమాన్ని ఉధృతం చేయడానికి భారత దేశ భౌగోళిక, సామాజిక ఆంశాలను పరిశీలించి ఉద్యమ ప్రణాళికను అమలు చేశారు. ఆ అగ్రనేతలు ఇచ్చిన సూచనలతోనే కరీంనగర్‌, ఆదిలాబాద్‌, బస్తార్‌, చంద్రపూర్‌ ప్రాంతాలలో తుచర్ కాంత్ బట్టచార్య, ముప్పాళ్ల లక్ష్మణరావు లాంటి విప్లవ కెరటాలుగా ఉద్యమంలోకి వచ్చిన యువతరం నక్సల్స్‌ కార్యకలపాలు నిర్వహించారు.

బాంచెన్‌ బాంచెన్‌ అంటూ గులాపోన్ని దొర అంటూ
ఎన్నాళ్లీ ఈ బతుకు మాలన్న ఎదిరించవేమిరా మాదిగన్న..
రెక్క బొక్క నొయ్యకుండా బొర్ర బాగ పెంచావురో దొరోడా..
నీ పెయ్యంతా మంత్రిస్తాం దొరోడా..
తుపాకి రాజ్యంలో రన్నా.. నీవు తుపాన్‌ వై లేవరన్నా..
అన్నాన్న మాయన్న కంపెనీ కూలన్న
ఎన్నాళ్లీ ఈ బతుకు ఎదిరించవేమన్నా..

ఇలాంటి ఉద్యమ పాటలు భూస్వాముల ఆరాచకలపై ప్రజలను ఆలోచింప చేశాయి. ‘జజ్జనకరి జెనారే.. జనకు జెన జెనారే.. తూర్పు చేను గట్టుకాడ.. చెట్టు పుట్ట కొట్టెటోడా.. అంబటాల్ల మించి పోయెరో ఓ కూలన్నా.. సద్ది బువ్వ సంగతి ఏమిరా.. ఓరి మాదిగన్నా..’ ఇలాంటి విప్లవ గీతాలు పల్లెలలో మార్మోగాయి.

‘సిరిమల్లే చెట్టు కింద లచ్చుమమ్మో.. లచ్చుమమ్మా..
నీవు చిన బోయి కూర్చున్నవ్‌ ఎందుకమ్మో.. ఎందుకమ్మా..’

గద్దర్‌ తన కన్న తల్లి లక్ష్మమ్మ పడే బాధలను పాటగా రాసాడు.

‘కొంగు నడుముకు చుట్టవే చెల్లెమ్మా..
కొడవలి చేత బట్టవే చెల్లెమ్మా..’

పల్లెలలో కూలీ పని చేసే మహిళలపై పాముల రాంచందర్‌ రాసిన పాట ప్రజల్లో నోట్లో నానింది. ఈ రెండు పాటలు మహిళలను ఆలోచింప చేసాయి.

కంజర కొడుతూ పాటలు పాడుతూ క్యాంపెయిన్‌ కోసం వచ్చిన నక్సల్‌ దళాలకు అటవీ సంపతదను జంగ్లత్‌గాళ్లు కొల్లగొడుతూ తమను హింసిస్తున్నారని మొరపెట్టుకున్నారు ప్రజలు. ఇదే క్రమంలో తునికాకు సమస్యను తీసుకున్నారు నక్సల్స్‌. ఏడాదికి ఒకేసారి సీజన్‌లోనే వేలాది మంది గిరిజనులకు ఉపాధి కల్పించే తునికాకు సేకరణలో కళ్లెదారులు భారీ దోపీడికి పాల్పడే వారు. నిప్పులు చెరిగే ఎండలో శ్రమకోర్చి జరిపే తునికాకు సేకరణకు గాను గిరిజనులకు తగిన గిట్టుబాటు ధర లభించేది కాదు. నిరక్ష్యరాస్యులు అమాయకులైన గిరిజనుల బలహీనతలను ఆసరాగా అటు కళ్లెదారులు ఇటు అటవీ అధికారులు వారిని అనేక వేధింపులకు గురిచేసేవారు.

రాజ్యం రక్షణ ఇవ్వని చోట అన్నలు అండగా నిలిచారు. ఒకరిద్దరిని శిక్షించడం వల్ల సమస్య పరిష్కరం జరుగదు. సమస్యపై కాంపెయిన్‌ జరుగాలి. అందుకే ఈసారి తునికాకు సేకరణ సమ్మెకు పిలుపునిచ్చారు. రాజ్యం యాథాప్రకారం పోలీసులను రంగంలోకి దింపింది. అయితే గిరిజనుల పట్టుదల ముందు తలవంచక తప్పలేదు. తునికాకు సేకరణ ధర పెరిగింది. మొదటి సారిగా తమ గోడును పట్టించుకున్న వారిని తమను ఆదుకునేందుకు వచ్చిన వారిని చూశారు. ‘అన్నా..’ అంటూ పిలిచి అక్కున చేర్చుకున్నారు. నాటి నుంచి నేటి వరకు గిరిజనులు అన్నల వెంటే నడిచారంటే దానికి ఆనాటి పోరాట కార్యక్రమమే కారణం.

(5వ ఎపిసోడ్ లో కలుద్దాం..)

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