चेतना के नौ रूप
शास्त्रों में चेतनशक्ति के नौ रूपों में इसी दिव्य शक्ति का मानवीय आख्यान, व्याख्यान है। इसी अनुसंधान का, आध्यात्मिक सिद्धांतों का लौकिक सिद्धान्त निरूपण है; मानव के जिज्ञासु मन को, समर्पित साधक को समझने और समझाने और गूढ़ तत्व की खोज में पुनः पुनः प्रेरित/अनुसंधानरत होने के लिए। मानवमन के खोज की प्रक्रिया स्थूल से सूक्ष्म की ओर गति करना है।
(1) शैलपुत्री:
मानवीकरण रूप में यह देवी का प्राथमिक रूप है। संकल्प शक्ति है, कंपन शक्ति है, यह उद्भव शक्ति है, स्पंदन है यह पाषाण में, पर्वत में, सघनता में, चट्टान में एक बाला रूप में। यदि किसी के मन में संदेह हो कि जड़ पाषाण/शैल से चेतना की उत्पत्ति कैसे संभव है? इस शंका निराकरण के लिए वैदिक “श्रीदेव्यथर्वशीर्षम” संवाद का एक अंश प्रस्तुत करना चाहूंगा। सभी देवगण देवी के समीप गए और उनसे विनम्रता से पूछा – “कासि त्वं महादेवीति”, हे देवी! आप कौन हो? देवी ने उत्तर दिया – मैं ब्रह्म स्वरूपिणी हूं – “अहं ब्रह्मस्वरूपिणी”। प्रश्न हो सकता है कि यह ब्रह्म कौन है? ब्रह्म सिद्धांत क्या है? यह “अक्षर ब्रह्म” सिद्धांत ही ब्रह्मांड का मूल कारण है। यह परम चैतन्य, अचल, निर्विकार, निराकार, अक्षर तत्त्व है जो इस ब्रह्मांड के अस्तित्व का निमित्त और उपादान दोनों ही कारण हैं। उसका कोई कारण नहीं। अज, स्वयंभू है, अयोनिज है। यह देवी उसी ब्रह्म की शक्ति है, परमेश शक्ति है। “एकोहं बहुस्याम” की जब संकल्पना हुई तो वह संकल्प शक्ति ही “देवी” है। शक्ति के अंतिम वर्ण के “ति” की मात्रा (इ = इक़ार) ही निर्विकार, निश्चल, निष्क्रिय “शव” के प्रथम वर्ण “श” में जुड़कर उसे कल्याणकारी (श + इ + व) = “शिव” बना देती है। यह सृष्टि उसी ब्रह्मांड उसी देवी की कल्याणमयी सृजन है। यही “अथ” से “इति” तक की समस्त कथा है। इसलिए जब वह देवी कहती है कि यह पुरुष प्रकृतिमय जगत मुझसे ही उत्पन्न हुआ है। मैं ही जड़ – चेतन, भाव – अभाव, दृश्य – अदृश्य, विज्ञान – अविज्ञान हूं। मैं ही पंच महाभूतों के रूप में चराचर जगत में विद्यमान हूं – “अहमखिलं जगत”। यह चराचार ब्रह्मांड उसी की अभिव्यक्ति है, कृति है जिसके माध्यम से अपनी इसी शक्ति का बोध कराती है, एक सूत्रात्मक, सैद्धांतिक परिचय देती है।
अब उन सबके लिए जो इस सैद्धांतिक ज्ञान से विज्ञ नहीं हैं, उनका कल्याण कैसे हो? वर्तमान में शक्ति के दुरुपयोग और उसके ध्वंस विध्वंश को हमलोग नित्य प्रति देख रहे हैं हैं। “शिव” की पालक और विनाशक शक्तियों की वास्तविक स्वामिनी “शिवा” ही हैं। ये समस्त शक्तियां देवी शिवा में ही सन्निहित हैं। इसकी पुष्टि देवी स्वयं करती हैं – “अहं रुद्राय धनुरा तनोमि ब्रह्मद्विषेशरवे हंतवाउ …”। मैं ही समन्वय और संहार के लिए शिव के धनुष पिनाक और तीर (आयुध/शास्त्रों) को धारण कर लक्ष्य भेदन करती हूं। शक्ति और आयुध को चाहे वह भौतिक हो या आध्यात्मिक, उसे सर्वदा “मंगलकारी” ही होना चाहिए, विनाशक कभी नहीं।
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इस मंगलकारी भावना से ओतप्रोत हो भगवान आशुतोष “शिव” स्वयं ही भगवती “शिवा” से निवेदन करते हैं कि हे देवी! तुम तो अपने भक्तों के लिए सर्व सुलभ हो, भक्तों के कार्य सिद्धि, कामनाओं की सिद्धि हेतु यदि कोई सरल, सुगम उपाय हो तो कृपया उसे अपने मुखारविंद से अभिव्यक्त कीजिए।
शिव उवाच – “देवि त्वं भक्त सुलभे सर्वकार्यविधायिनी।
कलौ हि कार्य सिद्धयर्थमुपायं ब्रूहि यत्नतः।।” देव्युवाच –
“श्रुणु देव प्रवक्ष्यामि कलौ सर्वेष्ट साधनम। मया तवैव स्नेहेनाप्यम्बास्तुति: प्रकाश्यते।।”
अर्थात हे देव! आपका मेरे ऊपर बहुत स्नेह है, इसलिए कामनाओं की सिद्धि हेतु जो श्रेष्ठ उपाय है, उसे कहती हूं। वह है – “अम्बास्तुति”, माता की उपासना, आराधना। तभी से देवी मां के अन्यान्य रूपों की उपासना, आराधना, विधि विधान का प्रचलन प्रारम्भ होकर निरन्तर अबतक अबाधरूप गतिमान है, प्रचलित है, नौ रूपों में; मां शैलपुत्री से मां सिद्धिदात्री …. तक।
मां शिवा की स्तुति सभी ने किया है। पितामह ब्रह्मा जी ने स्वयं इन शब्दों में किया है – “त्वं स्वाहा त्वं स्वधा त्वं हि वषटकार: स्वरात्मिका…। … सुधा त्वमक्षरे नित्ये त्रिधा मात्रात्मिका स्थिता …“, कहकर। समय – समय पर देवी उपासना, आराधना, पूजा सभी देवताओं ने भी किया है इन प्रसिद्ध मंत्रों से – “विश्वेश्वरी जगद्धात्री स्थिति संहारकारिणीम …।” तथा “नमो देव्यै महादेव्यै शिवायै सततं नम: …” और देवी ने भी प्रसन्न होकर उन्हें वरदान दिया है, कल्याण का भरपूर आश्वासन दिया है, उनके कष्टों, विघ्न बाधाओं के विनाश का, उनके शमन हेतु आश्वस्त किया है – “सर्वाबाधाविनिर्मुक्तौ धनधान्य सुतान्वित:। मनुष्योमत्प्रसादेन भविष्यति न संशय:”। … तभी से देव हों, मानव हों या दानव सभी देवी शक्ति के अन्यान्य रूपों की स्तुति, आराधना, वंदना, पूजा करने लगे और कालांतर में अनेक प्रकार की पूजा पद्धतियों का देश, काल, परिस्थितिनुसार विकास हुआ।
अब स्पष्ट हो गया कि जड़ दिखने वाले शैल में भी दैवीय चितिशक्ति प्रषुप्त रूप में विद्यमान है। उसे मात्र जाग्रत ही होना है। पाषाण से चैतन्य बालिका रूप में प्राकट्य उसी चैतन्य का आह्लाद है। वैदिक शब्दावली में यही “अहं ब्रह्म स्वरूपिणी” है, पौराणिक संदर्भ में यही “पार्वती” है और लोकजीवन में “शैलपुत्री”।
विज्ञान की भाषा में इसे स्थितिज ऊर्जा “पोटेंशियल एनर्जी” जैसी गुप्त शक्ति कह सकते हैं, समझ सकते हैं; किंतु ध्यान रहे अवक्तावस्था में भी यह चेतन ही है, अचेतन या जड़ कभी नहीं।
(2) ब्रह्मचारिणी:
यह चेतन सत्ता की गति है, गतिशीलता है, विकास है, पौधे का, अंकुरण का, मंत्र शक्ति से, ऋत और सत सिद्धांत द्वारा। वैदिक शब्दावली में मंत्र, तंत्र, यंत्र है। भौतिक विज्ञान की भाषा में काईनेटिक एनर्जी कहा जा सकता है। किंतु ध्यान रहे, यह चेतन शक्ति है; जड़ पदार्थ नहीं।
(3) चन्द्रघंटा:
यह शक्ति का निनाद है, प्रसरण है, गुंजन है, मंत्र है, गीत है, लय है, धुन है, छंद है, संगीत है, नृत्य है…। वैदिक शब्दावली मे छंद है।
विज्ञान की भाषा में इसे ही साऊंड एनर्जी कहा जा सकता है। परन्तु यहां भी ध्यान रहे यह चैतन्यता है, चेतन शक्ति है, जड़ नहीं।
(4) कुष्मांडा:
बालिका अब किशोरी बन चुकी है, रजस्वला हो चुकी है, रस और रुधिर से भरा गोल प्रतीक ओवम है, अण्डा है, ब्रह्माण्ड बीज है। यहां रस है, सौदर्य है, यौवन का आकर्षण है, परिपक्वता है, मातृत्व की पूर्व पीठीका है यह। वैदिक शब्दावली में यज्ञ कुंड, वेदी है। विज्ञान की भाषा में इसे न्यूक्लियर एनर्जी कहा जा सकता है किंतु चेतना की ऊर्जा, जड़ की नहीं।
(5) स्कंदमाता:
पूर्ण यौवन, आकर्षण है, योग है, प्रकृति, पुरुष का संयोग है, भ्रूण है, शिशु है, प्रसव है, बालक है मां के साथ। संपूर्ण नारीत्व है। वैदिक शब्दावली में यज्ञ है। विज्ञान की भाषा में इसे मैग्नेटिक एनर्जी कहा जा सकता है किंतु चैतन्य की शक्ति।
(6) कात्यायनी:
यहां तीव्र प्रकाश है, नारीत्व का प्रकाश, चकाचौंध है तो संकुचन भी है। बिंदु है किंतु लय की क्षमता से युक्त है।विज्ञान की भाषा में इसे एटॉमिक एनर्जी कहा जा सकता है किंतु चेतना की।
(7) कालरात्रि:
अग्नि की लपटों की भांति बिखरे हुए केश है, यहां ताप है, अत्यंत प्रभावी झुलसा देने वाला तेज है। विकल्पन का विकार है, अग्नि, ताप की प्रबलता है। विज्ञान की भाषा शब्दावली में इसे थर्मल एनर्जी कहा तो जा सकता है, किंतु चैतन्य की ऊर्जा शक्ति।
(8) महागौरी:
सौंदर्यशालिनी, अप्रतिम सौंदर्य, तेजस्विता, प्रभा, प्रभुता, सभी निधियों सिद्धियों से युक्त। जीवन को वैभवशाली बनाने की क्षमता संयुक्त …। विज्ञान की भाषा में इसे इलेक्ट्रिकल एनर्जी कहा जा सकता है। किन्तु जड़त्व की ऊर्जा नहीं, चेतना की दिव्य शक्ति।
(9) सिद्धिदात्री:
सभी सिद्धियों को प्रदान करने वाली, पुष्ट परिपुष्ट करनेवाली, संपूर्णता को प्राप्त करनेवाली। यह क्रमांक 9 पर हैं और 9 की संख्या ही पूर्ण है। यह कभी भी, किसी भी परिस्थिति मे अपना मूल्य नहीं परिवर्तित करती। मां ही पूर्ण है, परिपूर्ण है। पूर्ण मां से पूर्ण संसति उत्पन्न होती है। पूर्ण (मां) से पूर्ण (संतति) घटाने पर भी पूर्ण (मां) ही स्वस्थ रूप में शेष बची रहती है। कोई विकार नहीं उत्पन्न होता। वही “पूर्णम अद: है”, वही “पूर्णम इदम है”। वही सर्व है, सर्वाधार है, सर्वस्व है। विज्ञान की भाषा में इसे केमिकल एनर्जी, रसायनिक ऊर्जा कहा जा सकता है किंतु ध्यान रहे यह ऊर्जा जड़ नहीं, चेतन ऊर्जा है। चिति शक्ति है।
संक्षिप्त में यही नवरात्र का एक लघु विश्लेषण है, समझने का प्रयास है जो सुधी विद्वानों से इस तत्व और तथ्य की और भी गहन समीक्षा, विवेचन, अनुसंधान और विस्तार का सविनयआग्रह करता है जिससे वर्तमान जगत की समस्त जिज्ञासाओं, प्रश्नों और अपेक्षाओं का समुचित निराकरण प्रस्तुत किया जा सके।

डॉ जयप्रकाश तिवारी
बलिया/लखनऊ, उत्तर प्रदेश
संपर्क सूत्र: 9453391020