(ख) आभ्यंतर या मानसिक परिवर्तन:
हमारी मानसिक चेतना में भी ये परिवर्तन गहरा प्रभाव डालते हैं और पूरा का पूरा व्यक्तित्व ही परिवर्तित हो जाता है। चिंतन से लेकर वेशभूषा तक, तन, मन मे आभ्यंतर परिवर्तन, अनुभूतियां होने लगती हैं। हर्ष, उल्लास, प्रसन्नता, गीत, संगीत की एकल या सामूहिक अभिव्यक्ति होती है। जनजीवन पुष्प वाटिका की भांति चहक उठता है। सुरभित होकर सुगंध बिखेरता है।
मां के रूप में विभिन्न रूपों की आराधना में साधक इतना तल्लीन हो उठता है कि प्रत्येक नारी में उसे मां का ही आभास होने लगता है, मां के शिशु रूप से पूर्ण यौवन रूप में मां का ही दिग्दर्शन उसकी दृष्टि को आध्यात्मिक रूप से इतना पवित्र और सुदृढ़ बना देता है कि वह लौकिक काम, भोग, वासनाओं की विकृतियों से सरलता से बच जाता है, जबकि साधना विहीन मानव अमर्यादित होकर प्रायः भटक जाता हैं। यदि इसे विज्ञान की दृष्टि से देखें तो यह शक्ति या ऊर्जा “तरंग रूप” में गतिशील होती है। वही तरंग में “m” और “w” जैसी दोनों ही प्रकार की आकृतियां बनती हैं।
इन तरंगों में कुछ ऐसी आकृति बनती है जो पूरी तरह से दृष्टा की दृष्टि भावना पर निर्भर होती है। साधक की दृष्टि इस ऊर्जा तरंग को “m” रूप में देखता है तो विकृत मानस को यह “w” रूप में दिखती है। “एम” की दृष्टि (mother) मातृत्व भाव को सृजित करती है। मातृ भाव में मन की मलीनता, कामुकता का कोई स्थान ही नहीं होता, वहां आदर, समर्पण और सेवा भाव होता है। “डब्लू” दृष्टि (wife / woman) काम, भोग भाव को उत्पन्न करती है। यही दृष्टि समाज में यौन उत्पीडन और बलात्कार जैसी घिनौने अपराध का मूल कारण हैं।
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पवित्र “एम दृष्टि” की देन गीत, संगीत, नृत्य, साहित्य और विभिन्न लोक कलाएं है। इन चिंतकों ने शिव और शक्ति के युग्म को पहचाना किंतु कोई नाम, गुण, संज्ञा नहीं दे पाए। वस्तुत लौकिक वाणी के वर्णन का वह विषय ही नहीं हैं। यदि है तो संकेत और प्रतीक का विषय। महाकवि कालिदास ने शिव और शक्ति को “शब्द” और उसके “अर्थ” की भांति अपृथक, अद्वय, एकयुग्म प्रतीक बताया है-
वागर्थाविवसंपृक्तौ वागर्थप्रतिपत्तए।
जगत: पितरौ वंदे पार्वती परमेश्वरौ।।
कबीर ने कहा –
एक कहूं तो है नहीं दूइ कहूं तो गारी।
है जैसा तैसा रहे कहै कबीर बिचारी।।
लाली मेरे लाल की जीत देखूं तित लाल।
लाली देखन मैं गई मैं भी हो गई लाल।।
इसी प्रकार छायावादी काव्यधारा की प्रमुख स्तंभ महीयसी महादेवी वर्मा की एक दार्शनिक रचना दृष्टव्य है-
मैं पुलक हूं जो पला है कठिन प्रस्तर में…। इसमें “पुलक” क्या है? और “प्रस्तर” क्या है? इसे विस्तारित करने की आवश्यकता नहीं। यह “पुलक” ही वह आह्लादित संवेदना है जो प्रस्तर गुहा (शैल) से गुनगुनाती, मुस्कुराती सी, एक सार्थक सन्देश देती बाहरी दुनिया में प्रकट होती है। महादेवी की ही एक और रचना स्मृति में गुंजित हो रही है, यहां इसमे भी सबकुछ सुस्पष्ट है – नींद थी मेरी अचल निष्पंद कण कण में। प्रथम जागृति थी जगत के प्रथम स्पंदन में। प्रलय में मेरा पता पद चिह्न जीवन में….।
यह नींद रात्रि भी है, प्रलय भी, गुप्त भी है, गुह्य भी। जीवन इसी गुह्यता का उन्मेष, सुख, दुःख, आनन्द की अभिव्यक्ति और मौन, शांति, परमशांति की गहन निद्रा का एक चक्र है। यही भवबंधन है, जन्म और मृत्यु का चक्र भी।
विज्ञान ने इसे अपनी वैज्ञानिक शब्दावली में रात्रि को डार्क एनर्जी, डार्क मैटर जैसे शब्दों से वर्णित किया है। साथ ही यह भी स्पष्ट किया है कि इस डार्क एनर्जी को विज्ञान मात्र छः प्रतिशत (6%) ही जान पाया है अभी तक, शेष के लिए अनुसंधान जारी है। विज्ञान भी अध्यात्म का अनुगमन कर रहा है। आशा की जानी चाहिए की विज्ञान भी जप पूर्णता की प्राप्ति कर लेगा तब वह भी इस डार्क एनर्जी को जड़ नहीं चेतन स्वीकार लेगा। आज गॉड पार्टिकल की खोज में उसका प्रवृत्त होना इसी का संकेत कर रहा है।
यदि हम भक्तों और संतों की बात करें तो इस प्रकार के अनेकानेक वर्णन संत साहित्य में मिल जाते है, इन संतों ने हो वैदिक, पौराणिक कहानियों, कथाओं, घटनाओं के माध्यम से संस्कृतनिष्ठ आध्यात्मिक चेतना का, सृष्टि प्रक्रिया का, विभिन्न साधना पद्धतियों का लोकभाषा की सरल शब्दावली में गुणगान कर, गुणानुवाद कर जन जन तक प्रचारित, प्रसारित किया है।

डॉ जयप्रकाश तिवारी बलिया/लखनऊ, उत्तर प्रदेश
संपर्क सूत्र: 9453391020
