हैदराबाद (डॉ आशा मिश्रा की रिपोर्ट) : कादम्बिनी क्लब हैदराबाद की 353वीं गोष्ठी दिनांक रविवार को अपने पारंपरिक गरिमा और साहित्य के लिए एक नई सोच- ‘हिंदी साहित्य में दक्षिण के साहित्यकारों के योगदान’ विषय के दूसरे अध्याय के रूप में ‘तेलुगु साहित्यकारों का हिंदी साहित्य में योगदान’ के रूप में संगोष्ठी के साथ प्रथम सत्र का शुभारंभ किया गया। डॉ अहिल्या मिश्र (संस्थापक अध्यक्ष कादम्बिनी क्लब) एवं मीना मुथा (कार्यकारी संयोजिका) ने प्रेस विज्ञप्ति में कहा कि इस अवसर पर तेलुगु के प्रसिद्ध साहित्यकार डॉ पी मणिक्याम्बा और प्रो श्रीलक्ष्मी मुख्य एवं विशिष्ट वक्ता डॉ सुमनलता सम्मानित अतिथि एवं साहित्यकार जी परमेशवर तथा अनुगूँज की संस्थापक डॉ निवेदिता चक्रवर्ती अध्यक्ष के रूप में आभासी मंच पर उपस्थित हुए।
ग़ौरतलब है कि कोरोना के दुष्प्रभाव से साहित्यकारों को सुरक्षित मंच उपलब्ध कराने के प्रयास में क्लब अपने सदयों एवं अतिथियों के साथ आभासी रूप से निरंतर प्रति माह अपने कार्यक्रम का आयोजन ऑनलाइन वेबीनार के माध्यम से करता आ रहा है। मुख्य वक्ता के रूप में विषय को व्याख्यायित करते अपने हुए डॉ मणिक्याम्बा ने कहा कि दक्षिण में हिन्दी के प्रचार प्रसार का श्रेय महात्मा गांधी और उनके पुत्र तुषार गांधी को जाता है परंतु तेलंगाना में इसको प्रसारित करने का श्रेय मोटूरी सत्यनारायण को जाता है। 1922 में पोटूरि नागेश्वर राव ने हिन्दी शिक्षा हेतु विद्यालय खोला। डॉ मणिक्याम्बा ने भक्तिकाल के कवियों का सुंदर चित्र खींचते हुए कवि देव, पद्माकर, बिहारी का जिक्र किया और कहा कि इनमें कौन श्रेष्ठ है कहना कठिन है परंतु तत्सम शब्दों को पिरोने का हुनर पद्माकर में विशेष है। पद्माकर इसलिए विशेष हैं क्योंकि इन्होंने सांस्कृत के साथ प्राकृत का भी अध्ययन किया इसलिए उनकी भाषा भी लचीली है।
तेलुगु भाषा में तत्सम शब्दों की भरमार रहती है और हिन्दी में तद्भव और देशज शब्दों की। कृष्णकाव्य के साहित्य एवं साहित्यकारों का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि इन कवियों ने मात्र अनुवाद ही नहीं किया बल्कि सुनकर तथा अपनी कल्पना शक्ति के माध्यम से मौलिक रचना भी की। संस्कृत और तेलुगु के पंक्तियों का उदाहरण देते हुए वल्लभाचार्य, अन्वाचार्य आदि के योगदानों को रेखांकित किया और कहा कि हमें महान रचनाकारों की पुस्तकों का पुनः प्रकाशन करना चाहिए ताकि हम भारतीय भाषा एवं संस्कृति से परिचित हो सकें।
प्रो श्रीलक्ष्मी ने अपने प्रपत्र ‘तेलंगाना के तेलुगु साहित्यकारों का हिंदी साहित्य में योगदान’ विषय पर प्रस्तुत करते हुए कहा कि भौगोलिक स्थिति के कारण अन्य दक्षिण भारतीय भाषाएं हिन्दी के अधिक निकट है। सर्जनात्मक साहित्य मूलतः आनंद का भाव होता है इसका अनुवाद नहीं पुनः सर्जन होता है। साहित्य के विकास में प्रमुख भूमिका अनुवाद की रही है। हिन्दी और तेलुगु का भारतीय साहित्य में प्रमुख स्थान है। साहित्य समाज का दर्पण है अतः समाज और साहित्य दोनों के लिए साहित्यकार को निष्पक्ष भाव से सेवा करना पड़ता है। विभिन्न अनुवादकों की चर्चा करते हुए उन्होंने आधुनिक तेलंगाना के अनुवादक प्रो नरसिम्हा चारी, प्रो निखिलेश्वर, डॉ टी बसंता, डॉ शकुंतला रेड्डी आदि के अनुवाद एवं मौलिक रचनाओं के द्वारा हिन्दी साहित्य में योगदान को रेखांकित किया।
श्रीमती शुभ्रा महंतों के द्वारा सुमधुर निराला रचित सरस्वती वंदना से कार्यक्रम का आरंभ हुआ। संचालक प्रवीण प्रणव ने सभा को संबोधित करते हुए कार्यक्रम में सभी उपस्थित सदस्यों को आमंत्रित किया। संस्थापक अध्यक्ष डॉ अहिल्या मिश्र ने सभी का स्वागत करते हुए मुख्य एवं विशिष्ट वक्ता का परिचय पटल पर रखा एवं हिंदी साहित्य में दक्षिण के साहित्यकारों के योगदान की भूमिका प्रस्तुत करते हुए शातवाहना साम्राज्य से लेकर भारतीय आर्यभाषा, प्राकृत एवं खड़ी बोली के दक्षिण में विकास एवं हिंदी साहित्य में इसके प्रभाव पर अपने विचार रखे।
संगोष्ठी संयोजक श्री अवधेश कुमार सिन्हा ने कार्यक्रम की पूर्वपीठिका देते हुए दक्षिण में खड़ी बोली एवं दक्षिणी हिन्दी का विकास मुगल काल व निजाम के समय से बताया और दक्षिण तथा उत्तर के भाषायी संबंधों को उजागर किया। डॉ सुमनलता ने अनुवाद के साथ तेलुगु साहित्यकारों की मौलिक रचना को हिन्दी साहित्य में विशेष योगदान बताया। उन्होंने कहा कि आधुनिक काल के अल्लुरी वैरागी तेलुगु भाषी हैं परंतु हिन्दी में सशक्त कविताएं लिखी हैं। भक्ति काल के कवि अन्वाचारी की सात पीढ़ी कवि लेखक एवं गायक रहकर भाषा की सेवा की। श्री जी परमेश्वर ने अध्यक्षीय टिप्पणी देते हुए कहा कि आज के कार्यक्रम में बहुत सारी बातें जानने को मिली, हमारे लिए यह मार्गदर्शन है। उन्होंने विषय की विशालता को देखते हुए समयाभाव अनुभव किया और हिन्दी साहित्य के योगदान में आधुनिक रचनाकारों को भी अहम माना।
गोष्ठी के दूसरे सत्र में दिल्ली से जुड़ीं साहित्यकार एवं अनुगूँज की संस्थापक निवेदिता चक्रवर्ती की अध्यक्षता में विशेष अतिथि डॉ सुमनलता के साथ पटल पर उपस्थित सदस्य चंद्रप्रकाश दायमा, भावना पुरोहित, तृप्ति मिश्रा, शिल्पी भटनागर, अवधेश कुमार सिन्हा, विनोद गिरी अनोखा, किरण सिंह, संतोष ‘रज़ा’, दर्शन सिंह, जी परमेशवर, डॉ आशा मिश्रा, अवधेश कुमार सिन्हा, विनोदिनी गोएनका, प्रवीण प्रणव एवं डॉ अहिल्या मिश्र ने काव्यपाठ किया।
सी जयश्री, डॉ सविता सिन्हा एवं अन्य कई लोगों ने श्रोता के रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज करवाई। श्रीमती शिल्पी भटनागर के आत्मीय आभार प्रदर्शन के साथ संगोष्ठी एवं काव्यगोष्ठी का समापन हुआ। साहित्यकार डॉ मुरलीधर गुप्ता एवं क्लब के सदस्य भँवरलाल उपाध्याय की पत्नी राजूबाई उपाध्याय के स्वर्गारोहण पर दो मिनट का मौन रख उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित की गई।
