हैदराबाद: आषाढ़ (आषाढ़ माह) जब भी आये तो हमें बोनालु की याद आती है। बोनालु उत्सव को हर साल हैदराबाद में भव्य रूप से मनाया जाता है। इस बार गोलकोंडा बोनालु 22 जून को शुरू हुआ। ये तीन दिनों तक आयोजित किया जाएगा। बोनम (Bonam) शब्द भोजन का अपभ्रंश है। न केवल हमारे बच्चे और परिवार के सदस्य, बल्कि पूरे गाँव पर करुणा, दया और सुख शांति प्रदान करने के लिए देवी माता को भक्तिपूर्वक चढ़ाते हैं। लोगों का मानना है कि आषाढ़ माह में देवी मा ससुराल से मायके आती है।
इसलिए इस त्यौहार का मुख्य उद्देश्य बोनम पकाना और देवी माता को अर्पित करना होता है। इसीलिए लोग देवी माता को प्यार से बोनम चढ़ाते हैं। यह सोचकर कि उनकी बेटी घर आई है। इसके पीछे एक वैज्ञानिक कारण है। आषाढ़ माह में वर्षा प्रारंभ होती है। बरसात का मौसम शुरू होते ही अनेक बीमारियाँ आती/फैलती हैं। यह सब बीमारियां उनके बच्चों को संक्रमित ना हो या ना आये मानकर देवी माता को बोनम चढ़ाते है।
देवी माता से प्रार्थना
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बोनम के रूप में मिट्टी के बर्तन को हल्दी से लेप दिया जाता है और पूरी नीम की पत्तियों बांध दिया जाता है। ऐसा करने से बैक्टीरिया और वायरस नष्ट हो जाते हैं। एल्लम्मा, मैसम्मा, पोचम्मा, मुत्यालम्मा, पेद्दम्मा नाम चाहे कुछ भी हो हर गांव के लोग पूरे परिवार पर दया करने के लिए शक्तिस्वरूप मानी जाने वाली देवी माता की पूजा करते हैं। देवी माता से प्रार्थना करते है कि हर संकट और मुसीबतों से बचाये रखे। इस तरह ग्राम देवताओं को पूजने का अवसर ही बोनम है।
बोनम पूरे साल भार अर्पित किये जाते हैं
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गोलकोंडा किले में शुरू होकर श्रावण तक बोनालु उत्सव चलता है। जिन श्रद्धालुओं के पास मन्नते होते है वे सामान्य दिनों में भी बोनाम भेंट चढ़ाते हैं। बेटी के विवाह के दौरान लड़की के रिश्तेदार नई दुल्हन के साथ बोनम चढ़ाते हैं। व्यवसाय में लाभ मिलने और बीमारियों से ठीक होने पर भी देवी माता को बोनम चढ़ाते है। यह बोनम पूरे साल रविवार और मंगलवार को अर्पित किये जाते हैं। इसके अलावा खेत में फसल, आंगन में फसल आने और घर की रक्षा करने वाली देवी माता का एक छोटा सा मंदिर बनाकर साल में एक बार बोनम चढ़ाने की भी प्रथा है।
उज्जैन महाकाली मंदिर का एक इतिहास
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सिकंदराबाद के उज्जैन महाकाली मंदिर का एक इतिहास है। ब्रिटिश शासन के दौरान इस क्षेत्र के मूल निवासी सुरटी अप्पय्या को ब्रिटिश साम्राज्य में शामिल होने के बाद वर्ष 1813 में मध्य प्रदेश के उज्जैन में स्थानांतरित कर दिया गया था। तभी भाग्यनगर में प्लेग से हजारों लोगों की मौत हो गई। यह जानने के बाद अप्पय्या अपने साथियों के साथ उज्जैन के देवी माता मंदिर गए और लोगों को महामारी से बचाने के लिए प्रार्थना की। यदि प्लेग शांत हो गया तो देवी माता को उज्जैनी मंदिर बनवाने की मन्नत मांगी। तब ही प्लेग रोग शांत हुआ। इसके बाद 1815 में वह शहर लौट आए और देवी माता की मूर्ति स्थापित की और मंदिर का निर्माण किया। तब से आषाढ़ बोनालु उत्सव चल रहा है।
देवी माता का वास
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पहले इस त्यौहार पर बुरी आत्माओं को दूर रखने के लिए मंदिर परिसर में भैंस की बलि दी जाती थी। आज कल भैंस के बदले मुर्गों की बलि देने का रिवाज बन गया है। ‘पुनकम’ आने वाली कुछ महिलाएं अपने सिर पर बोनम रखती हैं और देवी की याद में ढोल की लयबद्ध थाप पर नृत्य करती हैं। ऐसा माना जाता है कि जो महिलाएं बोनम लेती है उन पर देवी माता का वास होता है।
महाकाली रौद्र रूप का प्रतीक है
चूँकि महाकाली रौद्र रूप का प्रतीक है। इसीलिए देवी माता को शांत करने के लिए मंदिर के पास आते ही महिलाओं के पैर पानी से धोते है। उनकी भक्ति के प्रतीक के रूप में एक झूला (कागज या छड़ी से बनी एक छोटी रंगीन वस्तु) चढ़ाने की प्रथा है। चूंकि बोनालू उत्सव देवी माता को प्रसाद चढ़ाने का त्योहार है। इसलिए मेहमानों के साथ-साथ परिवार के सदस्य भी प्रसाद ग्रहण करते हैं। इसके बाद शुरू होता है मांसाहारी भोजन।
सात बहनों को बोनम
जिन इलाकों में बोनालु उत्सव होता है, वहां पर नीम के पत्तों से बने तोरण दिखाई देते हैं। एक के बाद एक मंदिर में बोनालु उत्सव आयोजित करने का भी एक पैटर्न है। आषाढ़ जातरा गोलकुंडा किले में महाकाली मंदिर से शुरू होती है। इसकी शुरुआत आषाढ़ महीने के पहले गुरुवार या रविवार को होती है। उसके बाद हर अगले रविवार और गुरुवार को बोनालु जातरा आयोजित की जाती है। प्रत्येक क्षेत्र में सात बहनें होती हैं। गोलकोंडा बोनालु के दिन, गोलकोंडा क्षेत्र की उन सात बहनों को बोनम दिया जाता है। गोलकोंडा बोनाम गोलकोंडा के आसपास के कारवान, धूलपेट, पत्थरघट्टी, रायदुर्गम तक मनाया जाता है।
लश्कर बोनालु शहर को एकजुट करता है
गोलकोंडा महाकाली माता देवी बोनालु का उज्जैन महाकाली का इंतजार करती है। गोलकोंडा में बोनालु के बाद अगले रविवार को लश्कर में उज्जैन महाकाली मंदिर में बोनालु उत्सव मनाया जाता है। उसी दिन लश्कर में सातों बहनों के सभी मंदिरों में बोनालु जातरा का आयोजन बड़े धूमधाम से मनाया जाता है। सिकंदराबाद, छावनी, मौलाली, ईसीआईएल के आस-पास के इलाकों में लश्कर बोनालु का आयोजन किया जाता है। तोट्टेला शोभायात्रा, पोतराजू के नृत्य, शिवसत्सों के पुनकालू के साथ लश्कर बोनालु शहर को एकजुट करता है।
लालदरवाजा बोनालु उत्सव
उज्जैन महाकाली देवी माता के बोनालु का लालदरवाजा इंतजार करता है। लालदरवाजा बोनालु उत्सव के दिन पुराने शहर की सात बहनों को बोनालु अर्पित किया जाता है। पुराने शहर की सड़कें पर पोतराजों के नृत्यों देखते ही बनती हैं। बोनम लिये महिलाओं को देखकर लगता है किसी नदी का प्रवाह बह रहा है।
बोनालु उत्सव में महत्वपूर्ण कड़ियां इस प्रकार है-
पोतराजू
पोतराजू देवी माता का भाई है। बोनालु के समय पोतराजू पूरे त्योहार को आकर्षत करता है। पोतराजू की भूमिका निभाने वाला व्यक्ति बलवान होता है। उसका शरीर हल्दी से लेप दिया जाता है। माथे पर केसर (कुंकुम) होता है, पैरों में घुंघरू होते हैं, छोटी लाल धोती पहनता है और ढोल की धुन पर नृत्य करता है। वह भक्तों की भीड़ के सामने डांस करता है। पोतराजू को पूजा कार्यक्रमों के आरंभकर्ता और भक्त समुदाय के रक्षक के रूप में माना जाता है। वह कोड़ों से वार करता है। कमर के चारों ओर नीम के पत्ते लपेटे होते है। वह महिला भक्तों को देवी माता के मंदिर में दर्शन के लिए ले जाता है।
घट (घटम)
देवी के आकार में सजाए गए तांबे कलश को घटम कहा जाता है। इस घटम को पारंपरिक पोशाक में पीली पगड़ी पहने एक पुजारी लेकर जाता है। उत्सव के पहले दिन से लेकर अंतिम दिन यानी विसर्जन तक इस घटम की परेड ढोल-नगाड़ों के साथ निकाली जाती है। रंगम के बाद घटम उत्सव होता है।
रंगम
यह उत्सव के बोनालु के अगले दिन की सुबह होता है। एक महिला मिट्टी के बर्तन के ऊपर खड़ी होकर देवी महाकाली को आह्वान करती है। वह भविष्य के बारे में पूछने वाले भक्तों को बताती है कि आने वाला साल कैसे और क्या होने वाला है। यह सब जुलूस के सामने होता है। श्री उज्जैन महाकाली देवस्थानम और सिकंदराबाद के अन्य प्रमुख मंदिर छठवीं पीढ़ी की रंगम (भविष्यवाणी) मातंगी कुमारी येरुवला स्वर्णलता सुनाती हैं। श्रद्धालु भविष्यवाणी सुनने का इंतजार करते हैं। इसके बाद लालदरवाजा बोनालु का रंगम (भविष्यवाणी) होता है। मातंगी अनुराधा भविष्यवाणी सुनाती है।