[स्वतंत्रता सेनानी पंडित गंगाराम स्मारक मंच ने 15 सितंबर 2022 को विविध क्षेत्रों में अपनी सेवाएं प्रदान करने वाले 15 मान्यवरों और छात्रों को राज्यपाल बंडारू दत्तात्रेय जी के हाथों से सेवारत्न पुरस्कार 2022 से सम्मानित किया। इसी क्रम में मंच के अध्यक्ष भक्तराम जी ने हैदराबाद में निजाम शासन के खिलाफ लड़ने और आर्य समाज के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले ‘सेनानियों’ का जल्द ही बड़े पैमाने पर सम्मान करने का फैसला लिया है। इसकी तैयारियां भी शुरू कर दी है। साथ ही फरवरी में पंडित गंगाराम जी के जन्म दिन और संस्मरण दिवस पर भी अनेक कार्यक्रम करने का निर्णय लिया है। इसीलिए निजाम के खिलाफ लड़ने और आर्य समाज के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले पंडित गंगाराम जी के योगदान के बारे में विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित सामग्री को ‘तेलंगाना समाचार’ में फिर से प्रकाशित करने का संकल्प लिया है। प्रकाशित करने का मकसद इतिहासकारों, शोधकर्ताओं और आने वाली पीढ़ी को निजाम खिलाफ लड़ने और आर्य समाज के विकास में योगदान देने वालों के बारे में सही जानकारी देना मात्र है। यदि कोई पाठक प्रकाशित सामग्री पर अपने विचार व्यक्त करना चाहते है तो telanganasamachar1@gmail.com
पर फोटो के साथ भेज सकते है। प्राप्त सामग्री को भी प्रकाशित किया जाएगा। क्योंकि ऐसे अनेक लोग हैं जो निजाम के खिलाफ लड़े है, मगर किसी कारणवश उनके नाम नदारद है। हम ऐसे लोगों के बारे में छापने में गर्व महसूस करते है। विश्वास है पाठकों को यह सामग्री उपयोगी साबित होगी।]
स्वर्गीय पंडित गंगाराम जी वानप्रस्थी का 15 साल पहले प्राध्यापक डॉ कुशलदेव शास्त्री जी, पुणे (महाराष्ट्र) निवासी को दिया गया साक्षात्कार और ‘परोपकारी’ (संपादक- डॉ धर्मवीर अजमेर, राजस्थान) के अगस्त 2007 अंक में प्रकाशित लेख।
प्रश्न- ‘नौआखली’ के अकाल और सांप्रदायिक दंगों के समय आपने जो सहायता कार्य किया, तत्संबंधी कुछ संस्मरण सुनाइए?
उत्तर- यहां काम करते समय मछली की गंध से युक्त पानी होने के कारण हमें काफी परेशानी होती थी। इस परेशानी से छुटकारा पाने के लिए आर्य समाजियों ने एक नया बोर खोदा था। प्रायः हम लोग हैंडपंप से उसी का पानी पीते थे। मुस्लिम लीग ने उन दिनों ‘डायरेक्ट एक्शन’ लिया था, उनका यह हठ था कि पाकिस्तान बनाने के लिए मुस्लिम बहुल हिस्से उन्हें मिलें। इसी ख्याल से उन्होंने उन दिनों मुस्लिम आबादी वाले क्षेत्र से हिन्दुओं को निकाल दिया। उनसे यहां तक कहा कि ‘या तो सब मुसलमान बन जाओ, वरना यहां से भाग जाओ।’ ऐसी स्थिति में वहां की हिंदू प्रजा की सेवा के लिए निजाम राज्य आर्य प्रतिनिधि सभा-हैदराबाद के मंत्री पद पर होते हुए भी मैं नौआखली पहुँच गया था। वहां हमने देखा कि मुस्लिम लीग के ‘वालेंटीयर्स’ पांच सौ – छः सौ हिंदुओं को आतंकित कर मैदान में ले जा रहें हैं। सुबह पांच बजे से सबको नमाज अदा करने के सबक सिखा रहे हैं और बारह बजे वापिस लाकर छोड़ रहे हैं।’ हम लगभग दस महीने नौआखली में रहे। वहां पर लगभग मैं दस कैंपों का संचालक था। मुझे नौआखली की ‘बंगाल-आसाम आर्य समाज रिलीफ सोसाइटी’ का महामंत्री भी बना दिया गया था। हमने वहां देखा कि हिंदुओं को जबरदस्ती मुसलमान बनाया जा रहा है। जो सम्पन्न – विद्वान लोग थे, वे काशी आदि स्थानों पर चले गये। जो गरीब लोग थे, आखिर वे कहां जाते? शुरुआत में वहां हमारे काम का विरोध हुआ। हम जब वहां पीड़ित और असहाय लोगों को अन्न और कपड़ा बांटते तो हम पर हमला होता, कहते कि ‘तुम लोग बाहर से आकर ये बस क्या कर रहे हो? हमारे साथ भी राजस्थान प्रांतीय ‘अलवर आर्यवीर दल’ के सात-आठ कार्यकर्त्ता थे। हम ईंट का जवाब पत्थर से देने के लिए तैयार थे। हमने कहा, ‘हमारे लोगों को हाथ नहीं लगाना, यदि हाथ लगाया तो हम आपको छोड़ेंगे नहीं और अच्छा सबक सिखायेंगे।’
प्रश्न- नौआखली में आपके सेवा कार्य का और कैसा स्वरूप रहा?
उत्तर– नौआखली जिले की राजधानी चौमोहानी नामक स्थान पर ‘केपिटल रेल्वे लाइन’ खत्म होती थी, वहीं पानी के जहाज का भी स्टेशन था। रेल से उतरकर जहाज से जहां भी जाना हो, जा सकते थे। जब हम ‘चौमोहानी’ पहुंचे तो रात के लगभग डेढ़ बजे होंगे। जहाज से खुशहालचंद ‘खुरसंद’ (महात्मा आनन्द स्वामी जी) पधारे और उन्होंने कहा कि ‘भाई! यहाँ का चार्ज तुम संभाल लो, मैं पंजाब की स्थिति संभालने जा रहा हूं। उनके आदेश पर मैंने जिम्मेदारी के साथ सेवा कार्य संभाल लिया। हैदराबाद से हम इसी उद्देश्य से ही आये थे।’ नौआखली में हमने दो ढंग के कार्य किये- एक तो वहां की हिंदू प्रजा में आत्मबल बढ़ाया और पीड़ितों को भोजन – वस्त्र आदि सप्लाय किया। हैदराबाद के भाइयों ने नौआखली में सहायता कार्य करने हेतु हमें पच्चीस हजार रुपए एकत्रित करके दिये थे, जो कि हमने वहां के पीड़ित, अनाथ, पद दलितों की सेवा में अर्पित कर दिये। उन दिनों हम उन्हें सांप्रदायिक आक्रमणों से बचाने के लिए प्रशिक्षित भी करते थे। हम उन दिनों नौआखली में ही बसे रहने के लिए हिम्मत देते थे।
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प्रश्न- क्या आपके इन कार्यों की पृष्ठ भूमि में महात्मा गांधी जी की प्रेरणा थी?
उत्तर– गांधी जी का अलग कैंप था और हमारा आर्य समाज का अलग। मुझसे पहले लाला खुशहालचंद जी आर्य समाज के कैंप के इंचार्ज थे। लेकिन जैसे ही पंजाब में गड़बड़ शुरू हुई तो उन्होंने वहां जाना चाहा। बस उसी समय मैं हैदराबाद वारंट से बच-बचाकर नौआखली पहुंच गया। पच्चीस हजार साथ लाया ही था। यहां आने पर मैंने अनुभव किया कि पैसों की अब यहां आवश्यकता नहीं है। आवश्यकता है तो निष्ठावान कार्यकर्ताओं की और यहां की स्थिति से पूरे देश की जनता को ‘वाकिफ’ करने की। हैदराबाद के पं. कृष्णदत्त जी के पास मैंने नौआखली की स्थिति का आंखों देखा हाल और कच्चा चिट्ठा (लिखित विवरण) भेज दिया।
प्रश्न- महात्मा गांधी जी से आपकी सर्वप्रथम भेंट कब और कैसे हुई?
उत्तर– आभा गांधी, कानो गांधी, ठक्कर बप्पा आदि हमारे सेवा केन्द्र में ही रहते थे। शिवरात्रि पर ये सब उपवास करते थे। उपवास करने वालों में उन्होंने मुझे भी शरीक कर लिया। गांधी जी ने उपवास के समय हमें बादाम और खजूर दिये। वे खजूर कुछ विशेष थे, खाते समय कुछ अलग ही आनन्द आया। तब से आज तक फिर वैसे खजूर नहीं मिले। वे खजूर गांधी जी को बिरला जी ‘सप्लाय’ करते थे। मैं उपवास नहीं करता था, पर उन्होंने मुझे उपवास करने वालों में शामिल कर लिया था। तत्पश्चात् एक बार ठक्कर बप्पा ने गांधी जी तक पहुंचाने के लिये एक चिट्टी दी थी। हमारी भी गांधी जी से मिलने की इच्छा थी। हमारे केन्द्र से गांधी जी का निवास स्थान दो मील पर था। जाने का रास्ता बहुत ही कच्चा था। मिट्टी के चप्पल से चिपक जाने के कारण चलते-चलते पैर भी टेढ़े पड़ने लगते थे। पैरों में सूजन आ जाती थी। हम तो जवान थे, पर बंसीलाल जी व्यास के पैर सूज गये थे, जिससे उन्हें काफी तकलीफ हो रही थी। ऐसे ही खेतों के रास्ते से हम उन तक पहुंचे थे। कुटिया पर पहुंचने के बाद गांधी जी ने हमसे कहा- “अब रात में कहीं मत जाइए, मेरे साथ ही ठहरिये।” हमने कहा, ‘आप चिंता न करें, हम और कहीं रात गुजार लेंगे।’ इस पर उन्होंने पूछा, ‘गरम कपड़े हैं?’ व्यास जी ने प्रत्युत्तर दिया- ‘मारवाड़ी कंबल है।’
गांधी के ‘नौआखली’ दौरे के सचिव श्री निर्मल कुमार बोस नामक किसी कॉलेज विशेष के प्रोफेसर थे। महात्मा गांधी जी ने उन्हें कहकर हमारी रात भर की सोने की व्यवस्था एक ‘शेड़’ में की। उस ‘शेड़’ में हम रात भर सोये थे। गांधी जी की बकरी भी वहीं बंधी हुई थी। रात के दो बजे हम जाड़े के कारण उठे तो एक खिड़की में गांधी जी को कुछ पढते देखा। दो से पांच बजे तक जब-जब भी हमारी नींद खुली तो लालटेन के प्रकाश में गांधी जी को हमने काम करते देखा। वे शाम आठ बजे सोकर रात के दो बजे उठ जाते थे। इस समय प्रायः वे कनाड़ा – लंदन आदि के ‘इंटरनेशनल फिगर्स’ के व्यक्तियों के पत्रों के जवाब देते थे, या पार्लियामेंट आदि की दृष्टि से कोई ‘रिज्योल्युशन’ लिखते बैठते थे, या किसी किताब पर अपनी राय देते थे। गांधी जी की तरह विनोबा भी शाम आठ बजे सोते और रात दो बजे उठ जाते थे।
गांधी जी कुटिया में सुबह पांच बजे प्रार्थना सभा होती थी। उन दिनों उस सभा में हमारे अतिरिक्त, सेक्रेटरी निर्मल कुमार बोस, आश्रमवासी तथा अनेक समाचार पत्रों के ‘रिपोर्टस’ हाजिर रहते थे। एक दिन की प्रार्थना सभा में ‘रिपोर्टर्स’ की उपस्थिति में गांधी जी ने कहा, ये जवाहरलाल बार-बार पत्र लिखते रहते हैं कि ‘या तो चरखा चला लो, या गवर्नमेंट चला लो’, तो मैंने आज उन्हें लिख दिया कि, ‘तुम जब तब इस योग्य ना हो जाओ कि दोनों चला सको, तबतक चरखा तुम मत चलाओ, गवर्नमेंट ही चलाओ।’ इस पर निर्मल कुमार बोस से मैंने पूछा कि ऐसी छूट इससे पहिले क्यों नहीं दिये? बोस ने बताया कि पहिले दिन से ही जवाहरलाल जी के लिए सूत कातने का समय निकालते-निकालते जब आधा घण्टा समय देने योग्य हुए तो वह घोषणा कर दी।
प्रश्न- अच्छा, अब आप वह प्रसंग बताइए जो आपसे और गांधी जी से संबंधित हो?
उत्तर– सुबह की एक प्रार्थना सभा में हमारा गांधी जी से घनिष्ठ परिचय हुआ था। हमारा कुशल – क्षेम पूछने के बाद उन्होंने स्टेट कांग्रेस के नेता श्री काशीनाथराव वैद्य के बारे में पूछताछ की। हमने कहा, ‘ये अच्छे हैं, उन्होंने न्यायमूर्ति केशवराव कोरटकर की जीवनी भी लिखी है।’ गांधी जी ने तत्पश्चात् आर्य समाज संगठन के विषय में जिज्ञासा व्यक्त की। मैंने उन्हें बताया कि ‘मैं निज़ाम राज्य आर्य प्रतिनिधि सभा का मंत्री हूं। हैदराबाद रियासत की सभी आर्य समाजें इसी सभा के अंतर्गत कार्यरत हैं।’ अकस्मात् उन्होंने बातचीत के बीच में पूछा कि ‘ क्या आप कि शादी हुई है?’ इतना बड़ा आदमी यह बात भी पूछेगा इसकी मुझे आशा नहीं थी। मैंने जवाब देते हुए कहा, ‘मैं सोच रहा हूं, बिना शादी के ही रहूं।’ उन्होंने कहा, ‘अगर रह सको तो इससे क्या अच्छा है।’ यह सुनते ही मेरे पैर तले की जमीन खिसक गई। कांग्रेस के वातावरण की तुलना में आर्य समाज के वातावरण में स्त्री-पुरुष का मेल-मिलाप कम था। हम स्त्री से बातचीत करते भी झिझकते थे। इस झिझक-घबराहट का विचार आते ही मैंने निश्चय कर लिया कि, ‘मैं विवाह जरूर कर लूंगा।’
प्रश्न- यह प्रतिक्रिया तो आपके संकल्प के विपरीत हुई?
उत्तर– हां, हैदराबाद लौटने के बाद जब मैंने अपने मित्रों से कहा, ‘भई, मुझे शादी करनी है, तो वे आश्चर्य से देखने लगे। खैर। गांधी जी कम शब्दों में सारगर्भित शैली में, अपनी सारी बातें कहते थे। यह विशेषता सामान्य व्यक्तियों में नहीं होती। इसके बाद उन्होंने कुंवर सुखलाल आर्य मुसाफिर के विषय में पूछताछ की। उनका कुशल-मंगल जाना। आर्य मुसाफिर आर्य समाज के सुप्रसिद्ध भजनोपदेशक थे। 1938-39 के हैदराबाद सत्याग्रह में उन्होंने निजाम रियासत की जेल भी भोगी थी। उसके बाद पं. बंसीलाल जी व्यास द्वारा प्रार्थना सभा में गाया गीत गांधी जी ने फिर से सुनना चाहा। वह गीत गांधी जी को बहुत पसंद आया था। स्वयं व्यास जी द्वारा रचित और प्रार्थना सभा में गाया गीत निम्न प्रकार था-
ओ३म बोल मेरी रसना घड़ी घड़ी। सकल काम तज, ओ३म् नाम भज, मुख मंडल में पड़ी – पड़ी।।१ ।।
ओ३म् नाम सर्वोपरि प्रभु का। कहे वेद की कड़ी – कड़ी ।।२।।
तन-मन से कर ध्यान प्रभु का। लगा प्रेम की झड़ी – झड़ी ॥३॥
पूरण ब्रह्म करेगा तेरी। सब आशाएँ बड़ी – बड़ी ॥४॥
पल-पल हमें ले जाना चाहती। मौत सिरहाने खड़ी – खड़ी ।।५।।
मोह ममता तज व्यास लगा ले। ओ३म भजन की लड़ी – लड़ी।।६।।
पं. बंसीलाल जी व्यास ने नोआखली में महात्मा गांधी जी के अनुरोध पर उपरोक्त पूरा भक्ति गीत तल्लीनता के साथ सुनाया। व्यास जी ने भी 23 जून 1939 को पन्द्रह आर्य सत्याग्रहियों के नेतृत्व में हैदराबाद सत्याग्रह में भाग लिया था। आपने हैदराबाद के गांव – गांव में घूमकर ‘मेजिक लालटेन’ के चित्रों द्वारा निजामी आतंक के विरुद्ध जन-जागरण भी किया था। आपका ‘जड़चर्ला ‘ (महबूब नगर) ट्रेन दुर्घटना में असामयिक निधन हो गया था। ‘नौआखली’ और हैदराबाद मुक्ति संग्राम काल के संकट कालीन दिनों के हम सहयात्री थे। नोआखली के जरूरतमंदों को अन्न-वस्त्र की आपूर्ति कर सांप्रदायिक विद्वेष की अग्नि को शांत करने की दृष्टि से हम वहाँ गये थे।
प्रश्न- गांधी जी से संबंधित अन्य कोई संस्मरण याद हो तो बतलाइए?
उत्तर– हां, सुनिए! जब हम पहली बार उनके आश्रम के पास गये, तो देखा एक भी आदमी उनके पास नहीं है। तब मेरे मन में आया कि, ‘अरे भाई। गांधी जी की कीर्ति तो बहुत है, पर उनकी तुलना में तो हमारे अन्य जन नेता अधिक लोकप्रिय हैं। जिनके आस – पास लोगों की भीड़ जमी रहती है। यहां तो कुछ भी नहीं है। थोड़ी देर के बाद मैं देखता हूं कि बड़े-बड़े कैमरे लेकर जंगल से कुछ लोग आ रहें हैं, जैसे कि फिल्मी सूटिंग के अवसर पर आते दिखाई देते हैं। दर असल क्या था, वे हरेक को समय देते थे, मिलने और मुलाकात करने का समय भी निश्चित होता था। विदेशी पत्रकारों का समय भी सुनिश्चित होता था। आस्ट्रेलिया, अमेरिका, कनाडा, ब्रिटेन की बड़ी-बड़ी एजेंसी वालों का भी समय बंटा हुआ था। उसके बाद आम जनता से मिलने का भी समय होता था। प्रायः वे खाना खाते वक्त आम जनता से मिलते थे। खाने में एक या दो फुलके होते थे, पास में एक कांच का छोटा-सा गिलास रखा रहता था, जिसमें बकरी का दूध होता था। एक ओर अच्छी साफ धोयी हुई मूली रहती थी। थोड़ा-सा उबला हुआ पालक होता था। बस ये सब खाते रहते थे और लोगों द्वारा पूछे गये सवालों के जवाद देते रहते थे। भोजन के बीच में ही उन्होंने शांति कमेटी के अध्यक्ष से कहा, ‘किस वजह से वहां पर शांति नहीं हो रही, तुम उस व्यक्ति से इस बारे में बात क्यों नहीं करते? इस पर शांति कमेटी के अध्यक्ष ने गांधी जो से कहा, ‘साहब, वह आपसे मिलना नहीं चाहता, उसका कहना था कि, ‘जो कोई आपसे मिलता है, आप उसे अपने विचार वाला बना लेते हैं’ इस पर गांधी जी ने कहा, ‘अगर उसे मेरे विचार ठीक नहीं लगते तो उसे उनका खंडन करना चाहिये।’ प्रतिक्रिया देते हुए शांति समिति के अध्यक्ष ने बतलाया, वह एक शर्त पर आपसे मिलने के लिए तैयार है, वह यह कि उसके आपकी ओर आने पर, यदि उसे गवर्नमेंट गिरफ्तार करे, तो आपको उसे छुड़ाने का वायदा करना होगा। यह सुनते ही गांधी जी ने कहा, मैं उस विषय में कुछ नहीं कर सकता, मैं तो उससे इतना ही कहूंगा कि ‘सजा मिलती है तो भुगत लेनी चाहिये।’ इस प्रकार गांधी जी भरी सभा में खाते-खाते बातें करते थे और जवाब भी देते जाते थे।
प्रश्न – गांधी जी के हिंसा – अहिंसा विषयक दृष्टिकोण के संदर्भ में आपकी क्या राय है?
उत्तर– नौआखली में हमने आतंक, अकाल और हिंसा का जो तांडव नृत्य देखा, उसके आधार पर आंखों देखा रक्तरंजित इतिहास लिखने का मैंने विचार किया था। बहुत सारी सामग्री मैंने इकट्ठी कर ली थी। मेरा होल्डॉल कागजी कटिंगों से भर गया था और कागजों के कारण वह इतना गरम हो गया था कि उस पर सोना भी कठिन होता था। ठक्कर बाप्पा और आबा गांधी के पिता आदि ने ‘नौआखली का रक्तरंजित इतिहास’ लिखने की अनुमति दी, पर इस विषय में उन्होंने मुझे गांधी जी से भी सलाह करने का सुझाव दिया। मैं जब बापू से सलाह मांगने गया तो मेरे साथ शांति निकेतन के चांसलर भी थे। वे कुछ समय तक मेरे ही होस्टल में ठहरे थे, पर अब मुझे उनका नाम याद नहीं आ रहा है। नौआखली में आर्य समाज के अतिरिक्त महात्मा गांधी और रामकृष्ण मिशन का सेवा कार्य बड़ा सिस्टमैटिक था। फिर भी रामकृष्ण मठ वालों के संपर्क से मैं थोड़ा दूर ही रहना पसंद करता था, उसका एक कारण यह भी था कि मठ वालों के हाथ में आरती- पूजा करते समय भी मुझे सिगरेट दिखाई देती थी। इसलिए भी मठ वालों की तुलना में गांधी जी से मिलने की मेरी बहुत इच्छा रहती थी। खैर, गांधी जी की कुटिया पर पहुंचकर मैंने उनसे ‘नौआखली का रक्तरंजित इतिहास’ लिखने की अनुमति चाही। उन्हें मैंने बताया कि इस विषय में मैंने बहुत सारी सामग्री इकट्ठी की है। अखबारों की कटिंग्स और शरच्चन्द्र घोष आदि के ‘स्टेटमेंट्स’ भी जमा कर लिये। यह सब सुनकर गांधी जी बोले “ये सब काहे को लिखते हो, यह हिंसा बढ़ाने की चीज है, बेकार है।” इतने बड़े आदमी द्वारा मेरे उत्साह से स्वीकार किये गए कार्य को बेकार कहते ही मैं ठंडा पड़ गया। तत्पक्षात् कुछ क्षण बीतने पर गांधी जी ने कहा, ‘बिहार के सुप्रसिद्ध कांग्रेसी नेता, जिन्होंने मस्जिदों में मदरसे चलाये, डॉ सैयद महमूद ने अपने पत्र में लिखा है, “नोआखली से बिहार की स्थिति ज्यादा बदतर हो गई है। वे शांति मिशन की आवश्यकता बिहार में ज्यादा महसूस कर रहे हैं। उनके निमंत्रण पर निमंत्रण आ रहें हैं। अत: तुम अब बिहार जाओ, तुम्हारे सेवा कार्यों की अब बिहार में ज्यादा जरूरत है। गांधी जी की आज्ञा शिरोधार्य कर मैं बिहार चला गया। वहां पर लगभग दो महिने तक सेवा कार्य करता रहा। मेरे सहयात्री पं. बंसीलाल जी व्यास नौआखली से ही हैदराबाद लौट आये। उनके साथ नौआखली से दो अनाथ बच्चे भी आये थे, जिन्हें उन्होंने अपने द्वारा संचालित ‘गुरुकुल घटकेश्वर’ में प्रविष्ट करा दिया था।
प्रश्न- नौआखली – बिहार से लौटने के बाद आपको हैदराबाद रियासत का स्वरूप कैसा नजर आया?
उत्तर– रजाकारों ने हैदराबाद रियासत में कुछ ऐसा वातावरण उत्पन्न कर दिया था कि यहां के हिन्दू अपना घर-बार छोड़कर बाहर चले जाये और रियासत के बाहर के मुसलमान यहां आ बसें। लगभग तेरह लाख हिंदू यहां से चले गये थे और बारह लाख मुसलमान यहां लाकर बसाये गए थे। रियासत में सरकार निजाम की थी, पर दबदबा रजाकारों का था। उनकी ‘पॉलिसी’ बाहर के लोगों को यहां बसाने और यहां के लोगों को सताने- भगाने की थी। गरीब-अमीर हिन्दुओं के घरों में घुसकर लूटमार की जाती थी। उन दिनों आर्यसमाज ने अपने प्रतिबंधात्मक उपायों द्वारा पीड़ितों को अपनी छत्रछाया दी। शरणार्थियों के लिए अन्नक्षेत्र खोले। स्टेशन के बाहर या अन्यत्र सोना-चांदी लूटने वाले गुंडों के साथ अपनी जान की परवाह न करते हुए दो हाथ किये। यथासंभव शस्त्रों का मुकाबला शस्त्रों से और हिंसा का मुकाबला प्रतिहिंसा से देकर सामान्य जनता को धीरज दिलाने का प्रयास किया। वस्तुतः सरदार पटेल की सेनाओं के प्रवेश के बाद ही आखिर में निजाम रियासत की प्रजा सुख – चैन की सांस ले सकी। हां, एक बात तो मैं बतलाना भूल ही गया था, अच्छा हुआ अब याद आ गई। सन् 1945-1946 के बीच मैं बैरिस्टर विनयकराव विद्यालंकार और पं. नरेन्द्र जी के साथ आर्यसमाज टेकमाल का वार्षिकोत्सव सम्पन्न कर हैदराबाद आ रहा था कि भोनगीर के पास रोहिलों ने हमारी मोटर पर बंदूकों से गोली दागी। परिणामस्वरूप एक गोली मेरी पीठ पर लगी। उन दिनों हैदराबाद रियासत में चारों ओर आतंक का बोल – बाला था। ऐसी स्थिति में भी स्वाधीनता के दीवाने सर हथेली पर लिए राष्ट्रीय स्वाभिमान और अपने आत्म – सम्मान की रक्षा कर रहे थे।