[नोट- स्वतंत्रता सेनानी पंडित गंगाराम स्मारक मंच ने 15 सितंबर 2022 को विविध क्षेत्रों में अपनी सेवाएं प्रदान करने वाले 15 मान्यवरों और छात्रों को राज्यपाल बंडारू दत्तात्रेय जी के हाथों से सेवारत्न पुरस्कार 2022 से सम्मानित किया। इसी क्रम में मंच के अध्यक्ष भक्तराम जी ने हैदराबाद में निजाम शासन के खिलाफ लड़ने और आर्य समाज के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले ‘सेनानियों’ का जल्द ही बड़े पैमाने पर सम्मान करने का फैसला लिया है। इसकी तैयारियां भी शुरू कर दी है। साथ ही फरवरी में पंडित गंगाराम जी के जन्म दिन और संस्मरण दिवस पर भी अनेक कार्यक्रम करने का निर्णय लिया है। इसीलिए निजाम के खिलाफ लड़ने और आर्य समाज के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले पंडित गंगाराम जी के योगदान के बारे में विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित सामग्री को ‘तेलंगाना समाचार’ में फिर से प्रकाशित करने का संकल्प लिया है। प्रकाशित करने का मकसद इतिहासकारों, शोधकर्ताओं और आने वाली पीढ़ी को निजाम खिलाफ लड़ने और आर्य समाज के विकास में योगदान देने वालों के बारे में सही जानकारी देना मात्र है। यदि कोई पाठक प्रकाशित सामग्री पर अपने विचार व्यक्त करना चाहते है तो telanganasamachar1@gmail.com
पर फोटो के साथ भेज सकते है। प्राप्त सामग्री को भी प्रकाशित किया जाएगा। क्योंकि ऐसे अनेक लोग हैं जो निजाम के खिलाफ लड़े है, मगर किसी कारणवश उनके नाम नदारद है। हम ऐसे लोगों के बारे में छापने में गर्व महसूस करते है। विश्वास है पाठकों को यह सामग्री उपयोगी साबित होगी।]
स्वर्गीय पंडित गंगाराम जी वानप्रस्थी का 15 साल पहले प्राध्यापक डॉ कुशलदेव शास्त्री जी, पुणे (महाराष्ट्र) निवासी को दिया गया साक्षात्कार और ‘परोपकारी’ (संपादक- डॉ धर्मवीर अजमेर, राजस्थान) के जून 2007 अंक में प्रकाशित लेख।
हैदराबाद के एक हिंदी साप्ताहिक से यह दुःखद समाचार प्राप्त हुआ कि “वयोवृद्ध स्वाधीनता सेनानी एवं आर्यसमाजी नेता श्री गंगाराम जी वानप्रस्थी का लगभग 90 [हमारे रिकार्ड के अनुसार 91] वर्ष की अवस्था में 25 फरवरी 2007 को निधन हो गया।” (दक्षिण समाचार संपादक मुनीन्द्र दिनांक7 मार्च 2007 पृष्ठ 11) वे कर्मठ जुझारू व्यक्तित्व के धनी थे। उन्होंने सन् 1946 में ‘धर्म ग्रन्थ प्रकाशक संघ- हैदराबाद की ओर से स्वामी दयानन्द जी का जीवन चरित्र ‘ऋषि चरित्र प्रकाश’ नाम से प्रकाशित किया था। जिस पर निजाम सरकार ने प्रतिबंध लगा दिया था। कालांतर में 7 फरवरी 1984 को उन्होंने विधिवत् वानप्रस्थाश्रम की दीक्षा ली थी। जीवन की संध्याकाल में लगभग दो दशकों तक वे ‘वर्णाश्रम पत्रक’ नामक लघु मासिक पत्रिका का कुशल संपादन भी करते रहे। यह पत्रिका तड़प-झड़प वाली थी और गागर में सागर का रूप धारण करके प्रकाशित होती थी। हमने 19 अक्टूबर 1997 को उनके तोपखाना मार्ग- हैदराबाद स्थित निवास क्रमांक 5-3-387 पर उनसे जो साक्षात्कार लिया था, वह यहां अविकल रूप में प्रस्तुत है-
इस साक्षात्कार से पूर्व हैदराबाद मुक्ति संग्राम तथा महात्मा गांधी, स्वातंत्र्य वीर सावरकर व आर्यसमाज से सम्बद्ध पं. गंगाराम जी का एक संस्मरण उन्हीं के द्वारा संपादित सितंबर-अक्टूबर 1998 के संयुक्तांक (9-10) ‘वर्णाश्रम पत्रक’ के पृष्ठ चालीस से यथावत् यहां उद्धृत किया जा रहा है-
‘निजाम रियासत में हिन्दुओं के साथ हो रही [इन] ज्यादतियों को न देख पाक सन् 1938 में आर्यसमाज, हिंदू महासभा और कांग्रेस अलग-अलग सत्याग्रह करने लगे थे, आर्यसमाज का काम जोर-शोर से होने लगा था, आर्य सत्याग्रह का नेतृत्व में निजाम रियासत के क्षेत्र में अ.भा. स्तर पर स्वामी स्वतन्त्रानन्द महाराज और भाई बंसीलाल जी कर रहे थे तो उसको पूर्ण समर्थन देने वाली सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा का नेतृत्व श्री घनश्याम सिंह गुप्त और श्री लाला देशबंधु गुप्त कर रहे थे, घश्यामसिंह जी और देशबंधु जी कांग्रेस के भी जाने-माने नेता थे।
कांग्रेस सत्याग्रह का नेतृत्व (प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप में) स्वयं महात्मा गांधी जी कर रहे थे, उन्होंने इन दोनों कांग्रेसी नेताओं श्री घनश्याम सिंह गुप्त एवं लाला देशबंधु गुप्त को परामर्श दिया कि आर्यसमाज अपना अलग से सत्याग्रह न करके कांग्रेस के झंडे तले आन्दोलन जारी रखे, वरना आर्यसमाज को निजाम सरकार सांप्रादायिक बताकर कमजोर कर देगी और देश भर में हिंदू-मुस्लिम दंगे करवा देगी, आर्यसमाज से अहिंसक सत्याग्रह हो भी नहीं सकेगा आदि’ गांधी जी की यह बात इन दोनों नेताओं को जंची और उन्होंने आर्य सम्मेलन की विषय निर्वाचन समिति में इसे रखा। समिति के सभी सदस्य इसे स्वीकार करने का निर्णय लेने ही वाले थे कि कुंवर चांदकरण शारदा जी ने कहा कि हमने कुछ प्रमुख नेताओं जैसे वीर सावरकर आदि को भी आमंत्रित किया है, उनकी राय भी मालूम करना चाहिए, तब वीर सावरकर जी से पूछा गया, उन्होंने कहा- ‘मैं समझता था कि यहाँ बैठे ये बड़े लोग दयानन्द के भक्त हैं। दयानन्द के समान सत्य के पुजारी हैं, दयानन्द के समान सत्य की रक्षा करने के लिए सब कुछ त्यागने को तैयार हैं। पर मुझे तो एक भी ऐसा नहीं दीख रहा है’ आदि यह बातें सुनकर सबके विचार बदले और एकमत से सर्व सम्मति से निर्णय हुआ कि आर्य सत्याग्रह चालू रहेगा।
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प्रश्न- आपकी किशोर अवस्था में हैदराबाद का माहौल कैसा था?
उत्तर- मैं लगभग ग्यारह वर्ष का था, तब से हमारा वातावरण आर्य समाज की संघर्षशील गतिविधियों से परिपूर्ण था। उन दिनों शासन का जुनून दिल को दहला देने वाला होता था। औरतों का अपहरण कर रहें हैं, इनको सता रहें हैं, उनको मार रहें हैं इत्यादि। अत्याचार की बातें सुनकर हमारे दिल में बहुत से ख्यालात जगते थे। उस समय हैदराबाद में भाई श्यामलाल, भाई बंसीलाल, पं. विनायकराव और पं. नरेन्द्र जी के बड़े अच्छे विचार और कारनामे सुनकर हमारे मन में भी बड़ा उत्साह और जोश उत्पन्न होता था, मन में आता था कि हम भी कुछ करें।
प्रश्न- सार्वजनिक कार्य करने की प्रेरणा किनसे प्राप्त हुई?
उत्तर- उपरोक्त आर्य नेताओं के अतिरिक्त पं. दतात्रय प्रसाद जी एडवोकेट आदि लोगों से प्रेरित होकर हमारे मन में राष्ट्रीय सामाजिक कार्य करने की भावना उत्पन्न हुई। हमारी टोली में सर्व श्री राजपाल, प्रताप नारायण दीक्षित आदि का समावेश था। हमारा जन्म हैदराबाद में ही सन् 1916 में हुआ और अब बात कर रहा हूँ, सन् 1935 से आगे की। जब हम नौ-दस साल के थे, तभी से हमें आर्य समाज का वातावरण मिला। उस जमाने में राज बहादुर गौड़ आदि हमारे साथी कम्युनिस्ट पार्टी में क्यों न सक्रिय हो, आर्यसमाज के जलसों में भी आते थे। कुछ प्रश्न पूछते थे। शंका – समाधान होता था। खूब चर्चा होती थी। हम आर्यसमाज में रह गए, वे कम्युनिस्ट पार्टी में चले गए। तत्कालीन ऐसे अनेक नेता हैं जो बाद में किसी भी दल में सक्रिय क्यों न रहें हो, उनका प्रारंभिक सार्वजनिक जीवन आर्यसमाज की ही यज्ञवेदी से, मंच से शुरू हुआ।
प्रश्न- सन् 1938 के आर्यसमाज द्वारा संचालित हैदराबाद सत्याग्रह में आपकी क्या भूमिका रही?
उत्तर- सन् 1932 में पं. केशवराय जी कोरटकर का देहावसान हुआ। बड़ी संख्या में लोग उनकी यादगार सभा में शामिल हुए। उस वक्त लोगों में बहुत बड़ा जोश था। उससे पहले आर्यसमाज में बहुत बड़े-बड़े शास्त्रार्थ और बहस-मुबाहसे होते थे। सैद्धान्तिक विषयों पर पूर्वपक्ष और उत्तर पक्ष रखे जाते थे, लेकिन हम बहुत छोटे थे। शास्त्रार्थ हमें समझ में न आने पर भी हम उसमें शरीक जरूर होते थे। उस समय हमारी उम्र दस ग्यारह साल की थी। सन् 1938-39 के आर्य समाज द्वारा संचालित हैदराबाद सत्याग्रह काल में हमारे ऊपर बहुत बड़ी जिम्मेदारियां थी, क्योंकि शहर के जितने भी ‘इंपोर्टेंट’ लोग थे, उनसे हमारा संबंध था, क्योंकि हम ‘मासेस’ में जाते-आते थे। जब सत्याग्रह की बात आयी तब सन् 1938 में हम लोगों ने ‘आर्यन डिफेंस लीग’ अर्थात् ‘आर्य रक्षा समिति’ नामक संस्था की स्थापना की। बस्तियों में जाकर हम लोगों को सत्याग्रह के लिए तैयार करते थे। तत्कालीन हमारे साथियों में सर्व श्री राजपाल, प्रताप नारायण, बाल रेड्डी, सोहनलाल, विश्वनाथ जी आदि थे। ‘आर्य रक्षा समिति’ को स्थापना से पूर्व आर्य समाज के अखिल भारतीय और अंतरराष्ट्रीय सार्वदेशिक नेता हैदराबाद के सत्याग्रह युद्ध में आर्यसमाज को पूरी तरह झोंकना नहीं चाहते थे। अंतरराष्ट्रीय आर्य समाज को इस युद्ध में झोंकने से पूर्व वे अभी कुछ और सोचना तथा देखना चाहते थे। पं. दत्तात्रय प्रसाद जी वकील ने कहा, ‘भाई तुम सोचते रहो, हम तो सत्याग्रह शुरू कर देते हैं।’ आर्य रक्षा समिति’ की स्थापना हुई और उसने निजाम रियासत की स्तर पर सत्याग्रह शुरू कर दिया गया। पहले सत्याग्रही जत्थे में हैदराबाद के पं. देवीलाल और पं. मुन्नालाल आदि का समावेश था। सोलापुर में लोक नायक अणे की अध्यक्षता में संपन्न आर्य महासम्मेलन में आर्य नेताओं ने हैदराबाद सत्याग्रह को अखिल भारतीय रूप देने का निश्चय किया। लगभग 22 सत्याग्री जत्थे आर्य रक्षा समिति के नेतृत्व में जेल गये।
प्रश्न- निजाम प्रांतीय आर्य रक्षा समिति और सार्वदेशिक आर्य समाज के कितने सत्याग्रहियों ने हैदराबाद सत्याग्रह में भाग लिया?
उत्तर- निजाम प्रांतीय समिति के नेतृत्व में लगभग बाईस जत्थों ने सत्याग्रह किया। इन जत्थों का नेतृत्व करने वाले सर्वाधिकारी – अधिनायक- डिक्टेटरों के कुछ नाम इस प्रकार हैं। सर्वश्री देवीलाल आर्य (हैदराबाद) सी. नरहरि (हैदराबाद) दत्तात्रय प्रसाद जी वकील (गुलबर्गा), शेषराव वाघमारे (निलंगा), दिगंबरराव शिवनगीकर (लातूर), शंकरराव पटेल (अंधोरी), शंकरदेव कापसे (वडपल नागनाथ), निवर्ती रेड्डी (अहमदपुर) गणपतराव कथले (कलम), पं. बंसीलाल जी व्यास (हैदराबाद), एडवोकेट दिगंबरराव लाठकर (नांदेड) श्री राम चौधरी (मुखेड) आदि। निजाम रियासत के लगभग पांच हजार सत्याग्रहियों ने सत्याग्रह में भाग लिया।
सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा के तत्त्वावधान में देश-विदेश के आर्यसमाजों से दर्जनों जत्थे आये। इन जत्थों का नेतृत्व करने वाले कतिपय अधिनायकों के उल्लेखनीय नाम हैं- सर्वश्री महात्मा नारायण स्वामी जी, कुंवर चांदकरण शारदा, खुशहालचंद ‘खुरसंद’, राजगुरु धुरेन्द्र शास्त्री, पं. वेदवत वानप्रस्थी, महाशय कृष्ण, ज्ञानेन्द्र ‘सिद्धांतभूषण’। आठवें अधिनायक बैरिस्टर विनायकराव विद्यालंकार 1500 (पन्द्रह सौ) सत्याग्रहियों के साथ अहमदनगर के केन्द्रीय शिविर में सत्याग्रह के लिए कूच करने के लिए तैयार थे कि निजाम सरकार ने आर्यसमाज की मांगे स्वीकार कर लीं। निजाम रियासत से बाहर के लगभग बारह हजार से भी अधिक आर्य सत्याग्रहियों ने हैदराबाद सत्याग्रह में भाग लिया।
श्री शेषराव वाघमारे आदि के नेतृत्व में जब अनेक जत्थे जेल गये तब ‘सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिथि सभा दिल्ली’ ने तय किया कि ‘निजाम रियासत के हैदराबाद सत्याग्रह को हम अपना ही सत्याग्रह समझते हैं।’ सार्वदेशिक सभा की इस घोषणा के बाद आर्थिक मदद मिलने लगी। सत्याग्रही आने लगे। हम लोग स्टेशनों पर जाकर उन जत्थों को लाते और उनके निवास, नहाने धोने और भोजन आदि की सब व्यवस्था करते थे। उन्हें सत्याग्रह के निर्धारित समय से पहले गिरफ्तार होने से बचाना भी हमारा काम था। इस कार्य में हमें हैदराबाद के ‘आर्यन आर्ट स्टूडियो’ के मालिक की बहुत सहायता मिली। उन्हें हम अण्णा कहते थे। वे सत्याग्रहियों के निवास-स्नान आदि की व्यवस्था भी अपने घर में निःसंकोच करते थे। सत्याग्रह से पूर्व उनके फोटो भी खींचते थे। हम सब लोग सत्याग्रहियों को इन कामों में मदद करते थे और शाम में जिस जगह पर सत्याग्रह करवाना होता था, उसके करीब ले जाकर सत्याग्रहियों को छोड़ देते थे।
प्रश्न – क्या आपने भी इस सत्याग्रह में भाग लिया था?
उत्तर- नहीं, मैं सत्याग्रह करवाने में ही लगा रहा। आर्यसमाज द्वारा संचालित हैदराबाद सत्याग्रह के फील्डमार्शल सेनापति स्वामी स्वतंत्रानंद जी का आदेश था कि ‘सत्याग्रही के नाते आप कभी गिरफ्तार नहीं होंगे। इस इलाके के कण-कण को जानने वाले आप जैसे लोग गिरफ्तार हो गये तो, अन्य प्रांतों से आने वाले सत्याग्रहियों को सत्याग्रह स्थल तक पहुँचाने का काम कौन करेगा और आंदोलन आगे कैसे बढ़ेगा?’ हम हमेशा सत्याग्रही जत्थों से थोड़ी दूरी पर रहते थे। जिस समय पं. विनायकराव जी विद्यालंकार का आखरी जत्था सत्याग्रह के लिए कूच करने वाला था उस समय अहमदनगर के कैंप में डेढ़ हजार सत्याग्रही राव जी के नेतृत्त्व में सत्याग्रह करने के लिए तैयार थे। इन सत्याग्रहियों में शहर-ए-हैदराबाद के सत्याग्रहियों की अधिकतम संख्या थी, जिन्हें हम ‘कंट्रोल’ में रखते थे। वे हमारे द्वारा भेजे हुए सत्याग्रही थे, और हमारी बात सुनते थे। कभी कोई गड़बड़ हो जाती, तो वह झगड़ा हमारे पास ही आता था। यदि कोई सत्याग्रही किसी होटल में खाना खाकर भी, पैसे देने में असमर्थ होता था, तो ऐसी समस्याओं को भी हम सुलझाते थे। इस तरह से हम सोलापुर – अहमदनगर के सत्याग्रही छावनियों में समय का ध्यान रखकर सब काम निपटाते थे।
प्रश्न- सन् 1938-39 के हैदराबाद सत्याग्रह के बाद आपकी क्या भूमिका रही?
उत्तर- आर्यसमाज द्वारा संचालित सत्याग्रह संपन्न होने के बाद हम रचनात्मक काम में लग गये। न्यायमूर्ति केशवराव कोरटकर की स्मृति में सन् 1940 में ‘केशव मेमोरियल शिक्षण संस्था’ की स्थापना हुई। तत्पश्चात् सन् 1942 में निजाम गवर्नमेंट ने मुझ पर और पं. कृष्णदत्त जी पर प्रतिबंध लगा दिया कि हम किसी भी शिक्षण संस्था से संबंध न रखें। हम दोनों को केशव मेमोरियल से निकाल दिया गया। उस समय मै वकालत का विद्यार्थी था, पर ‘यूनिवर्सिटी’ से भी निकाल दिये जाने के बाद मेरे लिए और कोई काम बाकी न रहा। बस, चौबीस घंटे मै आर्य समाज का ही काम करता था। 1942 से 44 तक मैं निजाम राज्य आर्य प्रतिनिधि सभा का मंत्री रहा।
प्रश्न- निजाम रियासत में सम्पन्न आर्यसमाज के सम्मेलनों और जलसों के संस्मरण सुनाइए?
उत्तर- बाईस से चौबीस अप्रैल को सन् 1945 में हैदराबाद रियासत का चौथा आर्य सम्मेलन गुलबर्गा में राजा नारायणलाल पित्ती की अध्यक्षता में सम्पन्न हुआ। उस समय की एक अविस्मरणीय घटना है। सम्मेलन परिसर में पुलिस के कुछ जवान सिगरेट पीने लगे। आर्यसमाजी धूम्रपानादि व्यसनों से दूर रहते हैं। स्वागत समिति ने भी यह नियम बनाया था कि सम्मेलन परिसर में कोई भी सिगरेट-बीड़ी नहीं पियेगा। जब पुलिस के जवान सिगरेट पीने लगे तो आर्य वीर दल के स्वयं सेवक ने उन्हें रोका। प्रत्युत्तर में उस स्वयं सेवक को पीटा गया। स्वयं सेवक ने भी एक-दो तमाचे जड़े। मैं आर्य वीर दल का हेड कैप्टन था। वह स्वयं सेवक जब मेरे पास आया तो मैंने उससे पूछा कि ‘तुम मारकर आये हो या मार खाकर आये हो।’ उसने जब यह कहा कि ‘ मारकर भी आया हूँ ‘ तो मुझे अच्छा लगा। तत्पश्चात् गुलबर्गा के डी.एस.पी. पं. नरेन्द्र जी के पास आये और कहने लगे कि, ‘पुलिस के लोगों ने ऐसा भीषण दंगा और उपद्रव पैदा कर दिया है कि मेरी भी नहीं सुन रहे हैं और सब लोग बहुत नाराज है, कृपया आप उन्हें समझाइए।’ इस पर मैंने पंडित जी से कहा कि, ‘हमें ऐसी हिमाकत नहीं करनी चाहिए। जब स्वयं डी.एस.पी. कह रहा है कि मेरे कंट्रोल के बाहर है, हम जाकर क्या करेंगे।’ इस पर पं. नरेन्द्र जी ने कहा ‘शिवकुमार, बाबूलाल आदि में से कोई भी वहीं नहीं जाते हैं, तो हम जायेंगे। पंडित जी उस डी.एस.पी. के कहने पर खुद तो गये ही अपने साथ पं. विनायकराव विद्यालंकार, गणपत शास्त्री, कर्मचारी हीरालाल, व्यंकट शास्त्री तथा श्री वामनराव को भी ले गए। मैंने उनको बार-बार कहा कि, ‘डी.एस.पी. कितना भी कहे, फिर भी आपको वहाँ नहीं जाना चाहिए। पर पण्डित जी नहीं माने। जैसे ही ये लोग मोटर से उतरे, पुलिस ने लाठियाँ बरसानी शुरू कर दी। बैरिस्टर विनायकराव की पीठ पर लाठियों के निशान उभर आये। पं. गणपत शास्त्री का सिर फोड़ दिया गया, हीरालाल का हाथ तोड़ दिया गया, आर्य कुमार श्री त्रिपांत की जांघ तथा पं. नरेन्द्र जी की टांग तोड़ दी गई। वामनराव जी को भी बहुत मार लगी। सार्वजनिक जीवन में ऐसे और कई प्रसंग रहे, जहाँ हमारे पं. नरेन्द्र जी से मतभेद रहे।