देश में आज़ादी का अमृत महोत्सव और घर-घर तिरंगा महोत्सव बहुत कुछ हो रहा है। वैसे तो होना भी चाहिए। आज़ादी क्या है? आजादी हमें कैसे मिली? इस पर बहुत चर्चाएं होती है। परन्तु आज़ादी को बचाकर कैसे रखना है? आज़ाद देश के नागरिकों का क्या कर्तव्य है? क्या वाकई में भारतवासियों को पता है। हाँ जी, बिलकुल पता है। आज़ाद देश के नागरिकों को हर समस्या के लिए नेता के सर पर दोष मड़ देना चाहिए और अपने काम-धंधे में तब तक लगे रहना चाहिए जब तक कि उसका कोई बहुत बड़ा नुकसान न हो जाए और देश की सुरक्षा तो सेना की जिम्मेदारी है।
आज 75 वें स्वतंत्रता के चौखट पर खड़ा है। भारत के कितने प्रतिशत नागरिक जानते हैं कि देश के निर्माण की सबसे पहली सीढ़ी परिवार है। अगर देश को मजबूत बनाना है तो सबसे पहले एक-एक परिवार को मजबूत बनना होगा। चाँद पर पैर रखना, मंगल के चक्कर काटना, देश हित के लिए मिसाइल बनाना और खरीदना – बेचना सब ठीक है। ध्यान देने वाली बात यह है कि यह सम्पूर्ण भारत का सपना नहीं, बल्कि एक-एक डिपार्टमेंट का सपना है या फिर यूँ कहे कि दूसरों से स्वयं की रक्षा कैसे की जाए इसकी टेक्निक है।
बात को ऐसे भी समझा जा सकता है कि भारत को आज़ाद करने के लिए सम्पूर्ण भारत लड़ रहा था। पर मंगल पर रॉकेट गया या चाँद पर पानी है या नहीं, ऐसी बातों पर महंगाई के बोझ तले पीस रहे आम नागरिक की रूचि कितनी है यह तो तर्कमूलक प्रश्न है। आज किसान का बेटा किसान बनने को तैयार नहीं है, शिक्षक का बच्चा शिक्षक और जवान के बच्चे जवान बनने से कतराते हैं। ऐसा क्यों क्या इस प्रश्न पर कोई चर्चा-परिचर्चा किसी मिडिया में हो रही है?
बड़ी अच्छी बात है कि आज देश का हर बच्चा विदेश जाकर पैसा कमाना चाहता है। डॉक्टर, इंजिनियर, डांसर, सिंगर से कम कोई कुछ बनना ही नहीं चाहता या फिर माता-पिता इससे कम में अपने बच्चे के जीवन को देखना ही नहीं चाहते हैं। ऐसे में आनेवाली पीढ़ी जो उम्र से पहले ही न केवल परिपक्व बन रही है और न ही बनाई जा रही है। इससे भारत जैसे उच्च सांस्कृतिक, धार्मिक देश की आस्थाओं की जड़ें क्या हिल नहीं रही है?
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भ्र्ष्टाचार पर तो बहुत बात होती है। मगर क्या भ्रष्टाचार मिटाने वाला कोई है? धर्म के नाम पर तो हम आज भी मरने-मारने को तैयार हैं। विज्ञान के क्षेत्र में तो भारत आगे है ही। इन दिनों खेल के क्षेत्र में भी भारत का परचम हर तरफ लहराता दिखाई दे रहा है। फिर भी मुझ जैसे बहुतों को लग रहा है भारत अपने ही अपने आप से आज़ादी के 75 वें पावन वर्ष में लड़ रहा है। अपने आप से ही वह हार रहा है। क्योंकि उसके आँगन का सबसे मजबूत वटवृक्ष उसकी परिवार व्यवस्था फैलने के बजाय सिकुड़ रही है। चारों तरफ बहुत विकास के दौर में इसे डिप्रेशन अर्थात अवसाद ने घेर लिया है।
इसलिए यह बहुत आवश्यक है कि अब बात होनी चाहिए आत्महत्याओं, अवैध संबंधों, शिक्षा के नाम पर चलनेवाले गैरज़रूरी व्यावसायों, समाज में मनोरंजन के नाम पर फ़ैल रही नग्नताओं, फैशन के नाम पर फ़ैल रही अमर्यादित आचरणों, विकास के नाम पर हो रही ताबड़तोड़ गैरज़रूरी आविष्कारों की।
कई दिनों से देख रही थी कि कोई ‘नई श्रम नीति’ आनेवाली है, जिसके अंतर्गत 5 दिन ही कम्पनियों को काम करना है। पता नहीं खबर कितनी सही है पर इस नीति की आज भारत को बहुत आवश्यकता है। वृद्धाश्रमों की संख्या भारत में लगातार बढ़ रही है। कारण यह बता दिया जाता है कि बच्चे माता-पिता को नहीं देखते। यह सिक्के का एक पहलू है दूसरा पहलू कुछ और भी हो सकता है। इस पर भी यथाशीघ्र अनुसंधान होना चाहिए। हमारे पूर्वजों ने बहुत श्रम से हमें उनके नियम क़ानून हमें सौंपें है।
आज हम आजादी के 75 वीं वर्ष पर अमृत महोत्सव मना रहे हैं। हम अपनी आनेवाली पीढ़ी को मशीन के साथ जुड़कर मशीन बन जाने की सलाह अनजाने में ही देने के वजाय और क्या उन्हें अच्छी सीख दे रहे हैं या दे सकते हैं। इस पर अब यथाशीघ्र परिचर्चा होनी चाहिए। हाँ यह वोट बैंक को आकर्षित करनेवाली विषय नहीं है, लेकिन इस विषय के बिना स्वस्थ वोट बैंक यानि स्वस्थ जनता को पाना सम्भव नहीं है। ऐसा न हो कि सबकुछ पा लेने की होड़ में खुद को ही खोकर भारत की युवा पीढ़ी समय से पहले ही बूढ़ा या फिर आत्महन्ता बन जाए।
– लेखिका डॉ सुपर्णा मुखर्जी हिंदी प्राध्यापिका सेंट ऐन्स जूनियर एंड डिग्री कॉलेज फॉर गर्ल्स एंड वूमन मलकाजगिरी