[नोट- वरिष्ठ पत्रकार और लेखिका सरिता सुराणा जी ने ‘तेलंगाना समाचार’ के पाठकों के लिए दक्षिण भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों का विशिष्ट योगदान पर लेख लिखना का संकल्प लिया है। विश्वास है कि इतिहास के छात्रों और इतिहासकारों के लिए यह लेख लाभ दायक सिद्ध होगी। इसी कड़ी में यह पहला लेख है।]
‘बुझी राख मत हमें समझना
हम अंगारों के गोले हैं।
देश आन पर मिटने वाले
हम बारूदी शोले हैं।
आन-बान की रक्षा में हम
हंसकर शीश चढ़ाते हैं।
जिस देश धरा पर जन्म हुआ
हम उसका कर्ज चुकाते हैं।’
ये कोई साधारण कविता की पंक्तियां नहीं वरन् हमारे देश की स्वतंत्रता के लिए अपने प्राणों का उत्सर्ग करने वाले उन वीरों के हृदयोद्गार हैं, जिन्होंने हंसते-हंसते देश के लिए अपने प्राण न्यौछावर कर दिए। आज उन्हीं के बलिदानों के फलस्वरूप हम आज़ादी की खुली हवा में सांस ले रहे हैं और आजादी का ‘अमृत महोत्सव’ मना रहे हैं। लगातार कई शताब्दियों तक हमारा देश विदेशी ताकतों की गुलामी का शिकार रहा। जो विदेशी कंपनियां हमारे देश में व्यापार बढ़ाने के उद्देश्य से आई थीं, उन्होंने यहां पर छोटे-छोटे टुकड़ों में बंटे हुए साम्राज्यों के शासकों को आपस में लड़ाकर एवं उनकी आपसी फूट का लाभ उठाकर उनकी रियासतों पर कब्जा कर लिया। साथ ही साथ यहां के समस्त प्राकृतिक संसाधनों पर भी कब्जा कर लिया।
धीरे-धीरे हमारे उद्योग-धन्धों, संस्कृति, खान-पान और शिक्षा पद्धति को निम्न स्तर का बताकर अपनी शिक्षा पद्धति को हम पर थोप दिया। हमारी समृद्ध गुरुकुल शिक्षा पद्धति को हीन बताकर लाॅर्ड मैकाले ने अपनी अंग्रेजी शिक्षा पद्धति हम पर थोप दी, जिससे उसे अपनी कंपनी के काम के लिए सस्ते क्लर्क मिल सके और दुर्भाग्यवश आज तक हम उस गुलाम मानसिकता में जी रहे हैं। आज भी हमारे देश में अंग्रेजी पढ़े-लिखे लोगों को उच्च शिक्षा और प्रशासन में प्राथमिकता दी जाती है और हिन्दी तथा भारतीय भाषाओं को दोयम दर्जे का समझा जाता है। हम सब जानते हैं कि हमारे देश की स्वाधीनता के संघर्ष का एक लम्बा और लोमहर्षक इतिहास रहा है। एक ऐसा इतिहास जिसके लाखों नायक और बलिदानी आज भी गुमनामी के अंधेरों में खोए हुए हैं।
आजादी के इस समरांगण में जहां सशस्त्र क्रान्तिकारियों ने अपने प्राणों की आहुति दी थी, वहीं ऐसे अनेक आदिवासी समुदायों के वीरों और महिलाओं ने भी अपने-अपने ढंग से स्वातंत्र्य समर में अपना विशेष योगदान दिया था, जिन्हें इतिहास में वह समुचित सम्मान नहीं मिला जिसके वे हकदार थे। जब उत्तर भारत में स्वतंत्रता आन्दोलन अपने चरम पर था तो दक्षिण भारत में भी हर वर्ग के स्वतंत्रता सेनानी स्थान-स्थान पर ब्रिटिश शासन के विरुद्ध मोर्चा ले रहे थे। जब उत्तर भारत में सुखदेव, भगतसिंह और राजगुरु को फांसी पर चढ़ाया गया तो दक्षिण भारत के क्रान्तिकारी वी ओ चिदम्बरम पिल्लई, अल्लूरी सीतारामराजू, रानी किट्टूर चेन्नम्मा, कुंभकोणम बालमणि, रामजी गोंड, वांचीनाथन, सांगोली रायण्णा, भोगराजू पट्टाभि सीतारामय्या, केटी श्याम, हारदेकर, सिद्धालिंगय्या, केसी रेड्डी, रानी वेलु नाच्चियार और मार्तण्ड वर्मा ने स्वाधीनता आन्दोलन में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया था।
आइए जानते हैं कि किस तरह से हमारे इन वीरों और वीरांगनाओं ने अपने शौर्य के बल पर अंग्रेजों के छक्के छुड़ाए थे और देश के स्वतंत्रता संग्राम आन्दोलन में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
वी ओ चिदम्बरम पिल्लई द्वारा नेविगेशन कंपनी की स्थापना
परतंत्र भारत में देश की पहली देशी शिपिंग कंपनी ‘स्वदेशी स्टीम नेविगेशन कंपनी’ की स्थापना सन् 1906 में वी ओ चिदम्बरम पिल्लई ने की थी। उस समय अंग्रेज सरकार मनमाने ढंग से शिपिंग के नियम बनाती थी। यहां तक कि यात्री किराया भी जब मर्जी बदल देती थी। जब पिल्लई ने अपनी कंपनी बनाकर अंग्रेजों को चुनौती दी तो उन्होंने उनको जेल में डाल दिया। वहां पर उन पर बेहिसाब जुल्म ढाए गए। उनसे खदान में काम कराया गया और तेल के कोल्हू में बैल की जगह जोत दिया गया।
चार साल तक अमानवीय अत्याचार करने के बाद जब उन्हें जेल से रिहा किया गया तो उन्हें पता चला कि उनके जहाजों को अंग्रेजों ने नीलाम कर दिया था और उनकी सारी दौलत खत्म हो चुकी थी। उनका वकालत करने का लाइसेंस रद्द कर दिया गया और तूतीकोरिन में उनके घर पर जाने पर भी प्रतिबंध लगा दिया। बहुत ही मुश्किल परिस्थितियों में बीमारी की अवस्था में सन् 1936 में पिल्लई की मौत हो गई। लेकिन तमिलनाडु के लोग उन्हें आज भी ‘कप्पालोतिया थमिझान’ अर्थात् खेवनहार के रूप में जानते हैं।
– सरिता सुराणा वरिष्ठ लेखिका एवं पत्रकार हैदराबाद