भारत के स्वाधीनता आन्दोलन में दक्षिण भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों का विशिष्ट योगदान-3

[नोट- वरिष्ठ पत्रकार और लेखिका सरिता सुराणा जी ने ‘तेलंगाना समाचार’ के पाठकों के लिए दक्षिण भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों का विशिष्ट योगदान पर लेख लिखने का संकल्प लिया है। विश्वास है कि इतिहास के छात्रों और इतिहासकारों के लिए यह लेख लाभ दायक सिद्ध होगी। इसी कड़ी में यह तीसरा लेख हैं। आइए जानते हैं दक्षिण भारत के उन स्वतंत्रता सेनानियों के बारे में, जिन्हें इतिहास में वह उचित सम्मान और स्थान नहीं मिला जिसके वे हकदार थे। इसी शृंखला में वीर स्वतंत्रता सेनानी तिरुपुर कुमारन के बारे में जानते हैं। इन लेखों पर पाठकों की प्रतिक्रिया अपेक्षित है।]

दक्षिण भारत के स्वतंत्रता सेनानी तिरुपुर कुमारन

4 अक्टूबर सन् 1904 को तत्कालीन मद्रास रेसीडेंसी के इरोड जिले में चेन्नीमलाई में श्री तिरुपुर कुमारन का जन्म हुआ था। जन्म के बाद उनका नाम ओकेएसआर कुमार स्वामी मुदलियार रखा गया। आगे चलकर लोग उन्हें प्रेम से तिरुपुर कुमारन के नाम से बुलाने लगे। पराधीन भारत में भारतीयों की दयनीय दशा उनसे देखी नहीं जाती थी, इसलिए बचपन से ही उनके मन में अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह की भावना पनपने लगी। रंगभेद के कारण अपने लोगों पर हो रहे अत्याचारों से विचलित होकर वे आजादी की लड़ाई में कूद पड़े। उनका परिवार हथकरघा बुनाई का काम करता था। उन्हें 5 वर्ष की उम्र में ही पढ़ाई छोड़नी पड़ी। 19 वर्ष की उम्र में परिवार की इच्छा के आगे उन्हें घुटने टेकने पड़े और उन्होंने शादी कर ली। तब वे एक कताई मिल में असिस्टेंट के तौर पर कार्य कर रहे थे।

गांधीजी के सिद्धांतों से प्रेरित

तिरुपुर कुमारन ने गांधी जी के सिद्धांतों से प्रेरित होकर आजादी के प्रदर्शनों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था। असहयोग आंदोलन की वापसी की घोषणा के बाद कुमारन ने ‘देशबंधु यूथ एसोसिएशन’ का गठन किया था। वर्ष 1930 में गांधी जी द्वारा शुरू किए गए सविनय अवज्ञा आंदोलन में भी कुमारन एवं उसके साथियों ने भाग लिया था।

तिरंगा रैली में शामिल

11 जनवरी सन् 1932 के दिन हाथों में तिरंगा लिए हुए कुमारन एक रैली में भाग ले रहे थे, जो ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध आयोजित की गई थी कि तभी पुलिस ने प्रदर्शनकारियों पर लाठी चार्ज करना शुरू कर दिया। पुलिस ने कुमारन को चारों ओर से घेर कर उन पर लाठियां बरसानी शुरू कर दी। इससे वे लहूलुहान हो गए। उनके सिर में गंभीर चोटें आई लेकिन उन्होंने अंतिम सांस तक झंडे को थामे रखा। मात्र 27 वर्ष की उम्र में नयाल नदी के किनारे भारत मां का यह वीर सपूत सदा के लिए अमर हो गया।

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कोडि कथा कुमारन का सम्बोधन

इस घटना के बाद कुमारन को ‘कोडि कथा कुमारन’ कहा जाने लगा। जिसका अर्थ है- ध्वज रक्षक कुमारन। अक्टूबर 2004 में तिरुपुर कुमारन की जन्म जयंती पर भारतीय डाक विभाग द्वारा एक स्मारक डाक टिकट जारी किया गया। उनके सम्मान में तिरुपुर के कुमारन मैमोरियल पार्क में एक प्रतिमा भी लगाई गई है। तिरुपुर कुमारन ने अपने साहस और बलिदान से देश की आजादी में बहुत महत्वपूर्ण योगदान दिया। उनके इस बलिदान को शत-शत नमन।

– सरिता सुराणा वरिष्ठ पत्रकार एवं लेखिका हैदराबाद

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