भारत के स्वाधीनता आन्दोलन में दक्षिण भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों का विशिष्ट योगदान-2

[नोट- वरिष्ठ पत्रकार और लेखिका सरिता सुराणा जी ने ‘तेलंगाना समाचार’ के पाठकों के लिए दक्षिण भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों का विशिष्ट योगदान पर लेख लिखने का संकल्प लिया है। विश्वास है कि इतिहास के छात्रों और इतिहासकारों के लिए यह लेख लाभ दायक सिद्ध होगी। इसी कड़ी में यह दूसरा लेख हैं। आइए जानते हैं दक्षिण भारत के उन स्वतंत्रता सेनानियों के बारे में, जिन्हें इतिहास में वह उचित सम्मान और स्थान नहीं मिला जिसके वे हकदार थे। इसी शृंखला में वीर स्वतंत्रता सेनानी राजा मार्तण्ड वर्मा के बारे में जानते हैं। इन लेखों पर पाठकों की प्रतिक्रिया अपेक्षित है।]

जिस समय डच सेना को दुनिया में सबसे ताकतवर माना जाता था, उस जमाने में एक भारतीय राजा ने जिनका नाम मार्तंड वर्मा था, उसी डच सेना को युद्ध के मैदान में धूल चटाई थी। 10 अगस्त सन् 1741 का वर्ष भारतीय इतिहास में बहुत महत्वपूर्ण है। इस वर्ष त्रावणकोर के राजा मार्तंड वर्मा ने ईस्ट इंडिया कंपनी को अपने पारंपरिक हथियारों से समुद्री युद्ध में पराजित कर दिया था। उस समय पुर्तगाली और अंग्रेजों की तरह डच कंपनी यूरोप की एक बड़ी ताकत थी। लगभग 50 साल तक उन्होंने दुनिया के व्यापार पर अपना कब्जा जमाए रखा।

डच ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना

सन 1602 में डच सरकार ने एक कंपनी बनाई थी जिसे डच ईस्ट इंडिया कंपनी के नाम से जाना जाता था। इसमें 17 शेयर होल्डर थे। जब यह कंपनी बनी तब इसमें लगभग 6.5 मिलियन गिल्डर का इन्वेस्टमेंट किया गया, जो आज के समय में लगभग 100 मिलियन डॉलर जितना माना जाता है। कंपनी के पास एशिया में 21 साल तक व्यापार करने का अधिकार था। कंपनी इस अधिकार के तहत अपनी सेना बना सकती थी और अपनी तरफ से लड़ाई भी शुरू कर सकती थी। कंपनी दूसरे देशों में अपने उपनिवेश भी बना सकती थी। इस कंपनी की उस समय पुर्तगालियों और अंग्रेजों से भी ज्यादा ताकत थी। उन्होंने एशिया के मसाला व्यापार पर कब्जा कर लिया था।

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केरल में काली मिर्च सबसे ज्यादा होती है जिस पर डच ईस्ट इंडिया कंपनी की नजर थी। यह एक ऐसा मसाला था जिसकी पूरी दुनिया में बहुत बड़ी मांग थी। उस जमाने में काली मिर्च सोने से भी ज्यादा कीमती थी। काली मिर्च के खजाने की तलाश यूरोपीय ताकतों को केरल के समुद्र तट तक खींच लाई थी।

युद्ध की शुरुआत

उस समय राजा मार्तंड वर्मा त्रावणकोर राज्य की सीमाओं को बढ़ाने में लगे हुए थे। आस-पास के राज्यों को जीतने के बाद उनकी नजर ओडनाड राज्य पर थी, जहां पर काली मिर्च की खेती सबसे ज्यादा होती थी। लेकिन ओडनाड के मिर्च व्यापार पर डच कंपनी का एकाधिकार था और राजा मार्तंड वर्मा उसे तोड़ना चाहते थे। डच गवर्नर ने राजा मार्तंड वर्मा को ओडनाड से दूर रहने के लिए कहा लेकिन राजा मार्तंड वर्मा को यह शर्त मंजूर नहीं थी जिसके बाद डच सेना और त्रावणकोर की सेना में युद्ध छिड़ गया। सन् 1741 की शुरुआत में डच कैप्टन डी. लेनाॅय के नेतृत्व में डच सेना कोलाचल पहुंच गई और सन 1741 मई के महीने में युद्ध शुरू हो गया। राजा मार्तंड वर्मा तिरुवत्तार के आदि केशव मंदिर में गए और उन्होंने वहां पर विधिवत अपनी तलवार की पूजा करवाई।

कंपनी के पास थे आधुनिक हथियार

डच ईस्ट इंडिया कंपनी के पास उस समय के सबसे आधुनिक हथियार थे। वह कंपनी उस समय दुनिया की सबसे अमीर कंपनी थी। डच कमांडर डी. लिनॉय श्रीलंका से 7 बड़े और कई छोटे युद्ध जहाजों के साथ कोलाचल समुद्री तट पर पहुंचे और वहां पर अपना शिविर लगाया।

वहां से राजा मार्तंड वर्मा की राजधानी पद्मनाभपुरम् सिर्फ 13 किलोमीटर दूर थी। समुद्री जहाजों ने त्रावणकोर की समुद्री सीमा को चारों ओर से घेर लिया। उनकी तोपें लगातार शहर पर बमबारी करने लगी। डच कंपनी ने समुद्र से बहुत से हमले किए और वे लगातार तीन दिन तक शहर में गोले बरसाते रहे। अब राजा मार्तंड वर्मा को यह सोचना था कि उनकी फौज किस तरह से डच सेना के आधुनिक हथियारों का मुकाबला कर पाएगी।

हिम्मत से जीती लड़ाई

जैसा कि हम सब जानते हैं की लड़ाई हमेशा आधुनिक हथियारों के बल पर नहीं दिमाग और हिम्मत से जीती जाती है। राजा मार्तंड वर्मा ने भी अपने दिमाग से काम लिया। उन्होंने नारियल के पेड़ कटवाए और उन्हें बैल गाड़ियों पर इस तरह लगवा दिया, जैसे कि तोपें लगी हुई है। डच सेना की यह रणनीति थी कि वह पहले समुद्र से तोपों के जरिए गोले बरसाती, उसके बाद धीरे-धीरे आगे बढ़ती थी और खाइयां खोदकर किले बनाती थी। इस तरह वह धीरे धीरे वहां पर अपनी सत्ता स्थापित कर लेते थे। लेकिन मार्तंड वर्मा की नकली तोपों के डर से डच सेना आगे नहीं बढ़ी और राजा मार्तंड वर्मा ने अपने 10 हजार सैनिकों के साथ वहां पर डेरा डाल दिया। दोनों तरफ से छोटे-छोटे हमले होने लगे। डच कप्तान ने मछुआरों को अपने साथ मिलाने की बहुत कोशिश की, उन्हें पैसों का लालच दिया लेकिन वे अपने राजा से जुड़े रहे और उन्होंने पूरी तरह से त्रावणकोर की सेना का साथ दिया।

राजा मार्तंड वर्मा ने आखिरी लड़ाई के लिए मानसून का वक्त चुना था ताकि डच सेना उसमें फंस जाए और उन्हें श्रीलंका या कोच्चि से कोई भी मदद ना मिल पाए। तब राजा की सेना ने डच सेना पर जबरदस्त हमला किया और उनके हथियारों के गोदाम को उड़ा दिया। जिसके बाद यूरोप की सबसे ताकतवर कंपनी की सेना ने भारत के एक छोटे से राज्य की सेना के सामने अपने घुटने टेक दिए। इस महान जीत का श्रेय पूरी तरह से राजा मार्तंड वर्मा को जाता है। राजा मार्तंड वर्मा ने इस जीत की याद में कोलाचल में एक स्मारक भी बनाया। उन्होंने डच कमांडर की हत्या नहीं की बल्कि उसे त्रावणकोर की सेना को आधुनिक बनाने की जिम्मेदारी सौंप दी। क्योंकि वे जानते थे कि आने वाले समय में दुनिया पर वही राज करेगा जो युद्ध की आधुनिक तकनीक की जानकारी रखता हो। अपनी इसी दूरदर्शिता के कारण उन्होंने पूरे 29 साल तक त्रावणकोर पर राज किया और अपने उत्तराधिकारियों को एक सुरक्षित शासन सौंपकर अंतिम सांस ली। हालांकि यह सन् 1857 की लड़ाई से बहुत पहले की लड़ाई थी लेकिन इसने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।

– सरिता सुराणा वरिष्ठ पत्रकार एवं लेखिका हैदराबाद

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