केंद्रीय हिंदी संस्थान: ‘रूस में हिंदी’ विषय पर डॉ ल्युद्मिला खोख्लोवा से चर्चा, इन वक्ताओं ने भी दिया संदेश

हैदराबाद: केंद्रीय हिंदी संस्‍थान, अंतरराष्‍ट्रीय सहयोग परिषद तथा विश्‍व हिंदी सचिवालय के तत्‍वावधान में वैश्विक हिंदी परिवार की ओर से विश्व हिंदी शिक्षण विमर्श की श्रृंखला के अंतर्गत ‘रूस में हिंदी’ विषय पर डॉ ल्युद्मिला खोख्लोवा से चर्चा आयोजित की गई।
भारत रूस संबंध जगजाहिर है। उत्तरी एशिया और पूर्वी यूरोप में स्थित सोलह देशों की सीमा से सटा रूस, भूभाग में दुनिया का सबसे बड़ा देश है जहाँ लगभग सौ भाषाओं के बीच रूसी भाषा की ही प्रधानता है। यह पुश्किन, टॉलस्टाय और दोस्ताएवस्की जैसे साहित्यकारों की जन्मभूमि है जहाँ भारतीय इतिहास, दर्शन एवं भाषाओं आदि को भी प्रमुखता दी जाती है।

प्रथम विश्व युद्ध के बाद विश्व में रूस साम्यवादी और द्वीतीय विश्व युद्ध के बाद मुख्य सामरिक शक्ति के रूप में स्थापित रहा। रूस में सदियों से हिंदी की समृद्ध परंपरा है जो विदेशियों को हिंदी शिक्षण की दृष्टि से अग्रिम पंक्ति में है। हिंदी अध्ययन-अध्यापन की दृष्टि से रूस में प्रोफेसर ल्युद्मिला खोख्लोवा सुप्रसिद्ध हैं। उन्होंने रूस में हिंदी और भारतीय भाषाओं को रचनात्मक दिशा दी है। आज के में मास्को में हिंदी और रूसी भाषा की प्राध्यापक डॉ अल्पना दाश और सिंगापुर से प्रो संध्या सिंह ने प्रो खोख्लोवा से सीधा आत्मीय संवाद किया जिससे देश-विदेश से जुड़े सैकड़ों विद्वान लाभान्वित हुए।

कार्यक्रम की प्रस्ताविकी में भूतपूर्व रूसी भाषा प्राध्यापक एवं साहित्यकार डॉ राजेश कुमार ने भारत रूस मैत्री संबंधों और दोनों देशों की भाषाओं से संबंधित अनुभवजन्य पृष्ठभूमि प्रस्तुत की। तदोपरांत केंद्रीय हिंदी संस्थान के हैदराबाद केंद्र के क्षेत्रीय निदेशक डॉ गंगाधर वानोडे द्वारा माननीय अध्यक्ष, मुख्य वक्ता, संवादी और देश विदेश से जुड़े सुधी श्रोताओं का औपचारिक स्वागत किया गया।

ज्ञातव्य है कि रूसी यात्री अफनासी निकितन, वास्को डि गामा से लगभग 25 वर्ष पहले भारत आए थे और 6 वर्ष यहाँ रहे थे जिनकी ‘तीन समुद्रों के पार’ की डायरियाँ और संस्मरण आदि पुराने संबंधों और रूसी रुझानों के प्रेरक प्रमाण हैं। अन्य अनेक कार्यों के साथ अठारहवीं शताब्दी में रूस में कालीदास आदि की रचनाओं का रूसी भाषा में अनुवाद हो गया था। रूस के लोगों में भारतीय इतिहास, दर्शन, भाषा संस्कृति, समाज शास्त्र, अर्थव्यवस्था और अध्यात्म आदि में गहरी रुचि है। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद मैत्री, सहयोग और अध्ययन अध्यापन में त्वरित गति आई।

संवाद की सीधे शालीन शुरुआत करते हुए प्रो अल्पना दाश ने हिंदी रूसी की वयोवृद्ध विदुषी प्रो खोख्लोवा से हिंदी-रूसी के सफर की शुरुआत को जानना चाहा। प्रो खोख्लोवा ने मास्को विश्वविद्यालय में अपने विद्यार्थी जीवन को याद करते हुए इसका श्रेय अपने गुरुजनों को दिया और बताया कि उन्होंने हिंदी के साथ पंजाबी भी सीखीं और चार दशकों से अध्ययन अध्यापन, लेखन, अनुवाद और शोधकार्य आदि से जुड़ी हैं। उन्हें भारतीय भाषाओं और संस्कृति से बहुत प्रेम है। पहली बार हिंदुस्तान आने पर कुछ चीजें अजीब लगीं किंतु अनेक बार भारत आने–जाने से कई मित्रों के यहां होने से भारत उन्हें अपना दूसरा घर जैसा ही लगता है।

रूस में अकादमिक अध्ययन सुविधा के सवाल पर प्रो खोख्लोवा ने कहा कि हिंदी सिखाने की प्रक्रिया आरंभिक स्तर पर वर्णमाला से शुरू होती है और बी ए तथा एम ए तक हिंदी पढ़ाई जाती है। प्रायः पाठों के अंत में हिंदी–रूसी कुछ वाक्य दिये जाते हैं। रूस के विद्यार्थियों के मद्देनजर वहां के विद्वानों ने व्याकरण और अन्य आसान अधिगम संबंधी पुस्तकें तैयार की हैं। बी ए के द्वीतीय वर्ष में समानार्थक, विपरीतार्थक शब्द, मुहावरे और प्रेमचंद, भीष्म साहनी, किशन चंदर और अमरकांत आदि की कहानियाँ भी पढ़ाई जाती हैं। तीसरे वर्ष में मोहन राकेश, कमलेश्वर और पुष्पा सक्सेना आदि तथा आगे चलकर निर्मल वर्मा, रघुबीर सहाय और कृष्ण बलदेव बैद को भी पाठ्यक्रम में स्थान दिया गया है तथा जासूसी उपन्यास को भी प्रधानता है। इसके अलावा तमिल, उर्दू, बंगला, मराठी और पंजाबी भी पढ़ाई जाती है जिसके लिए दर्जनों प्राध्यापक नियुक्त हैं।

हिंदी पढ़ने के बाद वहाँ के विद्यार्थियों को रोजगार के प्रश्न पर कीव में जन्मी प्रतिभाशाली विदुषी प्रो खोख्लोवा ने कहा कि विद्यार्थी विभिन्न वृहद अनुवाद कार्य, रेडियो, भारतीय दूतावास, दुभाषिए, विभिन्न प्रकाशन और अध्यापन आदि अनेक क्षेत्रों में रोजगार पाते हैं। भारतीय दूतावास द्वारा दोनों देशों के हितों हेतु बहुआयामी कार्य किए जाते हैं। मैं समझती हूँ कि हिंदी के प्रयोग की अनंत संभावनाएं हैं जिसका समूचे जगत में विस्तार होना चाहिए। इससे अन्य बातों के साथ साथ रोजगार भी बहुत बढ़ेगा।

पठन-पाठन विधि के सवाल पर प्रो खोख्लोवा ने कहा कि शुरू में छात्र कुछ गलतियाँ करते हैं तो उनका मनोबल बनाए रखने के लिए हम लोग बार-बार टोकते नहीं है। हिंदी-रूसी की क्रियाओं में भी कुछ अंतर है। कुछ फिल्मों और गानों का भी सहारा लिया जाता है। राजकपूर बहुत प्रसिद्ध हैं। मेरा जूता है जापानी, की लाइनें खूब चलती हैं। भारतीय रहन-सहन, खान-पान, वेश-भूषा, शादी-विवाह आदि के अलावा जलवायु परिवर्तन आदि वैश्विक विषयों पर भी चर्चा की जाती है तथा भारतीय विश्वविद्यालयों के छात्रों और प्राध्यापकों से भी संवाद स्थापित किया जाता है। हम चाहते हैं कि विद्यार्थी हिंदी व्याकरण समझें और बोलें तथा अपेक्षाकृत बेहतर लिखें। प्रायः ‘ने’ प्रयोग आदि में कठिनाइयां हैं।

प्रथम भाषा का व्याघात पड़ना भी स्वाभाविक है किंतु रुचिकर बनाने की भरसक कोशिश की जाती है। अब एक गलत धारणा भी घर कर गई है कि भारत में अंग्रेजी से भी काम चलता है तथा सर फट रहा है, सर चकरा रहा है आदि की कठिनाइयाँ भी बतायीं। बोलचाल की भाषा और औपचारिक भाषा में अंतर स्वाभाविक है। उन्होने गुरु ग्रंथ साहिब पर अपने लेखों की भी सोदाहरण चर्चा की। प्रो खोख्लोवा का कहना था कि दुनिया हिंदुस्तान की तरफ देख रही है। यहां भी हिंदी का इस्तेमान बढ़ाया जाए। हिंदी के उच्च स्तरीय लेख दुनिया में पहुंचें।
प्रो खोख्लोवा ने अमेरिका के प्रो सुरेन्द्र गंभीर के मूल्यांकन पद्धति के सवाल पर रूस की परीक्षा विधि बताई और श्रोताओं के प्रश्नों के भी बेबाक विश्लेषण सहित उत्तर दिये। उनकी हिंदी सुनकर श्रोता आश्चर्यचकित थे।

अध्यक्षीय उद्बोधन में जापान के ओसाका में जन्मे वयोवृद्ध हिंदी सेवी विद्वान पद्मश्री डॉ तोमियो मिजोकामी ने आज के आयोजन पर हार्दिक प्रसन्नता प्रकट की और बताया कि लगभग चालीस देशों की यात्रा करने के बावजूद चीन और रूस नहीं जा सका किंतु अब जाऊंगा। उन्होंने प्रो खोख्लोवा और प्रो दाश के संवाद को अत्यंत सार्थक बताया। साठ वर्षों से भी अधिक समय से हिंदी सेवा से जुड़े प्रो मिजोकामी का मंतव्य था कि हिंदी, जापानी और रूसी के संप्रदान में काफी समानता है। हिंदी का प्रयोग और प्रचार बढ़ाने की निहायत जरुरत है।

केंद्रीय हिंदी शिक्षण मंडल के उपाध्यक्ष एवं इस कार्यक्रम के प्रणेता श्री अनिल जोशी ने सुंदर संवाद और संचालन पर प्रसन्नता प्रकट की। वर्ष 2003 के विदेशी विद्यार्थियों के समन्वय संबंधी कार्य को याद करते हुए उन्होंने कहा कि दिल्ली एयरपोर्ट पर अगवानी करते समय जब एक रूसी विद्यार्थी ने उनसे पहला सवाल पूछा कि यहां भर्तृहरि की पुस्तकें कहां मिलेंगी तब वे हैरान रह गए। उन्होंने वारान्निकोव एवं अन्य रूसी विद्वानों के साथ-साथ भारत की आजादी के बाद लगभग पचास साल तक रूस मेँ रहकर हिंदी की सेवा करने वाले विद्वान ‘मदन लाल मधु’ के अनमोल योगदान को याद किया जिनका प्रेम से अभिवादन करने के लिए लोग प्रायः रुककर प्रतीक्षा करते थे। श्री जोशी का विचार था कि विदेशों में हिंदी को एक रंजक भाषा के रूप में पढ़ाना भी श्रेयस्कर होगा। इसके लिए प्रतिबद्धता के साथ साथ सामूहिक सत प्रयत्न आवश्यक है।

इस कार्यक्रम दिव्या माथुर व शिखा रस्तोगी, थाइलैंड, प्रो संध्या सिंह, सिंगापुर, मीरा सिंह, फिलाडेल्फिया, अनुप कुमार एवं भारत से जवाहर कर्नावट, डॉ गंगाधर वानोडे, डॉ राजवीर सिंह, विजय कुमार मिश्रा, हरिराम पंसारी, किरण खन्ना, डॉ बीना शर्मा, डॉ वी रा जगन्नाथन, डॉ नारायण कुमार, डॉ मोहन बहुगुणा, डॉ सुरेश मिश्रा, डॉ राजीव कुमार रावत, डॉ विजय प्रभाकर नगरकर, डॉ जयशंकर यादव, डॉ सौभाग्य कोरले, डॉ महादेव कोलूर, मीनाक्षी जोशी, ललिता रामेश्वर, मधु भंभानी, सोनु कमार, डॉ ए भवानी, धर्मेंद्र प्रताप सिंह, डॉ वरुण कुमार, शिव कुमार निगम, सरोज शर्मा, विश्वनाथ भालेराव, माधवी बागी, चंद्रमणि पांडेय, डॉ राजवीर सिंह, डॉ रंजन दास आदि की विशेष उपस्थिति रही।

चीन से जुड़े प्रो विवेक मणि त्रिपाठी ने ओजपूर्ण वाणी में आदरणीय अध्यक्ष, विशिष्ट वक्ता और सुधी श्रोताओं के प्रति कृतज्ञता प्रकट की तथा उनके कथनों को संक्षेप में रेखांकित किया। उन्होंने इस कार्यक्रम से देश-विदेश से जुड़ी संस्थाओं एवं व्यक्तियों का नामोल्लेख सहित आत्मीय ढंग से विशेष आभार प्रकट किया। प्रो त्रिपाठी ने हिंदी का वैश्विक गौरव बढ़ाने हेतु इस कार्यक्रम से जुड़े संरक्षकों, श्रोताओं, अभिप्रेरकों, संयोजकों, मार्गदर्शकों तथा विभिन्न टीम सदस्यों को हृदय से धन्यवाद दिया। ज्ञातव्य है कि यह कार्यक्रम ‘वैश्विक हिंदी परिवार’ शीर्षक से यूट्यूब पर भी उपलब्ध है। रिपोर्ट लेखन का कार्य डॉ जयशंकर यादव ने संपन्न किया।

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