विशेष लेख: ऐसी मनाई गई ब्रह्माण्ड की प्रथम दीपावली

[नोट- उत्तम लेख के लिए हम डॉ जयप्रकाश तिवारी के आभारी है]

हम भारतवासी कार्तिक मास अमावस्या की घनघोर रात्रि में सैकड़ों-हजारों दिये जलाते हैं। रात्रि को प्रकाशित कर दिन सा उजाला लाने का प्रयास करते हैं। कहा जाता है कि भगवान श्रीराम जब विजय दशमी के दिन रावण का संहार करके अयोध्या वापस आए तो सारे अयोध्या वासियों ने नगर को दीप मालाओं से सजा दिया था। रात में दिन-सा उजाला फैला कर अपनी प्रसन्नता को प्रदर्शित किया था और तभी से यह परंपरा चल पड़ी और पूरे भारत वर्ष में दीपावली मनाई जाने लगी। किंतु, क्या आप जानते हैं इस ब्रह्माण्ड में दीपावली प्रथम बार कब और कैसे मनाई गई? यदि नहीं तो आइए जानते हैं इसे कैसे मनाई गई।

ऋग्वेद के नासदीय सूक्त के अनुसार सृष्टि के पूर्व प्रलयदशा में क्या था, स्थिति, परिस्थिति कैसी थी?
“…*तम आसीत्… तमासा गूढं अग्रे…न सत आसीत्… न असत आसीत्…रजः न आसीत…न व्योमा…न मृत्यु आसीत…न अमृत आसीत…”

नासदीय सूक्त के खण्ड पंक्तियों का भाव यह है कि तब यत्र यत्र सर्वत्र फैला था केवल सघन घनीभूत अँधेरा… तम… ही… तम… नीरवता-नि:शब्दता का ही साम्राज्य था वहाँ। तब एक शान्ति भी एक भयावह सी डरावनी शान्ति लग रही थी। उस घोर गहन अन्धकार में जहां नाम रूप-संज्ञा-सर्वनाम-विशेषण -विशेष्य… सभी का एकदम अभाव, घनघोर सन्नाटा। क्रियाशीलता भी कार्य से विरत होकर निष्क्रियता की मोटी चादर ओढ़े प्रगाढ़ निद्रा में कहीं पड़ी सो रही थी। श्वांस-प्रश्वांस भी तो तब नहीं था। सत्य-असत्य, भाव, अभाव, जन्म-मृत्यु से परे स्तब्ध कर देने वाली सन्नाटा-कुहासा-कालिमा-अन्धेरा ही फैला हुआ था दूर-दूर तक। इसे ‘शून्यता’ तो नहीं कह सकते, हाँ इसका गणितीय मान ‘शून्य’ ही था, क्योकि समस्त चैतन्य ब्रह्मांडीय ऊर्जा स्थितिज ऊर्जा में संचित और संरक्षित था।

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वहाँ केवल और केवल एक ‘अकेला चैतन्य’ स्वयं में ही समाधिस्थ था। तत एकं अवातं स्वधया आसीत। उससे परे कुछ भी न था। ”तस्मात्-अन्यत- किंचन परः न आस’। पवन-पानी-ऊष्मा कुछ भी तो नहीं था। चैतन्य की शान्ति भंग हुई। उसने तप किया, चिंतन किया। यह मानसिक क्रिया थी। इसे ही “मानसो रेतस” कहा गया। यह प्रथम क्रिया थी। उसने संकल्प किया और कार्य प्रारंभ हो गए। यह दूसरी क्रिया थी। ‘कामः तत्र अग्रे समवर्तत’। अन्धेरा छटा, प्रकाश पुंज फैली, प्रकाश और ऊष्मा की परस्पर अभिक्रिया से सलिलं / आर्णव (जल) को उत्पत्ति हुई। उस जल में चैतन्य ने अपनी कामना का बीजारोपण किया। वह कामना जल में ‘अंडा’ रूप में ‘तैरती नजर आयी। उसी को ‘ब्रहमांड बीज’, गर्भ, ब्रह्मांड, ‘universe egg, cosmic egg… इत्यादि नामों से विभिन्न ग्रंथों में वर्णित किया गया है। वह अंडा सुदीर्घ काल तक जल में पड़ा रहा। पुनः इस चेतना की समाधि से जाग्रति हुयी। मन की कामना रंग लाई, अब अंडा सुवर्ण, स्वर्णिम हो गया हो गया। हिरण्मय हो गया, उसकी कान्ति हिरण्यं हो गयी। अब इसे कहा गया ‘हिरण्यगर्भ’ या ‘Golden Egg’। उस हिरण्यगर्भ’ के ‘स्फोट’ से उसमे अंतर्भूत सभी प्रकार के संचित चेतन तत्त्वों / चैतन्य पदार्थों का दूर-दूर तक प्रसार, सरवर्त्र दसों दिशाओं में हो गया। जोर से कोटिश:, लक्षश: पटाखे एक साथ ही छूटे, फूटे, फुलझडियां, अनार भी फूटे; और यही तो था ब्रह्माण्ड का प्रथम ‘पटाखा’… भरपूर…जोरदार धमाका। अनार सा उल्कापिंडों का विखंडन, इन खंड पिंडो-ग्रह-नक्षत्र-तारे और निहारिकाओं का रूप धारण किया> पञ्च महाभूत अस्तित्व में आये और “विराट पुरुष” सिद्धांत से प्राकट्य हुआ, जिसकी प्रथम पहचान ‘प्रजापति सिद्धांत’ के रूप में हुई। बाद में आगे चलकर थोड़े – बहुत परिवर्तन – परिवर्धन के बाद इसे ही ‘ब्रह्मा सिद्धांत’ और ‘विश्वकर्मा सिद्धांत’ भी कहा गया।

विज्ञान / अंतरिक्ष विज्ञान कहता है कि इस सृष्टि का कारण यही महाविस्फोट ‘bigbang’ है। अध्यात्म कहता- ‘स्फोट’ है। बातें और अर्थ वहीँ हैं, जोर का धमाका। विज्ञान का धमाका आहत ध्वनि है, जबकि अध्यात्म का धमाका ‘अनाहत ध्वनि’ है। घनीभूत अंडे का फूटना, प्रकाश और स्वर्णिम पदार्थों का, चकाचौंध कर देने वाला प्रकीर्णन, प्रक्षेपण- प्रकाशोत्सव। यह प्रकाशोत्सव ही है- “ब्रह्माण्ड की प्रथम दीपावली”, जिसे पूरी प्रकृति ने मनाई। और जिसे अध्यात्म और विज्ञान दोनों ने साथ साथ अनुमोदित किया है।

अभियान था अन्धकार से प्रकाश की ओर यात्रा – “तमसो मा ज्योतिर्गमय”। इसे सार्थक बनाया है असत से सत की ओर उन्मुख होने की ललक ने, दृढ़ इच्छा और अतीव जिजीविषा ने- ‘असतो मा सदगमय’, और जिसका अंतिम उद्देश्य था- मृत्यु को नकार कर अमृतत्त्व की प्राप्ति- ‘मृत्युर्माअमृतंगमय। इस सन्देश को और इस उद्देश्य को फैलाने का कार्य प्रज्वलित दीपक का है। यही दीपक, जलता दीपक- ज्ञानरुपी पुरोहित है- अग्निमीले पुरोहितं।

इस ज्ञान प्रकाश का प्रभाव क्या हुआ? पहले जो अँधेरी कालिमा थी, चारो दिशाओं, दसों दिशाओं में व्याप्त चतुर्भुजी – अष्टभुजी – दसभुजी क़ाली – कराली – कपालिनी और डरावनी थी, वही अब दिव्य ज्ञान के आलोक में ‘गोरी’ हो गयी है, ‘गौरी’ हो गयी है। गिरिजा – शैलजा – शैलपुत्री बन गयी है। क्षीरसागर निवासिनी कमला – कल्याणी हो गयी है… लक्ष्मी – महालक्ष्मी – वैभव लक्ष्मी हो गयी है। “लक्ष्मी” सागर पुत्री है। सलिल तनया है। उसी की आराधना – वंदना पूजा का त्योहार है – ‘प्रकाशपर्व, ज्योतिपर्व दीपावली’। लक्ष्मी को पाना है तो सागर में गोता लगाना ही होगा। इसके लिए सत्साहस, बुद्धि – विवेक और श्रम की अनिवार्यता है। लक्ष्मी के साथ विवेक के देवता “गणेश” का पूजन भी इसी का प्रतीक है। “लक्ष्मी” आलसी – अविवेकी को लभ्य नहीं है। लेकिन हम तथ्यों को न समझकर दीप मालाओं की लडियां, झिलमिलाते झालरों, बल्बोंके डिजाइनदार जालों से, झालरों से आकर्षक रूप में घरों को, भवनों को सजा लेना ही इसकी योग्यता या अपना वैभव प्रदर्शन मान बैठे है।

क्या कभी हम, आपने सोचा है- कहीं वहाँ पर कोई कालिमा, कोई धब्बा, कोई ईर्ष्या-द्वेष तो नहीं है। यदि है तो मिटा डालिए इसी दीप से उस कालिमा को, धो डालिए उस धब्बे को, क्योंकि मानव मन के इसी अन्धकार को, बुराइयों को विजित कर ‘प्रकाश’ और ‘ज्ञान’ फैलाने का पर्व है- ‘दीपावली’। यह प्रत्येक मन में उठने वाले स्नेहिल उत्साह और उमंग प्रदर्शन का भी प्रतीक है- दीपावली। परन्तु अफ़सोस! न जाने कब और कैसे जुआ जैसी कुरीति और बुराई ने दीपावली से नाता जोड़ लिया। यह तो बद्तोब्याघात है और साथ ही दीपावली का घोर अपमान भी। इस कुरीति को मिटाना ही दीपावली की श्रेष्ठ पूजा है। निद्रा देवी की गोद में जाने से पूर्व यदि हम – आप द्वारा अपने दैनिक कृत्य का स्वमूल्यांकन कर लिया जाय, अपने तन – मन को ही दीपक बना लिया जाये तो यही होगी सबसे बड़ी- ‘दीपावली’। यही होगी इस पर्व की सबसे बड़ी उपयोगिता और उपादेयता। मैंने तो बना लिया दीपक, अपने तन को, अपने मन को। क्या आप तैयार है साथ निभाने के लिए? अरे ! यह दीपक अत्यंत महत्वपूर्ण है, यह माता-पिता के सामान पालक – पोषक और कल्याणकारी है – स न: पितवे हूँ वेगने सूपायनो भव। इसलिए मै तो यही कहूँगा और कहता रहूंगा…

तन दीपक मेरा मन दीपक / दीपक मेरा सपना है / जग को कहीं करे आलोकित / उससे रिश्ता अपना है/ दम्भ बताना दीपक को / दीपक का अपमान है / यह आपबी नादानी और / विवेक हीनता की पहचान है / दीपक तो प्रतीक है / सामजिक एकता और प्रकृति के साथ / अद्भुत सौहार्द्र और / सद्भाव का सामंजस्य का / खेत की मिट्टी / तालाब का जल / रजनीश की शीत / दिनकर का प्रकाश / पवन की श्वांस / आकाश का अवकाश / बॉस का डंडा / गो-वंश का कंडा / कुम्भकार का श्रम / अग्नि की दाहकता / चित्रकार की कल्पना / फूलों का रंग / घूमते चाक का नृत्य / तेली का तेल / किसान का घृत / कपास की पौध / पौध की रूई / जिसे बनाकर बत्ती / दादी माँ ने अपनी श्रद्धा / है उसमे पिरोई / तब ई है दीपक में जान / देखो कैसे देखा रहा है शान / मिटा देगा अब अँधेरे का नामोनिशान / हमको भी दीपक बन जाना है / इसका आदर्श निभाना है / बदल सकता है दीपक का रंग – रूप / आकार – प्रकार / पर नहीं बदल सकता / दीपक का विशिष्ट व्यवहार / क्योकि / वह व्यवहार ही / दीपक का प्राण है / इसके अभाव में वह निर्जीव – निष्प्राण है / ज्योतिहीन दीपक निरार्थक / और निष्प्राण ही नहीं / कलंक है – कुल का, समाज का, राष्ट्र का…।

डॉ जयप्रकाश तिवारी, लखनऊ, उत्तर प्रदेश
9450802240, 9453391020

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