लाल सलाम! दिवंगत कामरेड गुम्मडी विट्ठल उर्फ गदर की जीवनी पर कहानीकार NR श्याम का संक्षिप्त शोध लेख

गदर अब नहीं रहा…, युद्ध नौका अब नहीं रहा… हाँ तेलुगू भाषा-भाषी प्रांतों में उसे युद्ध नौका ही कहा जाता है। युद्ध नौका यानी युद्ध पोत। हाँ, वह सचमुच एक युद्ध पोत ही था। पूरी तरह से गोला, बारूद और हथियारों से लैस। मंच पर जब वह अपनी गंभीर आवाज में कंठ फाड़कर गाते हुए नाचता था तो तांडव-सा मच जाता था। सारे माहौल में हलचल-सी मच जाती थी। गड़गड़ाहट… आंधी… तूफ़ान… एक बवंडर-सा उठ खड़ा होता था। हाँ वह वसंत मेघ गर्जन था।

नंगा धड़, कमर में कसकर बंधी धोती, कंधे पर कम्बल, पाँवों में घुंघरू, हाथ में लाल रुमाल… यही थी उनकी वेष-भूषा। गदर (गद्दर) को प्रायः लोग इसी रूप में ही जानते हैं और पहचानते हैं, ठीक उसी तरह जिस तरह चार्ली चैप्लिन को लोग उनके एक विशेष गेटअप में। आज भी चार्ली चैप्लिन के असली रूप से बहुत काम लोग ही परिचित होंगे। गदर कहने से भी उनका यही रूप आँखों के सामने उभरकर आता है। इसी वेश में अपनी क्रान्तिकारी साँस्कृतिक संस्था– ‘जन नाट्य मंडली’ के जरिए न केवल लोगों में चेतना जागृत करते रहे बल्कि सामंती, पूंजीवादी, साम्राज्यवादी शक्तियों को भी ललकारते रहे।

गुम्मडी विट्ठल से गदर और फिर गदर से गद्दर

हाँ, उनका असली नाम- गुम्मडी विट्ठल ही था। वे गुम्मडी विट्ठल से गदर बने थे। और अनायास ही गदर से गद्दर में परिवर्तित हो गए थे। जैसा कि हम सबको पता है, वर्ष 1913 में उत्तरी अमेरिका में सिख मजदूरों ने मिलकर एक पार्टी की स्थापना की थी जिसका नाम ‘गदर’ था। बाद में सरदार भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, रामप्रसाद बिस्मिल जैसे स्वतंत्रता सेनानियों ने भी अपनी पार्टी को यही नाम दिया था। और इसी से प्रभावित होकर गुम्मडी विट्ठल ने भी अपना नाम गदर रख लिया था।

एल्बम

वर्ष 1972 में उनके गीत-गानों का एक एल्बम निकाला जाना था। उसमें उनका नाम गदर ही दिया था। परन्तु कम्पोजर ने गलती से ‘गदर’ की जगह ‘गद्दर’लिख दिया था। इसी नाम से वह मुद्रित भी हो गया। तब से वे गदर से गद्दर बन गये। तेलुगू भाषी प्रांतों में वे गद्दर नाम से ही जाने जाते हैं, पर हिंदी भाषा-भाषी प्रांतों में वे अभी भी गदर ही हैं। गदर यानी क्रांति… गदर यानी इंकलाब। हाँ, वे ग़दर के पर्यायवाची ही थे। हिंदी में जो ग़दर का अर्थ है वही तेलुगू में भी है।

जहाँ भी वे जाते थे धूम ही मचा देते थे। उनके पाँव के साथ हजारों पाँव थिरकने लगते थे। उनके कंठ के साथ हजारों कंठ फूटकर नभ की ऊंचाई छूने लगते थे। तेलुगू भाषी प्रांतों में मुख्य रूप से तेलंगाना में शायद ही ऐसा कोई होगा जो, इस नाम से परिचित न हो। क्या बच्चे, क्या जवान, क्या बूढ़े, हर एक की जबान पर बस यही नाम। वे अपने गानों से तेलंगाना की जनता के रग-रग में समाये हुए हैं। तेलंगाना में इतनी प्रसिद्धि बहुत ही विरले लोगों को ही मिली है।

पिता का अम्बेडकरवादी प्रभाव

तेलंगाना के मेदक जिले के तूप्राण गाँव में एक गरीब दलित परिवार में वर्ष १९४९ में गदर का जन्म हुआ। पिता गुम्मडी शेषय्या ने पहली पत्नी से कोई संतान न होने के कारण दूसरा विवाह किया था। इस दूसरी पत्नी का नाम लछुमम्मा (लक्ष्मी या लक्ष्मम्मा का देशज रूप) था। इनसे उन्हें पाँच संतान हुईं। तीन बेटियाँ और दो बेटे। उनका छोटा बेटा ही था गुम्मड़ी विट्ठल।

अपना अंतिम गीत ” मूक हो चले कंठ से…. “गाते हुए

पिता गुम्मडी शेषय्या अम्बेडकरवादी विचारधारा से प्रेरित थे। उन्होंने महाराष्ट्र के औरंगाबाद में अम्बेडकर द्वारा स्थापित मिलिंद विश्वविद्यालय भवन के निर्माण कार्य में मिस्त्री [सुतारी] का काम किया था। वहीँ पर उन्होंने प्रत्यक्ष तौर पर अम्बेडकर का दर्शन किया था और कट्टर अम्बेडकरवादी बन गए थे। उन्होंने जो कुछ भी कमाया उसमें एक पैसा भी नहीं बचाया। सारा धन वे सामाजिक कार्य में ही लगाते चले गए थे। उनकी मृत्यु के समय उनकी कोई सम्पति शेष नहीं बची थी। परन्तु ग़दर को दलित चेतना और अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाने की शिक्षा पिता से विरासत में मिली थी। यही उन्हें उनके पिता द्वारा मिली संपत्ति थी।

माँ के गीतों-गानों का प्रभाव

मां लछुमम्मा लोक गीत बहुत अच्छा गाती थी। उसका कंठ बहुत ही सुरीला था। वह खेतों में काम करते समय ही नहीं घर में भी जब-तब गीत गुनगुनाती रहती थी। गद्दर भी उसका अनुकरण करता था। छुटपन की लोरियों से ही गद्दर में गायकी के बीज प्रस्फुटित हुए थे। बचपन में जब वह गांव में रहता था तो उस समय अपनी मां के साथ खेतों में काम करने जाता था। स्कूल में पढाई के वक्त भी जब भी समय मिलता तब खेतों में काम करने जाता था। खेती से सम्बंधित बुवाई, रोपाई, कटाई सभी तरह का काम वह करता था। काम करते हुए जब मां गाती थी तो वह भी सुर में सुर मिलाता रहता था।

पढाई के बाद होटल में भी काम

उनकी आरम्भिक पढ़ाई गांव में ही हुई थी। अपने तालुका से हायर सेकंडरी पास करने वाला वह पहला दलित विद्यार्थी था। बाद में १९६८ में उन्हें उस्मानिया यूनिवर्सिटी में इंजीनरिंग में प्रवेश मिला। बहुत ही कठोर आर्थिक समस्या। इसके चलते उन्हें पढ़ाई के बाद होटल में जूठा निकालने और जूठे बर्तन धोने जैसा काम भी करना पड़ा था। आर्थिक तंगी के कारण जो भी काम मिलता करते थे। इसका प्रभाव उनकी पढाई पर भी पड़ा। इंजीनियरिंग की पढाई बीच में ही छोड़ने का एक कारण आर्थिक तंगी भी थी।

कैनरा बैंक की नौकरी से त्यागपत्र

गद्दर को 1975 में बैंक में नौकरी मिली थी। परन्तु उन पर जनता के हित में, अन्याय के विरुद्ध आवाज़ उठाने का एक जूनून सवार था। नौकरी के दौरान भी जब-तब वे आंदोलनकारी कार्यों में हिस्सा लेते ही रहते थे। एक तरफ नौकरी, दूसरी तरफ परिवार और तीसरी तरफ जन आंदोलन। तीनों का साथ-साथ चलना उन्हें दूभर लगा। अंत में उनका झुकाव जन आंदोलन की तरफ ही हुआ। 1984 में उन्होंने कैनरा बैंक की स्थाई नौकरी से त्यागपत्र दे दिया और फुल टाइमर बनकर आंदोलन में कूद पड़े। आंदोलन के लिए उन्होंने नौकरी और परिवार को परे रख दिया।

क्रान्तिकारी विचारधारा की तरफ झुकाव

1969 का विद्यार्थियों का पृथक तेलंगाना आंदोलन। वे उसमे कूद पड़े। वे बुर्राकथा (तेलंगाना में यह कथा कहने का एक ट्रैडिशनल फार्म है जिसमेँ केवल दो या तीन ही कथा वाचक होते हैं। तम्बूरा बजाते हुए ये कथा आगे बढ़ाते रहते हैं। देहातों में यह कथा सारी- सारी रात भर चलती रहती है) द्वारा लोगों में तेलंगाना आंदोलन के प्रति चेतना जागृत करते रहे।

जन गायक वंगापंडु प्रसाद और कवि कालोजी नारायण राव के साथ

कॉलेज में ‘आर्ट लवर्स’ नामक एक संस्था थी। इसकी स्थापना बी नरसिंगराव ने की थी। ये वही नरसिंगराव हैं जिन्होंने बाद में ‘माँ भूमि’ (1948 के तेलंगाना सशस्त्र आंदोलन पर), दासी, रंगुला कला, मट्टी मनुसूलु जैसी फ़िल्में बनाईं थीं। कॉलेज में इस संस्था में पॉलिटिकल चर्चाएं होती थीं। इस संस्था के द्वारा गद्दर नक्सलबाड़ी और श्रीकाकुलम आंदोलन, उस्मानिया का प्रगतिशील आंदोलन, चीन की सांस्कृतिक क्रांति, अंतराष्ट्रीय सोशिलिस्ट शिविरों की स्थापना आदि से वे परिचित हुए। उनका झुकाव मार्क्सवाद, लेनिनवाद और माओवाद की तरफ हुआ। फलस्वरूप उन्हें क्रन्तिकारी विचारधारा वाली एक सांस्कृतिक विंग के स्थापना की आवश्यकता महसूस हुई। 1970 में उन्होंने नरसिंगराव से मिलकर ‘जन नाट्य मंडली’ की स्थापना की। इसकी स्थापना नरसिंगराव के घर में ही हुई थी। जन नाट्य मंडली के बैनर तले वे प्रोग्राम देने लगे। यह जन नाट्य मंडली, क्रन्तिकारी विचारधारा वाली एक सांस्कृतिक संस्था थी। जैसा कि पहले बतलाया गया है इसी संस्था में गाए गए गीतों का 1972 में उनका पहले गीतों का एल्बम आया था जिसमे वे ग़दर से गद्दर बन गए थे।

नौकरी / शादी / परिवार और सांस्कृतिक कार्यक्रम

1975 में प्रतियोगिता परीक्षा द्वारा वे कैनरा बैंक में क्लर्क के पद पर नियुक्त हुए। इसी दौरान उनकी शादी हुई। पत्नी का नाम विमला। उनके तीन बच्चे हुए। दो बेटे और एक बेटी। बेटों का नाम सूर्य किरण और चंद्र किरण रखा। बेटी का नाम वेन्नला (चांदनी )। दूसरे बेटे चंद्र किरण की मेडिसन की पढाई करते समय अकाल मौत हो गयी थी।

पत्नी विमला के साथ

सशस्त्र क्रांति में उनका गहरा विश्वास था। जन नाट्य मंडली द्वारा लोगों में चेतना जागृत करने के लिए वे लगातार सांस्कृतिक प्रदर्शन देते रहे। वे स्वयं लिखते थे और स्वयं ही गाते भी थे। उन्होंने कार्यक्रम केवल तेलुगू भाषी प्रान्त तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में ही नहीं दिया बल्कि इन प्रांतो की सीमा पार कर कर्नाटक, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल, झारखण्ड, बिहार, दिल्ली जैसे राज्यों में भी दिया।

यही नहीं उन्होंने पंजाब के सांस्कृतिककर्मी गुरुचरण, जन संस्कृतिक मंच के गोरख पाण्डे आदि लोगों के साथ मिलकर अखिल भारतीय स्तर पर एक संयुक्त सांस्कृतिक मंच बनाने का भी प्रयास किया। AILRC (आल इंडिया लीग फॉर रेवोल्यूसनरी कल्चर) जिसकी पहली सभा दिल्ली में हुई थी, उनके प्रयासों का ही फल था। बाद में वे 1991 से 2001 तक इसके जनरल सेक्रेटरी भी बने थे।

कारमचेड़ू की घटना और प्रतिघटना

17 जुलाई वर्ष 1985 में संयुक्त आंध्रप्रदेश के बापट्ला जिले के कारमचेड़ू गाँव के दबदबा रखने वाले एक कम्मा जमींदार वर्ग ने वहाँ की दलित बस्ती पर धावा बोल छ: दलितों को बेरहमी से मार डाला। सारी बस्ती को तहस-नहस कर आग के हवाले कर दिया था। बूढ़े, बच्चे, जवान, औरत, मर्द जो भी मिला, बेरहमी से पीटा। महिलाओं का बलात्कार किया। इसके विरोध में गदर ने आवाज उठाई। वे वहाँ के दलितों के पक्ष में जमकर खड़े हो गए। जन नाट्य मंडली द्वारा प्रदर्शन देते हुए दलितों के हित में कार्य करने वाले बोज्जा तारकम, कत्ती पद्माराव जैसे लोगों के साथ मिलकर इस घटना को राष्ट्रीय स्तर पर ले गए। तब कहीं जाकर धर-पकड़ आरम्भ हुई। केस बुक हुए। वोंगोल जिला अदालत ने 159 लोगों को आजीवन कारावास की सजा सुनाई। परन्तु उच्च नयायालय ने बेनिफिट ऑफ़ डाउट के आधार पर केस ख़ारिज कर दिया। वर्ष 2008 में उच्चतम न्यायालय ने मुख्य आरोपी को आजीवन कारावास और अन्य 30 लोगों को तीन वर्ष की सजा सुनाई। इस तरह कारमचेडू सामूहिक हत्याकांड केस को इस स्थिति में लाने की गदर की प्रमुख भूमिका रही है।

बुलेटों की बौछार

1997 में उन पर कातिलाना हमला हुआ था। माना जाता है कि यह हमला ‘ग्रीन टाइगर्स’ नाम की संस्था ने किया था। उन पर बुलेटों की बौछार हुई थी। पूरे छह बुलेट उनके बदन में धंसें थे। बहुत ही गंभीर थी उनकी हालत। बचने की उम्मीद नहीं के बराबर थी। परन्तु डाक्टरों ने किसी तरह करके उन्हें बचा लिया। क्रिटिकल होने की बावजूद केवल एक को छोड़कर उनके बदन से सारे के सारे बुलेट सफलतापूर्वक निकाल लिए गए। एक बुलेट जो उनकी रीठ में बहुत अंदर तक धंस गयी थी को वे निकाल नहीं पाए। उसे कुछ भी छेड़ने से जान को खतरा था। इसलिए उसे इसी तरह छोड़ दिया गया। इस तरह जीवन पर्यन्त यानी की पूरे २६ वर्ष उनकी मृत्यु तक वह बुलेट उनके साथ ही रही। वह उनके जीवन का हिस्सा बनकर रही। ओर इतना सब होने के बावजूद भी न तो वे झुके थे और न ही वे हताश नहीं हुए थे। पहले की तरह पूरे ही जोश के साथ, पूरे अत्मविश्वास के साथ सांस्कृतिक प्रदर्शन देते रहे। मंच पर पहले की तरह उसी आवेश से, उसी उत्साह से कार्यक्रम पेश करते रहे।

उस समय संयुक्त आंध्र प्रदेश में चंद्रबाबू नायडू की तेलुगु देशम की सरकार थी। इस कातिलाना हमले को सरकार की ही साजिस बतलायी गयी थी। जहाँ कही भी एनकाउंटर होता वे वहां पहुँच जाते थे। फेक एनकाउंटर कहकर बहुत ही कड़े शब्दों में निंदा करते। एनकाउंटर के बाद पुलिस शव को उनके माता-पिता या उनसे सम्बंधित लोगों का नहीं सौंपती थी। स्वयं अंतिम संस्कार करती थी। इतने आतंकित व भयानक वातावरण में भी गद्दर इसका जमकर विरोध करते थे। उन पर हुए हमले का यही मुख्य कारण था कहकर गद्दर का ही नहीं बल्कि अन्य जानकार लोगों का भी मानना था। बाद में गद्दर अपने इस प्रयास में सफल रहे। यह उनका संघर्ष ही था कि आने वाले दिनों में एनकाउंटर में मारे जाने वालों के शवों को उनके माता – पिता या उनसे सम्बंधित लोगों को सौंपा जाने लगा। प्रोसेशन निकालकर विप्लवी गीत गाते हुए उनका अंतिम संस्कार किया जाने लगा। दूसरा मुख्य कारण 1996 में वारंगल जन सभा में उनका तेलंगाना डिक्लरेशन था। पृथक तेलंगाना पर किसी भी तरह की बात कहना आंध्रा का दबदबा रहने वाली सरकार के लिए बरदास्त से बाहर था। नक्सलवादी आंदोलन से भी सरकार बौखलाई हुई थी। माना जाता है कि इन्ही सब कारणों से उन पर हमला हुआ था।

हमले के एक महीने बाद उन्हें प्रेस क्लब से बुलावा आया था। वहां पर उन्होंने बतलाया कि उनके बचने का एक मुख्य कारण, पार्टी के सशस्त्र दल में उनका काम करना ही था। उन्होंने दंडकारण्य के जंगलों में भूमिगत होकर कार्य किया था। वे दल में एक साधारण सदस्य के तौर पर ही थे। दल सदश्य के रूप में उन्हें फायर करना ही नहीं, शत्रु के बुलेटों से बचने की ट्रेनिंग भी दी गयी थी। यही ट्रेनिंग उनके काम आयी थी। इस ट्रेनिंग ने ही उनकी जान बचायी थी। पहली गोली लगने के बाद वे अलर्ट होकर अपने आपको बचाने के लिए जमीन पर लेट गए थे। पॉइंट ब्लेंक रेंज से फायर के बाद भी वे अपने आपको बचाने में सफल रहे। उस समय उनकी पत्नी विमला ने भी उन्हें बचाने का साहसिक प्रयास किया था। पहले फायर की आवाज़ सुनकर वह फुर्ती से वहां पहुँच गयी थी और फायर करने वाले के सामने जाकर आड़ा खड़ा हो गयी थी। फायर करने से रोकने के लिए उसने उसे पकड़ लिया था। शायद फायर करने वाले का टारगेट गद्दर ही था इसलिए उसने उस पर फायर नहीं किया था। विमला के आड़ा आने पर उसने जमीन पर लेटकर फायर किया था। इस तरह उस पर एक के बाद एक छः फायर हुए थे।

अस्पताल के बेड पर ही गाना

हमले के बाद हॉस्पिटल में भर्ती कर ऑपरेशन कर बुलेटों को बाहर निकालने के बाद वे दो दिनों तक पूरी तरह बेहोश थे। तीसरे दिन उन्हें होश आया। होश आते ही वे अपनी ऊंचीं आवाज में मंच पर गाने की तरह गाने लगे थे वह भी कोई विप्लवी गीत। यह आवाज अस्पताल में गाज गिरने की तरह थी। नर्स, डाक्टर, अटेंडर, पेसेंट सब हड़बड़ाते उनके पास भागते हुए आये थे। ‘क्यों क्या हो गया?’ कहकर पूछा था। ‘मेरे सारे अंग काम करना बंद कर दें भी तो परवाह नहीं पर कंठ को सही सलामत रहना चाहिए। यही देखने के लिए गा रहा था’ कहकर उनका जवाब था। इससे पता चलता है कि कंठ को ही अपना जीवन मानते थे। गीत गाना ही उनका प्राण था। बिना गाये वे जिन्दा नहीं रह सकते थे। दूसरे शब्दों में कहें तो गद्दर याने गाना, गाना याने गद्दर।

तेलंगाना आंदोलन

गद्दर आरम्भ से ही पृथक तेलंगाना आंदोलन से जुड़े रहे। वर्ष 1969 में छात्रों का जो पृथक तेलंगाना आंदोलन आया था, उसमे उन्होंने बहुत ही सक्रिय तौर पर हिस्सा लिया था। जैसा कि बतलाया जा चुका है गद्दर ही थे जिन्होंने 1996 में वारंगल जन सभा में पहली बार तेलंगाना डिक्लरेशन की घोषणा की थी। यह वह समय था जब तेलंगाना का नाम लेना भी आंध्रा का दबदबा रहने वाली सरकार के लिए बरदास्त से बाहर था। तेलंगाना की जनता भी पृथक तेलंगाना के मामले में दिशाहीन सी हो गयी थी। उनके इस डिक्लरेशन से उनमे एक आशा की किरण फूटी थी और यही डिक्लरेशन आगे चलकर दावानल में परिवर्तित हुई थी। इसके बाद वर्ष 2002 से जब दुबारा आंदोलन ने तेजी पकड़ना आरम्भ किया तो इसमें भी वे बहुत ही सक्रिय रहे। पृथक तेलंगाना आंदोलन के प्रति तेलंगाना की जनता में चेतना जागृत करने के लिए ‘तेलंगाना धूमधाम’ नाम से एक साँस्कृतिक मंच की स्थापना हुई थी। यह मंच जगह-जगह जाकर प्रदर्शन देती थी। गद्दर के प्रवेश ने इसमें आग में घी का काम किया। उसे अधिक तेजी और एक नयी दिशा मिली। पृथक तेलंगाना आंदोलन में ‘तेलंगाना धूमधाम’ की बहुत ही प्रमुख भूमिका रही है। तेलंगाना की जनता इससे इतनी प्रभावित हो गयी थी कि प्रायः हर गाँव, हर देहात में इसके टीम बनते गए थे। गद्दर एक तरफ इस पृथक तेलंगाना आंदोलन से जुड़े रहे तो दूसरी तरफ नक्सलवादी आंदोलन में भी अपनी भागीदारी निभाते रहे।

नक्सलवादी आंदोलन में वर्ष 1971 से ही वे क्रांतिकारी आंदोलन से जुड़े रहे। गांव गांव घूमते हुए आर वाई एल यानी कि रैतू कूली संघम (खेतिहर मज़दूर संघ) की सभाओं में सांस्कृतिक प्रदर्शन देते हुए वे लोगों में चेतना जागृत करते रहे। शोषण के विरुद्ध आवाज उठाते रहे। उन्होंने जन नाट्य मंडली को केवल अपने तक सीमित नहीं रखा। नए- नए ट्रूप बनाते चले जाते थे। ऐसे बनने वाले जन नाट्य मंडली के यूनिटों की संख्या की तरफ जब नजर दौडते है तो आश्चर्य चकित हुए बिना नहीं रह सकते हैं। 1985 में इन यूनिटों की संख्या 8000 थी। अगर एक- एक ट्रूप में 10 की संख्या ली जाय तो इस हिसाब से सदस्यों की संख्या 80,000 से कम नहीं रहेगी। घोर निर्बंधों के बीच भी वे सीना तानकर प्रदर्शन देते थे।

‘जोतने वाले कि जमीन’ बैनर तले आर वाई एल ने हजारों एकड़ भूमि का बंटवारा किया था। वेट्टि चाकिरी (जमींदारों द्वारा मुफ्त में कार्य करवाने कि प्रथा, बेगारी प्रथा), बंधुआ मजदूरी के तरह के सामंती शोषणों को बंद करवाया था। खेतिहर मजदूरों के मजूरी दर को बढ़वाया था। भूस्वामियों का गावों में बहिष्कार किया था। धोबी, हजाम जैसे सभी लोगों ने उनकी हवेली में काम करना बंद कर दिया था। मजदूरों ने खेतों में काम करना बंद कर दिया। उन्हें गांव छोड़कर शहर की तरफ भागने के लिए मजबूर कर दिया था।

गद्दर ने आदिवासियों के बीच भी लगातार प्रोग्रम दिया था। ‘गिरिजन रैतू कुली संघम’के बैनर तले आदिवसियों ने भी अपनी मुक्ति के लिए संघर्ष का मार्ग चुना। 20 अप्रेल 1981 के दिन आदिलाबाद जिले के इंद्रवेल्ली आदिवासी गांव में गिरिजन रैतू कुली संघम के सभा का आयोजन किया गया था। उसमें गद्दर भी अपने ट्रूप के साथ मौजूद थे। उस समय पुलिस द्वारा किये गए गोलीचालन में सरकारी आंकड़ों के अनुसार 20 आदिवासी मारे गए थे जबकि आदिवासियों और अन्य का मानना था कि मरने वालों कि संख्या 60 से कम नहीं थी। बहुत बड़ी संख्या में लोग हताहत हुए थे। आज भी इस नरसंहार की तुलना जलियांवाला बाग हत्याकांड से की जाती है।

1985 से 1990 के दौरान उन्होंने भूमिगत होकर दंडकारण्य के जंगलों में सशस्त्र दल के साथ आदिवासियों के बीच काम किया था। तब वहां उन्होंने ‘चैतन्य नाट्य मंच’ की स्थापना कर आदिवासी अंचल में जगह-जगह सांस्कृतिक कार्यक्रम प्रदर्शन देते हुए आदिवासियों में अपने हक़ के लिए संघर्ष करने की चेतना फूंकते रहे। वहां पर उन्होंने लगभग एक लाख लोगों सांस्कृतिक प्रदर्शन में दक्ष किया। आज भी चैतन्य नाट्य मंच दंडकारण्य में सक्रिय है। वहां पर जो इतना लम्बा संघर्ष जारी है उसमे जन चैतन्य मंच के योगदान से इंकार नहीं किया जा सकता है।

1992 में‘प्रजा प्रतिघटना वेदिका’के बैनर तले उन्होंने कोलकता में भी जगह-जगह कार्यक्रम देते हुए लोगों में चेतना जागृत की थी। जब मर्री चेन्नारेड्डी 1990 में दुबारा संयुक्त आँध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री बने तो उस समय नक्सलवादी आंदोलन अपने पीक में था। उन्होंने स्ट्रेटजी के तौर पर नक्सलवादियों के प्रति बहुत ही नरम रुख अपनाया। उस पर बैन हटा दिया। उस समय गद्दर भी अपने भूमिगत जीवन से बाहर आये। बैन हटने पर पी डब्लू जी ने 1990 में वरंगल में अपनी सभा की, जिसमें माना जाता है कि 10 से 15 लाख लोगों ने हिस्सा लिया था। इस सभा में ग़दर ने अपनी टीम के साथ घंटों सांस्कृतिक कार्यक्रम पेश किया था। अंत तक समां बांधे रहे थे। सभा में जब वे आंदोलन में अमर होने वाले युवकों के बारे में गीत गाते थे तो सभा में उपस्थित हर मां-बाप को लगता था कि वे उनके अपने बच्चों के बारे में ही गा रहे हैं। लोग फूट-फूट कर रोने लगते थे।

तेलंगाना का सिंगरेनी कोयला खदान भी नक्सलवादी गतिविधियों का गढ़ रहा है। इसका रक्त से भरा इतिहास है। यहाँ के कई युवकों ने इस आंदोलन में अपने प्राणों कि आहुति दी है। बैन हटने के बाद बेल्लमपल्ली में भी सभा हुई थी। इस सभा का आयोजन सिंगरेनी कोयला खदानों के अपने ट्रेड यूनियन ‘सिकासा’ (सिंगरेनी कार्मिक समाख्या) के बैनर तले हुआ। लाखों लोगों की इस सभा में भी गदर शेर कि तरह दहाड़े थे। घंटों उन्होंने कार्यक्रम देकर सभा को बांधे रखा था।

हैदराबाद के निजाम कालेज में जब सभा हो रही थी तो अचानक तेज बारिश आरम्भ हो गयी थी। लोग जाने लगे थे। तब उन्होंने मंच पर से घोषणा की थी- ‘बारिश से मत डरो। हम हमारी समस्याओं पर चर्चा करने के लिए यहाँ पर एकजुट हुए हैं। इस अवसर को मत खोओ। चाहो तो बारिश से बचने के लिए कुर्सी को उल्टा उठाकर सर पर रख लो।’ और आश्चर्य कि करीब एक लाख लोगों ने वर्षा में भीगते हुए, वर्षा के बौछारों से बचने के लिए कुर्सियों को सर पर उठाकर पूरे दो घंटों तक कार्यक्रम देखा था।

फिल्मों में गद्दर

जैसा कि पहले बतलाया जा चुका है वर्ष 1980 में बी. नरसिंगराव ने ‘मा भूमि’ नाम से एक फिल्म का निर्माण किया था। यह फिल्म 1948 के तेलंगाना कृषक सशस्त्र आंदोलन पर बनी थी। इसमें उस आंदोलन के यादगिरी नामक संस्कृतकर्मी आंदोलनकारी का रोल गद्दर ने ही निभाया था। ‘बंडेनका बंडी कट्टी / पदहारू बंडी कट्टी /… नी गोरी कडतम कोड़का / निजाम सरकारोड़ा/’… कहकर निजाम सरकार को ललकारते हुए जो गाना था वह उन्होंने स्वयं गाया था। इस गाने ने लोगों में एक अजीब उत्साह भर दिया था। लोग सिनेमाघर में ही गाने के साथ सुर में सुर मिलाकर गाने लगते थे। सारा हॉल इस गाने से गूँज पड़ता था। आज भी इस गाने को सुनते हुए लोग झूम उठते हैं। प्रायः हर पार्टी कार्यक्रम में यह गाना गाया जाता है।

जब वर्ष 2011 में तेलंगाना आंदोलन अपने चरम पर था तब ‘जय बोलो तेलंगाना’ नाम से इस आंदोलन से सम्बंधित एक फिल्म बनी थी। स्मृति ईरानी, जो इस समय केंद्र सरकार में मंत्री पद पर है, ने भी इसमें माँ की प्रमुख भूमिका निभायी थी। गद्दर ने भी इसमें -‘पोडुस्तुन्ना पोद्दू मीदा / नडुस्तुन्ना कालमा / पोरू तेलंगानमा… पोरू तेलंगानमा’… गाना स्वयं गाते हुए अभिनय किया था। इसे भी लोगों ने बहुत सराहा था। आज भी यह गीत लोगों की जबान पर है। गद्दर के गाने तेलंगाना की जनता की रग-रग में समाये हुए हैं। पार्टी कार्यक्रमों की तो बात ही अलग है, शादी-ब्याह आदि के मौकों पर भी लोग ये गाने डीजे पर लगाकर झूमते हुए नाचते हैं।

‘सिरुमल्ले चेट्टुकिंदा किन्दा, लछुमम्मा-लछुमम्मा’ (मोगरे के बेल तले लछुमम्मा-लछुमम्मा) कहते जब वे अपनी माँ से सम्बंधित गाना गाते थे तो उसे सुनकर लोगों के आँसू रोकने पर भी नहीं रुकते थे। ग़दर की मां लछुमम्मा ने किसी तरह कुली मजूरी करके उसे पढ़ाया – लिखाया था। उसने ने सोचा था कि बेटा बुढ़ापे में उसका सहारा बनेगा। परन्तु उसने आंदोलन का मार्ग चुना। 1980 में जब वह भूमिगत था तो उसकी मुलाकात उसके ही गांव के एक जान- पहचान वाले व्यक्ति से हुई थी। उसने उस व्यक्ति से अपनी माँ का हाल-चाल पूछा तो उसने बतलाया कि वह घोर गरीबी में जी रही है। बहुत ही उदास रहती है। उस समय गद्दर ने अपनी मां को सम्बोधित करते हुए यह गाना लिखा था। पर यह गाना केवल उसकी अपनी मां का गाना ही नहीं था, बल्कि तेलंगाना के बहुत सारे मांओं का गाना भी था। उस समय तेलंगाना में कई मांओं की हालत भी उससे भिन्न नहीं थी। यह गाना जब मंच पर गदर गाता था तो सारा माहौल सिसकियों से भर उठता था। यह गाना गदर के एवर ग्रीन गानों में से है। बाद में अलग-अलग ट्रूप अपनी आवश्यकता के अनुसार इसमें जोड़ते-घटाते रहे। यह गाना तेलंगाना के हर मां को अपना गाना लगता था।

उनके गानों का लोगों पर इतना प्रभाव पड़ता था कि उनके प्रोग्राम देकर जाने के बाद वहाँ के युवक स्वयं अपना दल बनाकर गाने लगते थे। 1995 में ‘ओरेय रिक्सा’ (अरे रिक्सा) फिल्म में उनके गाने ‘मल्ले तीगा कु पंदिरी वले (चमेली के लता के लिए चंदवा सा) गाने के लिए उत्तम गीत लेखन का नंदी पुरस्कार (आंध्रप्रदेश सरकार द्वारा फिल्मों के लिए दिया जाने वाला पुरस्कार ) के लिए वे चयनित हुए थे, परन्तु उन्होंने वह प्रस्ताव ठुकरा दिया था। 2012 का बेस्ट प्लेबैक सिंगर का नंदी अवार्ड भी उन्हें ‘जय बोलो तेलंगाना’ फिल्म के टाइटल सांग ‘जय बोलो तेलंगाना… ‘ के लिए दिया गया। अवार्ड से आयी सारी धनराशि उन्होंने जातिगत हिंसा का शिकार होने वाले दलितों में बाँट दिया था।

वे एक लीजेंड थे और लीजेंड कभी मरता नहीं है

गद्दर ने समाज के हर पीड़ित वर्ग के लिए गाया था। भंगियों के लिए गाया था, चमारों के लिए गाया था, जुलाहों के लिए गाया था, बीड़ी बनाने वालों पर गाया था, खदान कामगारों पर गाया था, फैक्ट्री में काम करने वाले मजदूरों पर गाया था, किसानों पर गाया था, खेत मजदूरों पर गाया था, रिक्से वालों पर गाया था, महिलाओं पर गाया था, बंधुआ मजदूरों पर गाया था, यहाँ तक कि पुलिस वालों पर भी गाया था। उन्होंने दलित आंदोलनों को समर्थन दिया, पिछड़े जातियों के आंदोलनों को समर्थन दिया, अल्प संख्यकों के आंदोलनों को समर्थन दिया। उनका मानना था कि इस तरह का हर आंदोलन, हर संघर्ष समाज में परिवर्तन का कारण है। ये सब क्रन्तिकारी संघर्ष के भिन्न रूप हैं। इसलिए समाज में छोटा सा भी चलन आया तो उन्होंने उसे अपने गीतों में रिकार्ड किया। गद्दर ने समय और समाज के मांग के अनुकूल अपने गीतों की रचना की। उनके गीत गानों में हास्य होता है। लोगों को बांधे रखने की शक्ति होती है। पर वह हास्य उसमें अंतरलीन होता है। हास्य ही मुख्य नहीं होता है।

उनके गीतों में व्यवस्था पर करारा व्यंग होता है। उन्होंने सभी मुख्यमंत्रियों पर उनके कार्यकालों में ही गंभीर टिपण्णी करते हुए, उन पर दहाड़ते हुए गाया था। उन पर करारा व्यंग किया था। उन्होंने न तो मुख्यमंत्री वेंगलराव को छोड़ा, न एन टी रामाराव को, न चन्द्रबाबाबू नायडू को, न राजशेखर रेड्डी को और न ही कलवाकुंट्ला चंद्रशेखर राव को। उस्मानिया विश्वविद्यालय के तेलुगू साहित्य के प्रोफ़ेसर काशीम के अनुसार ‘वे एक लीजेंड हैं। अगर तेलुगू साहित्य के एक हजार वर्षों का लेखा-जोखा निकाला जाये, आदिकाल से अब तक के पद्य साहित्य में युगकर्ताओं की बात की जाये तो, जहाँ आदिकालीन युगकर्ता नन्नय्या थे तो, उनके बाद पालाकुर्ति सोमनाथ, बाद में अल्लसानी पेद्दन्ना, गुरजाडा अप्पाराव, श्री श्री और इसी क्रम में आते हैं गद्दर। 1970 से 2023 तक के काल के युगकर्ता थे गद्दर। महाकवि श्री श्री का साहित्य केवल मध्यम वर्गीय बुद्धिजीवियों तक ही सीमित रहा है। उनका साहित्य केवल चार दीवारों के बीच, बंद कमरों में पढ़ा जाता है। जबकि गदर का साहित्य खुले वातावरण में व्याप्त है। वह आम जनता के नस-नस में समाया हुआ है। वे एक लीजेंड हैं और अंग्रेजी कहावत के अनुसार- लीजेंड नेवर डायज यानी कि लीजेंड कभी नहीं मरता है… यद्यपि भौतिक तौर पर उनकी मृत्यु हो गई है, परंतु लोगों के दिलों में वे आज भी जिंदा हैं।

नौकरी करते हुए भी वे प्रदर्शन देते थे। एमरजेंसी में गिरफ्तार कर उन्हें सींकचों के पीछे धकेल दिया गया था। एमरजेंसी के बाद जब वे छूटकर बाहर आये थे तो वे जिस झोपड़ी में रहते थे उसे ही उन्होंने गीत-गानों की संस्था के रूप में बदल दिया था।

दिल्ली यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर पी. केशव कुमार के मुताबिक मार्क्स, लेनिन और माओ के फिलासफी को, उनके सिद्धांतों को, बहुत ही सरल तरीके से अपने गानों के द्वारा, अपने गीतों के द्वारा लोगों के दिल और दिमाग में उतारते थे। ना तो अपने गीत-गानों में मार्क्स का या मार्क्सवाद का नाम लेते थे, ना माओ या माओवाद का और ना ही लेनिन या लेनिनवाद का। वे केवल अपने कंठ से ही नहीं गाते थे बल्कि अपने हाव-भाव से, अपनी आँखों से, अपने हाथों से, अपनी उँगलियों से, अपने घुंघराले बालों से भी गाते थे। उनका सारा बदन ही गानमय हो जाता था। गाने के साथ-साथ उनके नाचने की अदा देखने लायक होती थी। उस अदा पर लोग फिदा हो उठते थे। उनके साथ दर्शक भी झूम उठते थे। लोगों के पैर अपने-आप थिरकने लग जाते थे।

शायद वे बीस साल जीते

शायद वे बीस वर्ष और भी जीते लगता है बुलेटों ने उनकी जिंदगी के करीब 20 वर्ष हर लिए। अगर उन पर कातिलाना हमला न हुआ होता, छः बुलेट उनके बदन में न धंसे होते, रीठ की हड्डी में धंसा बुलेट अगर उनकी बची जिंदगी का हिस्सा न बना होता तो शायद वे और 20 वर्ष जिए होते। रीठ की हड्डी में बुलेट के साथ 26 वर्षों तक का हर पल का सहवास कोई हंसी खेल नहीं है। इस बुलेट ने उन्हें हृदय रोग के अलावा लंग्स और यूरिन से संबंधित बीमारी भी तोहफे में दिया था।

दोषी कौन है ? किसने आत्मघाती हमला किया था ? क्यों किया था ? यह वे जानना चाहते थे। दोषी को सजा हो यह उनका उद्देश्य नहीं था। अपने ऊपर हमला करने वाले के बारे में जानकारी पाने का उन्हें हक़ था। इसके लिए पिछले 26 वर्षों से हर सरकार के पास वे गुहार लगाते रहे। परन्तु उन्हें न्याय नहीं मिला। बिना इस जानकारी के ही वे चल बसे।

नक्सलवादियों के प्रतिनिधि के रूप में

वर्ष 1997 से एक तरफ जहाँ एक के बाद एक नक्सलवादी एनकाउंटर में मारे जा रहे थे वहीं दूसरी तरफ नक्सलवादी भी बहुत आक्रामक हो रहे थे। आए दिनों हिंसा की वारदातें होती रहती थी। इसी बीच वर्ष 2003 में जैसा कि पहले बतलाया जा चुका है आंध्रप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू पर भी तिरुपति में कातिलाना हमला हुआ था और वे बाल-बाल बचे थे। जनता शांति चाहती थी, बुद्धिजीवी वर्ग भी शांति चाहता था, इसीलिए सरकार और नक्सलवादियों के बीच शांति वार्ता की पहल हुई। इसके फलस्वरुप वर्ष 2002 और वर्ष 2004 में सरकार के प्रतिनिधियों और नक्सलवादियों के बीच आमने-सामने चर्चा हुई। इसमें नक्सलवादियों ने कल्याण राव और वरवर राव के साथ गद्दर को भी अपने प्रतिनिधि के रूप में भेजा था।

संविधान के घेरे में ही हक की लड़ाई

2012 से वे संविधान के घेरे में लोगों के हक के लिए लड़ने लगे थे। संविधान के घेरे में ही अन्याय के विरुद्ध, जुल्मों के विरुद्ध, समाज के निचले तबके वालों के लिए, दलितों के लिए, महिलाओं के लिए, आवाज उठाते रहे। पार्टी कार्यक्रमों से अपने आपको अलग रखने के बावजूद भी जहाँ कहीं भी एनकाउंटर होता वे पहले की तरह ही वहाँ पहुँच जाते थे। अपने गीत-गानों द्वारा जमकर अपना विरोध दर्ज करवाते थे। अमर होने वालों के प्रति अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करते थे। प्रोसेशन के आगे-आगे विप्लव गीत गाते हुए चलते थे। अंतिम संस्कार होने तक साथ ही रहते थे। अपने अंतिम दिनों में अपने एक अंतरंग दुर्गा प्रसाद बंडी से उन्होंने कहा था कि वे स्वयं एक नयी पार्टी का निर्माण करना चाह रहे हैं। शायद उन्होंने इसकी रूप रेखा भी बना ली थी। पर इस पर अमल करने के पहले ही…

अंतिम सांस लेना

20 जुलाई 2023 के दिन अचानक तबीयत कुछ ज्यादा खराब हो जाने से उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया था। 3 अगस्त को उनका बाईपास सर्जरी हुआ। सर्जरी से वे उबर रहे ही थे कि 6 अगस्त 2023 के दिन उनके फेफड़े और यूरिनरी ट्रैक में समस्या आ गयी। इससे वे उबर न सके और उन्होंने अस्पताल के बेड पर ही अंतिम सांस ली।

राजकीय सम्मान से अंतिम संस्कार

उनकी प्रसिद्धि का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि एक क्रांतिकारी कार्यकर्ता होने के बावजूद उनका अंतिम संस्कार राजकीय सम्मान से हुआ। उनकी इच्छानुसार उनका अंतिम संस्कार सिकंदराबाद के आलवाल में स्थित महाबोधि स्कूल के प्राँगण में बौद्ध धर्म के प्रथा के अनुसार किया गया। इस महाबोधि स्कूल की स्थापना स्वयं गदर ने गरीब विद्यार्थियों के लिए की थी। इसमें पहली कक्षा से लेकर दसवीं कक्षा तक पढ़ाई होती है। गरीब और बेसहारा बच्चे पढ़ाई से वंचित न हों इस उद्देश्य से उन्होंने यह स्कूल आरंभ किया था।

पार्टी जंगल में थी और वे बाहर थे

वे जिस पार्टी के लिए काम कर रहे थे वह पार्टी भूमिगत होकर जंगल में रहती थी। जो भी कार्य करना है खुले में आकर करती और फिर जंगल में लुप्त हो जाती। परन्तु गद्दर बाहर थे। भूमिगत पार्टी के कार्यकलापों का प्रभाव उन पर पड़ता था। तनाव उन्हें झेलना पड़ता था। तेलंगाना और आंध्र में ही नहीं कर्नाटक और महाराष्ट्र में भी उन पर केस बुक थे। कहा जाता है कि उन पर कुल मिलाकर 37 केस थे। पेशी पर पेशी। हर वक्त वे कोर्ट-कचहरियों के चक्कर काटते ही रहते थे। एक वर्ष, दो वर्ष नहीं बल्कि पिछले सत्रह – सत्रह, अठारह – अठारह वर्षों से। एक तो रीठ में बुलेट, दूसरा ये केस। दोनों नासूर से बन गए थे। इन सब तकलीफों के बावजूद भी वे अक्सर कहा करते थे- ‘गाते – गाते मरूंगा मैं /मरते – मरते गाऊँगा मैं…

वे एक वाज्ञेयकार थे

वे केवल रंगकर्मी, सांस्कृतिक कर्मी, गीतकार, गायक ही नहीं थे बल्कि एक सक्रीय एक्टिविस्ट भी थे। उन्होंने जितने गीत गाने लिखे और स्वयं ही गाये शायद सारे संसार में उतने किसी ने नहीं लिखे और गए होंगे। इस मामले में वे सूरदास और कबीरदास कि तरह एक वाज्ञेयकार थे। गद्दर में लाखों लोगों को घंटों मैनेज करने की सामर्थ्यता थी। इतनी सामर्थ्यता सारे संसार में शायद ही किसी में होगी। उनका प्रोग्राम कोई एंटरटेनमेंट का, मनोरंजन का प्रोग्राम नहीं होता था। एक क्रन्तिकारी राजनितिक पार्टी से सम्बंधित प्रोग्राम होता था। और एक क्रन्तिकारी राजनितिक पार्टी के प्रोग्राम में इतना जन समूह? बड़े-से-बड़े एंटरटेनमेंट प्रोग्रामों में भी इतने जन समूह की कल्पना नहीं की जा सकती है। पर इनके प्रोग्रामों में तो लाखों का जन प्रवाह और इस जन प्रवाह को घंटो सालतापूर्वक मैनेज करने की उनकी सामर्थ्यता। इसका और कोई सानी नहीं है।

आज गद्दर हमारे बीच नहीं है, परंतु अपने गीत-गानों के द्वारा वे लोगों के दिलों में अभी भी मौजूद हैं। और फिर से यह बात दुहराते हुए कहना चाहूंगा कि वे ‘एक लीजेंड हैं और लीजेंड कभी मरता नहीं है।’ और अंत में उनका एक गीत ‘मूक होने वाले कंठ से…’ गद्दर ने अपनी मृत्यु पर स्वयं गाया था। शायद अपनी मृत्यु का पहले ही उन्हें आभास हो गया था। और आश्चर्य की यही उनका अंतिम गीत था।

मूक होने वाले कंठ से…

मूक होने वाले कंठ से
राग कौन निकालेगा ?
ठन्डे पड़े कंठ में
प्राण कौन फूंकेगा ?
लोकगीत के जीवकणों में
जीवन कौन घोलेगा ?
मूक होने वाले कंठ से….

फटी धोती और रुमाल
कौन अब लपेटेगा ?
रूठने वाले इस कम्बल को
कौन गले लगाएगा ?
उदास हो चली इस लाठी को
कौन अब घुमायेगा ?
मूक होने वाले कंठ से…

फूटे हुए डप्पू (डपली) को
कौन अब बजायेगा ?
फटे ढोलक की आत्मा को
कौन गले लगाएगा ?
टूटे इस वीणा के तारों को
कौन अब सहलायेगा ?
मूक होने वाले कंठ से…

गनिगा…गनिगा …
ओहो … अहा… ओहो …
मूक होने वाले कंठ से…

अमर होने वालों के
स्वप्न गीतों का
आलापन अब कौन करेगा ?
जननी मां के गर्भ शोकों को
कौन शिशु सहलायेगा ?
बिखरे पड़े गीतों को
कौन अब जमायेगा ?
मूक होने वाले कंठ से….

हाथ जोड़कर शरण मांगे तो
शरण अब कौन देगा ?
मरघट में पांव पसारने पर
गीत कौन अब गायेगा ?
न… न… न… न…
न… रे… रे… रे… रे…
बन्दूक के सामने
खड़े होने वाले छर्रों को
कौन अब छिपायेगा ?
मूक होने वाले कंठ से…

लेखक का पता- 12-285 गौतमीनगर, मंचरियल 504208 (तेलंगाना)
मोबाइल : 8179117800, ईमेल: nrshyam1327@gmail.com

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