शिक्षक दिवस 2024 पर विशेष: अपनो से अपनी बात

5 सितम्बर विश्वप्रसिद्ध भारतीय दार्शनिक, महान शिक्षक, गंभीर विचारक और हमारे देश के राष्ट्रपति पद को सुशोभित कर चुके डॉ.राधाकृष्णन जी की जयंती है। इस दिवस को ‘शिक्षक दिवस’ के रूप में मनाया जाता है। हमें डॉ राधाकृष्णन ने शिक्षा और चिंतन का एक आधार, एक दृष्टिकोण प्रदान किया है। आज आवश्यकता है उसे समझने की, वे लिखते हैं – “मनुष्य का विकास खुद- ब- खुद नहीं होता। ऐसी कोई चीज नहीं जोवंशानुक्रम और प्राकृतिक चुनाव के नियमों के अनुसार स्वतः घटित होती हो। मनुष्य का विकास तभी होता है जब वह इसके लिए चौकस होकर कोशिश करता है। जैसाकि वह है, मनुष्य एक अपूर्ण प्राणी है।

उसे अपना पुनः-पुनः संस्कार करना है और पुनः-पुनः विकसित होना है; उसे सार्वभौम जीवन की चेतना-धारा को अपने भीतर से प्रवाहित होने देना है। जिन लोगों ने अपना विकास कर लिया है, जिन्होंने अपने भीतर छिपी संभावनाओं को पहचान लिया है और जिनकी चेतना का पुनर्जन्म हो चुका है, ऐसे ही लोग दूसरों के लिए आदर्श तथा पथ-प्रदर्शक बनते हैं।” इस उद्देश्य की प्राप्ति, यह विकास शिक्षा द्वारा ही संभव है। आज उनकी जयंती पर सबसे अच्छी, सुन्दर और सदुपयोगी पुष्पांजलि यह होगी कि हम भारतवासी न केवल उनके दिखाए मार्ग का अनुसरण करें अपितु वर्तमान में शिक्षा और शिक्षण की समस्याओं को समझें, उसके निराकरण का प्रयास करें और इस शिक्षक दिवस को सार्थक बनाये। तो आइये प्रारंभ करते है एक विमर्श, अपनों के बीच, शिक्षकों और शिक्षार्थियों के बीच, जन-मानस के बीच।

मित्रों! हमने प्रायः हमेशा ही सुना है- शिक्षक, शिक्षा, विद्यार्थी और विद्या को शब्दरूप में; परन्तु क्या गुना है- इनके अर्थ को, भावार्थ को?… इसके शब्दार्थ को, इसके निहितार्थ को? एक शिक्षक क्या है, हाड़-मांस का एक पुतला? जिंदा लोथड़ा या ऐसा कोई व्यक्तित्व जो कक्षा में खड़े-खड़े, खींचता रहता है- कोई चित्र, कोई सूत्र, काले-चिकने बोर्ड पर; रंग – विरंगे चाक से? क्या शिक्षक योग्यता रूपी प्रमाण-पत्रों के आधार पर, स्वयं अपनी, अपने परिवार का पेट पालने की सामाजिक स्वीकृति मात्र है? जी नहीं, शिक्षक एक पद है, एक वृत्ति है; संपूर्ण सामाजिक दायित्व का बोध करने वाला कृति है।

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शिक्षक सांस्कृतिक बोधि और प्राकृतिक चेतना की संपूर्ण सम्बोधि है। शिक्षक एक माली है, कुम्भकार है, शिल्पकार और कथाकार है जो गढ़ता है देश के भविष्य को, सभ्यता, संस्कृति को, संतुलित मनोरम प्रकृति को। अरे! वह तो निर्माता है, सर्जक है, नियंता है, प्रणेता है- सन्मार्ग का। ऐसे शिक्षक वर्ग को, उनके संवर्ग को, उनकी वृत्ति को, उनकी कृति को, उनकी संस्कृति को सादर नमन। और शिक्षा क्या है आजीविका प्राप्त करने का, पेट भरण, कोरी क्षुधा तृप्ति का माध्यम? या समुन्नत राष्ट्र निर्माण में भागीदारी रचनात्मक भूमिका, सृजनात्मक कोई जिम्मेदारी?

परन्तु आज निराशा क्यों है? शिक्षक रूपी माली, कुम्भकार, शिल्पकार और कथाकार, सभी हैरान है, परेशान है। वे कहते हैं अपनी पीड़ा- ‘सोचा था यह डाली लाएगी फूल और फल, फैलाएगी- हरितिमा, सघन छाया, ‘हरियाली’। परन्तु हाय! इस डाली से, क्यों टपकी यह खून की लाली? ये महानुभाव बड़े – बड़े उपाधि धारक हैं, परन्तु क्या कहूँ इनकी गति? कैसी हो गयी है इनकी मति?कभी-कभी तो ये ऐसे कार्य करने में भी नहीं शरमाते जिसे कहने में हमें शर्म आती है। देखो यह कैसा अनर्थ है? क्या हमारी सम्पूर्ण शिक्षा ही व्यर्थ है? वह सोचता है; मेरे श्रम-परिश्रम में तो कोई खोट तो नहीं थी मेरे मित्र! फिर इस आकर्षक घट में, मृदुल जल की बजाय छिद्र क्यों है? और इस नवीन, प्रगतिशील कहे जाने वाले कला-कृतियों में; संगीत के स्वरों में, ओज और माधुर्य के स्थान पर, यह नग्नता और विकृति क्यों है?

वह ढूढता है कारण इन सबका, पाता है कारण है सबका ही एक; नहीं किया तूने ‘शिक्षा’ और ‘विद्या’ में भेद। इसी विद्या के अभाव में, शिक्षा का उत्पाद दम्भी अभियंता विकास के नाम पर देश का धन चूसता है, डॉक्टर चिकित्सा के नाम पर अभिवावकों का खून चूसता है, कुछ लोग संविधान की मर्यादा चूसते हैं। ऐसे में हैरानी क्यों है? बात दिल्ली की निर्भया की हो, मणिपुर की हो या कलकत्ता की हो अथवा देश के किसी भी भू भाग के निर्भया की हो? यह विकृत मानस, उद्दाम क्रूरता, वीभत्स वासना मन मस्तिष्क में क्यों है? समझो इस टहनी में, पौध मे, वृक्ष मे यह खून की लाली क्यों है? तो मेरे भाई! ‘विद्या’ क्या है? कुछ करो विचार, अच्छी लगे तो करो स्वीकार।

विद्या है- मानव को महामानव में रूपान्तारण की तकनीक; मानव के अंतर की टिमटिमाती दीप को, प्रदीप्त और प्रखर करने की अचूक रीति। क्या आज इस बात की आवश्यकता नहीं कि शिक्षा के साथ विद्या को भी अनिवार्य रूप में जोड़ दिया जाय? शिक्षा ढेर सारी आय का, धनोपार्जन का साधन तो हो सकती है, परन्तु; उसके उपयोग-सदुपयोग की कला तो ‘विद्या’ के ही पास है। शिक्षा श्रब्यज्ञान है- यह पुस्तकीय है, व्याख्यान है, अख्यान है, सत्याभास है। यह स्व प्रधान, काम-प्रधान, रागी-विषयी, भोग प्रधान है।

विद्या संपूर्ण ज्ञान, स्वानुभूति और आत्मोपलब्धि है। यह तत्व साक्षात्कार है; यह सर्वगत, समष्टिगत, समदर्शी, तत्वदर्शी, वीतरागी, योग-प्रधान, त्याग प्रधान है। विद्या लभ्यज्ञान है – स्वानुभूति है, भूमा है, नित्य है, सत्य है। इसलिए शिक्षा के उत्पाद को, सुख-शांति की सर्वदा तलाश है, जबकि ‘सुख – शांति – संतोष’ तो विद्या का स्वाभाविक दास है। मेरे मित्र! अब तो ग्रहण करो ‘विद्या’ को, इस तरह खड़ा तू क्यों उदास है? यह सतत ध्यान रहे – “यो वै भूमा तत्सुखं नाल्पे सुखमस्ति”, (सर्व में ही, पूर्ण में ही सुख है, अल्प में नहीं।) अतएव शरणागत हो सदगुरु के जो तेरे ही पास है।

अन्त में एक और प्रश्न, एक समस्या जो शिक्षार्थी और शिक्षक दोनों ही वर्ग उठाते हैं और उनका निहितार्थ भी प्रायः एक ही है- ‘असंतुष्टि’. शिक्षक की शिक्षार्थी से और शिक्षार्थी की शिक्षकों से है- ‘असंतुष्टि’। ऐसा ही प्रश्न प्रसिद्ध विचारक एवं शिक्षाशास्त्री जे. कृष्णमूर्ति जी से भी पूछा गाया था, उन्होंने जो उत्तर दिया था वह न केवल विचारणीय है बल्कि सामयिक भी। वे कहते हैं- “इसका स्पष्ट कारण यह है कि आपके शिक्षक अच्छी तरह पढाना नहीं जानते. इसका कोई गहरा कारण नहीं है, बस यही एक सीधा सा कारण है. आप यह जानते हैं कि जब कोई शिक्षक गणित, इतिहास अथवा अन्य कोई विषय, जिसे वह सचमुच प्रेम करता है, पढ़ाता है तब आप भी उस विषय से प्रेम करने लग जाते हैं; क्योकि प्रेम स्वयं अपनी बात कहता है। क्या आप यह नहीं जानते हैं? जब कोई गायक प्रेम से गाता है तो वह उस संगीत में अपनी समग्रता उड़ेल देता है, तब क्या आप में वही भावना नहीं पैदा होती है?

तब क्या आप स्वयं ही संगीत सीखने को नहीं सोचते? परन्तु अधिकाँश शिक्षकअपने विषयों को प्यार ही नहीं करते। विषय उनके लिए बोझ बन जाते हैं; पढ़ना उनकी आदत बन जाती है, जिसके माध्यम से वह अपनी आजीविका कमाते हैं। यदि आपके शिक्षक प्यार से अपना विषय पढाते तो क्या आप जानते हैं कि क्या होता? तब आप बड़े अद्भुत मानव बनते! तब आप न केवल अपने खेलों और पढ़ाई को ही प्रेम करते अपितु फूलों, सरिताओं, पक्षियों और वसुधा को भी प्रेम करते! तब आप के ह्रदय में सिर्फ प्रेम कि तरंगे होती और इससे सभी चीजें शीघ्रता से सीख पाते! तब आपका मन उदासीनता का माध्यम न होकर एकदम आनंदित होता।” आज यह ‘प्रश्न’ और यह ‘उत्तर’ दोनों ही अपेक्षाकृत और भी चिंतन- मनन का विषय वस्तु बन गया है।”

लेखक डॉ जयप्रकाश तिवारी लखनऊ उत्तर प्रदेश, संपर्क सूत्र: 9450802240/9453391020

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