एक साहित्यिक विमर्श- “कविता”: संवेदना बनाम बौद्धिकता

[संदर्भ: फेसबुक संदर्भ संलग्न है। वक्तव्य: फेसबुक पृष्ठ दिनांक 30/05/2024 तथा एक साहित्यिक मंच पर इसकी पुनरोक्ति तथा आज दिनांक 12/04/2025 को सचल दूरभाष 9839911815 से वार्ता में इसकी संपुष्टि भी।]

लखनऊ के वरिष्ठ साहित्यकार, समीक्षक विनय श्रीवस्ताव जी ने एक वैचारिक, साहित्यिक विमर्श छेड़ते हुए अभिव्यक्ति दी है, उनका कथन है कि “कविता में बौद्धिकता का पुट आते ही कविता नहीं रह जाती”। इस कथन से सर्वथा असहमत होते हुए एक उदाहरण के साथ अपनी बात पुष्ट करते हुए कहना चाहता हूं।

संपूर्ण विश्व का प्रथम लिपिकीय ग्रंथ आदिकवि महर्षि वाल्मीकि कृत “रामायण” बालकाण्ड का बहुचर्चित श्लोक- मां निषाद प्रतिष्ठां त्वमगम: शाश्वती: समा:। यतक्रौंच मिथुनादेकमवधी कम मोहितम में ही बौद्धिकता के द्वारा ही इस श्लोक के दो अर्थ “शाप” और “प्रशस्ति” परक बन जाते हैं। शाप और प्रशस्ति दोनों की अभिव्यक्ति के लिए संवेदना नितांत अनिवार्य तत्व है किंतु एक ही श्लोक में शाप और प्रशस्ति दोनों को उद्घाटित करना बौद्धिकता है। यही काव्य और कवि दोनों को यशस्वी बनाता है। इसलिए काव्य में शब्द शक्तियों (अभिधा, लक्षण, व्यंजना) का अपना विशिष्ट महत्व सर्वदा रहा है।

मां का एक अर्थ निषेध, दूसरा अर्थ मां सीता है, निषाद का एक अर्थ शिकारी, दूसरा अर्थ निवास करना होता है। लक्षणा से माता सीता के हृदय में निवास करने वाले राम है। क्रौच का एक अर्थ पक्षी”, दूसरा अर्थ कुटिल होता है। इस प्रकार एक संदर्भ में मथुन रूप में मोहग्रस्त, कामातुर “नर पक्षी का वध है” तो दूसरे अर्थ में मोहग्रस्त, “कामी मंदोदरी के पति रावण का वध है”।

इसी प्रकार पक्षी के संदर्भ मे यही श्लोक “शिकारी के लिए शाप, अपयश” और रावण के संदर्भ में “राम का प्रशस्ति गान, यशोगीत” बन जाता है। इस कविता या श्लोक में ये अर्थ और निहितार्थ किसकी देन है? क्या यह बौद्धिकता ही देन नही है जिसने इस काव्योगार् को एक अमर द्विअर्थी भावोदगार बना दिया?

यह भी पढ़ें-

यह संवेदनात्मक उद्गार एक ही साथ कविता की “संवेदना” भी है और “बौद्धिकता” भी और वाह भी एक ही साथ। एक अर्थ मे इस श्लोक में बहेलिया को शाप है और दूसरे अर्थ में राम का यशोगान भी है। संवेदना और बौद्धिकता के युग्म ने ही बाल्मीकि रामायण के इस प्रथम श्लोक को अमर काव्य, दिव्य श्लोक बना दिया है। रामायण की अमरता में इस श्लोक का विशिष्ट योगदान, महत्व है। इसलिए यह कथन सरवाथा निर्मूल, निराधार है कि कविता में बौद्धिकता नहीं होती। अरे सच तो यह है कि बौद्धिकता और संवेदना के उचित सामंजस्य के अभाव में कविता “कविता” ही नहीं होती। प्रस्तुत उदाहरण में संवेदना और बौद्धिकता दोनों ही चरमोत्कर्ष है।

वस्तुत: काव्य सौंदर्य के चार तत्व हैं –
1 – भाव सौंदर्य
2 – नाद सौंदर्य
3 – विचार सौंदर्य और
4 – बिम्ब सौंदर्य

इनमें से ‘विचार सौंदर्य’ को जो व्यक्ति न समझता हो बल्कि ‘विचार सौंदर्य’ होने पर कविता को कविता ही न मानता हो, वह कोई विकृत मानसिकता का व्यक्ति ही हो सकता है। उसे साहित्यकार कहना ‘साहित्यकार’ शब्द का, साहित्यकार की ”चेतना” और “संवेदना” का अपमान है।

यह मेरा विचार है! आवश्यक नहीं, सभी विद्वान विचारक इससे सहमत ही हों। किंतु अधिकांशतः वे अवश्य सहमत होंगे जो चेतना और संवेदना को काव्य का उत्स मानते हैं।

भय है कि बौद्धिकता के अभाव में कविता रहस्यमयी अभिव्यक्ति, लाक्षणिक और व्यंजना शक्ति खो देगी, यह कविता का पराभव होगा। केवल संवेदना के क्षणों में कविता “आह होगी”, “कराह होगी”, “वाह होगी”, “अल्लाद होगी”; किंतु फिर भी वह कविता न तो जीवन का प्रश्नपत्र बनेगी और न ही प्रश्नों से जूझने शक्ति या समाधान, न ही कोई उत्तर पुस्तिका ही होगी। कविता वस्तुतः कोई एक कालखंड नहीं, काल विशेष नहीं, संपूर्ण जीवन अभिव्यक्ति है।

कविताओं का पर्यावसान प्रबन्ध ग्रंथ में ही होता है। वह समग्र मानव जीवन का यदि प्रश्नपत्र है और उसका सम्यक समाधान भी है, उत्तर पुस्तिका भी है। इसलिए दोनों में (संवेदना और बौद्धिकता में) साम्य और संतुलन से ही काव्य में निखार, परिष्कार और मानवीय मूल्य की ग्रहयता विकसित होगी और यही तो काव्य, कविता और साहित्य का उद्देश्य है।

डॉ जयप्रकाश तिवारी (94533 91020)
बलिया, उत्तर प्रदेश

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Recent Posts

Recent Comments

    Archives

    Categories

    Meta

    'तेलंगाना समाचार' में आपके विज्ञापन के लिए संपर्क करें

    X