सर्वविदित है कि मनोरंजन और सिनेमा का अन्योन्याश्रित संबंध है। सिनेमा का प्रभाव लगभग हर क्षेत्र में जगजाहिर है। निरक्षर हो या साक्षर, कोई भी इससे प्रभावित हुए बिना बच नहीं पाता। वैसे भी दृश्य श्रव्य सामग्री का मनःमस्तिष्क पर अपेक्षाकृत अधिक प्रभाव पड़ता है। अपने शुरुआती दौर से ही सिनेमा ने छाप छोड़ना जारी रखा और आज भी इसका दबदबा है। यह न केवल मनोरंजन का सशक्त साधन है बल्कि अन्य अनेक बातों के साथ साथ भाषा शिक्षण में भी सहायक है। विदेशी भाषा शिक्षण में सिनेमा की महत्वपूर्ण भूमिका है।
हैदराबाद: केंद्रीय हिंदी संस्थान, अंतरराष्ट्रीय सहयोग परिषद तथा विश्व हिंदी सचिवालय के तत्वावधान में वैश्विक हिंदी परिवार की ओर से हिंदी भाषा श्रृंखला के अंतर्गत “हिंदी शिक्षण में फिल्मों का प्रयोग” विषय पर परिचर्चा का आयोजन किया गया। हिंदी शिक्षण में फिल्मों के प्रयोग पर विशेषज्ञों द्वारा अपने विचार प्रस्तुत किए गए जिसमें दुनियाँ के सभी महाद्वीपों के अनेक देशों से विद्वान और सुधी श्रोता लाभान्वित हुए।
आरंभ में दिल्ली से साहित्यकार प्रो राजेश कुमार द्वारा बड़े ही संयत भाव से कार्यक्रम की सारगर्भित पृष्ठभूमि के साथ विषय प्रवर्तन किया गया और सभी साहित्यकारों, अतिथियों, वक्ताओं और श्रोताओं का स्वागत किया गया। तत्पश्चात दिल्ली विश्वविद्यालय के सहायक प्रोफेसर विजय कुमार मिश्र ने धारा प्रवाह सधे शब्दों में संचालन की बखूबी बागडोर संभाली। उन्होंने कहा कि मंच की बात दूर तक जाती है और सिनेमा को माध्यम बनाते हुए भाषा शिक्षण के बिन्दुओं के मद्देनजर रोचक, उन्नत और प्रभावशाली शिक्षण किया जा सकता है। उन्होने बारी-बारी वक्ताओं का संक्षिप्त परिचय देते हुए आदर सहित आमंत्रित किया।
रेल मंत्रालय से सेवानिवृत्त राजभाषा निदेशक एवं तकनीकीविद डॉ विजय कुमार मल्होत्रा ने प्रभावी पावरप्वाइंट प्रस्तुति देते हुए कहा कि उन्होंने चवालीस गानों के शीर्षक आदि के साथ हिंदी शिक्षण बिन्दुओं पर “एडुटेंमेंट, नामक लिंक तैयार किया है जिसमें यह विषय समाहित है। इसमें फिल्म का नाम, उप शीर्षक, बोल, गाने, शिक्षण बिन्दु और ध्यान देने योग्य बाते सम्मिलित हैं। इसके अंतर्गत संज्ञा, सर्वनाम, क्रिया, विशेषण, काल और व्याकरण आदि के नियम उदाहरण सहित शामिल हैं। वाक्य विन्यास भी बहुत जरूरी है।जैसे मैं हूँ प्रयोग के लिए– मैं ऐसा गीत गाऊँ, ना मैं भगवान हूँ, मैं कमसिन हूँ आदि गानों के बोल दृश्य श्रव्य और रंगीन रूप में हैं। वे इन्हें जीवंत रूप में सुनाये और कक्षा की तरह समझाये। वर्तमान काल, भूतकाल और भविष्यत काल के उदाहरण भी दिये। जिसमें है, हैं, था, थे, थी, गा, गे, गी के अलावा “न” और “ना” के प्रयोग बताए। जैसे– सौ साल पहले …, अजी रूठकर अब कहाँ जाइएगा।
श्रीलंका आदि अनेक देशों में हिंदी पढ़ा चुके और माइक्रोसॉफ्ट आदि में सेवाएँ दे चुके श्री मल्होत्रा ने कहा कि बालीवुड फिल्मों में अंत्याक्षरी का भी प्रयोग हुआ है। जैसे– मेरे जीवन साथी, एक दूजे के लिए। पैरोडी भी बहुत सहायक हैं जैसे– “जब जीरो दिया मेरे भारत ने –।” प्रभावी डायलॉग दर्शकों को याद रहते हैं। जैसे फिल्म- नमस्ते लंदन (चंदू के चाचा ने चंदू की चाची से आदि ) प्रतिध्वनि के लिए– आओ बच्चों तुम्हें सुनाएँ आदि। बारहखड़ी और गिनती सीखने में भी कुछ गाने सहायक हैं। अनेक पुरस्कारों से सम्मानित श्री मल्होत्रा ने कहा कि स्वस्थ मनोरंजन के माध्यम से खेल- खेल में भी सायास-अनायास ही हिंदी सिखायी जा सकती है।
ऑस्ट्रेलिया से जुड़ी साहित्यकार प्रा रेखा राजवंशी ने कहा कि आज की पीढ़ी जन्मजात रूप से दृश्य श्रव्य रूप से जुड़ी है। फिल्में अभिन्न अंग बन गई हैं जो समाज को प्रभावित कर रही हैं। अहिंदी भाषियों और विदेशी मूल के विद्यार्थियों को हिंदी पढ़ाने का अनुभव साझा करते हुए उन्होने कहा कि हिंदी फिल्मों में डायलॉग प्रायः तेजी से बोले जाते हैं जिसे हम धीमी गति से चलाकर सुनाते हैं ताकि शिक्षार्थियों को सहज और बोधगम्य हो। उनका कहना था कि हिंदी फिल्मों की तरफ रुझान से दो विद्यार्थी फिल्मी दुनियाँ में ही कैरियर बनाने को उद्यत हुए। अपना निजी अनुभव बताते हुए उन्होंने कहा कि उनकी बेटी ने भी हिंदी सीखने में फिल्मों का सहारा लिया। “मेरा जूता है जापानी…” जग जाहिर है। सिनेमा के माध्यम से विद्यार्थी एक दो तीन चार गिनती के साथ दिनों, महीनों और ऋतुओं के नाम भी सीख जाते हैं।
आस्ट्रेलिया के समयानुसार देर रात में कार्यक्रम से जुड़ीं दीर्घानुभवी प्राध्यापिका श्रीमती रेखा जी ने कहा कि सिनेमा माध्यम से शिक्षण में मनोरंजन के साथ, समय की बचत और संवाद में सहजता होती है। अमेरिका से जुड़ीं हिंदी प्राध्यापिका डॉ कुसुम नैपसिक ने अपनी प्रस्तुति में कहा कि प्रारम्भिक स्तर पर हिंदी विद्यार्थियों के लिए सिनेमा आकर्षण का केंद्र बनाता है जिससे रुचि पैदा होती है। उन्होंने कहा कि हम तुम एक कमरे में बंद हों– जैसी पंक्ति से भारतीय भाषा, संस्कृति और परिवेश तथा परिधान आदि की जानकारी मिलती है। शिक्षण बिन्दुओं के साथ कक्षा में खाली स्थान भरो जैसे अभ्यास भी सहायक हैं। शिक्षक समुदाय का दायरा भी बढ़ा है अतएव भरपूर ज़िम्मेदारी से शिक्षण कार्य हो।
विशिष्ट वक्ता के रूप में गुरुग्राम विश्वविद्यालय के मीडिया प्राध्यापक डॉ राजेश योगी ने कहा कि निश्चय ही दृश्य श्रव्य, मानव मन के साथ सहज संबंध स्थापित करता है। अपने पूर्व कार्य स्थल उदयपुर का उदाहरण देते उन्होने बताया कि तत्समय वहाँ के लगभग हर कैफे आदि में एक फिल्म विशेष दिखाई जाती थी जिसकी सूटिंग के स्थल और अधिकांश कलाकार स्थानीय थे जिससे विदेशी पर्यटकों को भी दर्शनीय स्थानों को समझने में मदद मिलती थी। साक्षर या निरक्षर दर्शक सायास या अनायास ही सरलता से जुड़कर एकाकार होता है और आकर्षण से बहुत कुछ सीख जाता है। भाव विचार और प्राकृतिक दृश्य,सौन्दर्य बोध तथा भाषा संस्कृति आदि भारतीय भाषाओं में प्रचुर मात्रा में हैं। फिल्म देखने के लिए किसी विशेष योग्यता की जरूरत नही होती। इससे कारोबार और बाजार भी प्रभावित है। करोड़ों प्रवासी भारतीय भी जुड़कर अहम भूमिका निभाते हैं और प्रतिष्ठा बढ़ाते हैं। हम चाहेंगे कि हिंदी सिनेमा से भारत और भारतीयता की अच्छी बातों का प्रचार प्रसार हो।
मुख्य अतिथि के रूप में पधारे भारतीय चित्र साधना के राष्ट्रीय सचिव, लेखक, निर्माता एवं निर्देशक श्री अतुल गंगवार ने इस अभिनव कार्यक्रम पर प्रसन्नता प्रकट की एवं आयोजक मण्डल को बधाई दी। उन्होंने कहा कि अपने शुरुआती दौर से ही हिंदी सिनेमा ने सशक्त भूमिका निभाई है। आलम आरा से लेकर नव निर्मित फिल्मों तक आकर्षण रहा है। आजादी की लड़ाई में… सुनो सुनो ऐ दुनियाँ वालों जैसी पंक्तियाँ अभिप्रेरक रहीं। वर्ष 1931 में कुल निर्मित 28 फिल्मों में 23फिल्में हिंदी में बनी थीं। अनपढ़ों को भी जिंदगी का फलसफा सिनेमा ने सिखाया।
शायद यह पुनीत कार्य अकादमियाँ भी नहीं कर पायीं। रुक जाना नहीं कहीं हार के… जैसी लाइनें प्रेरणास्रोत रहीं। सिनेमा में प्रकृति, प्रेम, मोहब्बत, नफरत, माता पिता, भाई बहन, बेटा बेटी आदि सभी के लिए मशहूर गाने हैं। भारतीय ज्ञान परंपरा के विशेषज्ञ श्री अतुल गंगवार ने कहा कि हमें हिंदी को दोयम दर्जे का नहीं समझना चाहिए। अपनी भाषा को भ्रष्ट न करें। शब्दों का चयन बड़ी सावधानी से हो। अच्छे और शिक्षाप्रद संवाद लिखे जाएँ। मोबाइल के बदलते युगीन परिवेश में बढ़ते दायरे के साथ हम सबकी ज़िम्मेदारी भी बढ़ी है। हमें भारत को सही ढंग से जानकार भारतीयता को बढ़ाना और फैलाना होगा।
जापान से हर सप्ताह देर रात तक जुड़ने वाले वयोवृद्ध पद्मश्री प्रो तोमियो मिजोकामी ने भाषा शिक्षण में फिल्मों के योगदान को सराहा। उन्होंने नाटक के संवादों के माध्यम से हिंदी शिक्षण के सैकड़ों प्रयोग किए थे। उनके द्वारा गिनती सिखाने के लिए “पार” फिल्म का उदाहरण दिया गया जिसमें कलकत्ता में एक बिहारी महिला नदी के पार अपनी भैंसों को चराने के पश्चात वापसी में गिनती करती थी।
अमेरिका के पेंसिलवेनियाँ विश्वविद्यालय से जुड़े सेवानिवृत्त आचार्य सुरेन्द्र गंभीर ने कहा कि सिनेमा के माध्यम से हिंदी सिखाना बहुत ही श्रमसाध्य कार्य है।इसका मनोवैज्ञानिक पक्ष सबल है और अवचेतन मन पर गहरा प्रभाव पड़ता है। उन्होने शिक्षक की बॉडी लैंगवेज़ की ओर भी ध्यान आकृष्ट किया और तू , तुम, आप के प्रयोग हेतु साठ वर्ष पहले का शिक्षकीय अनुभव सुनाया। श्रीलंका से जुड़ीं प्रो अतिला कोतलावल ने कहा कि बेशक अकादमियों में हिंदी के विद्यार्थी कम हो रहे हैं लेकिन श्रीलंका में अब “बोलचाल की हिंदी” सीखने के लिए प्रशिक्षार्थियों की संख्या द्रुत गति से बढ़ रही है। वे भी हिंदी शिक्षण में सिनेमा का सहारा लेती हैं।
भारतीय उच्चायोग मॉरीशस से जुड़ीं श्रीमती सुनीता पाहुजा ने कहा कि यहाँ भारत में गए बिना भी लोग अच्छी हिंदी का प्रयोग करते हैं और हर उम्र के लोग हिंदी कक्षा में बैठना चाहते हैं। वरिष्ठ पत्रकार श्री राहुल देव ने अपने अनुभव साझा करते हुए कहा कि दक्षेस देशों की हिंदी स्वाभाविक तौर पर बहुत मीठी है किन्तु अफगानिस्तान के लोग भी बड़े सलीके और सहज भाव से मीठा और शुद्ध बोलते हैं। उन्होंने हाल ही में गुरुग्राम के अमेरिकन इंस्टीट्यूट में आए तीन विदेशियों की हिंदी सुनकर प्रसन्नता प्रकट की। उनका कहना था कि बात चित की हिंदी के लिए हमें हिंदी को पढ़ना और लिखना भी चाहिए।
अध्यक्षीय उद्बोधन में प्रसिद्ध भाषाविज्ञानी प्रो वी रा जगन्नाथन ने इस कार्यक्रम को रोचक, ज्ञानवर्धक और महत्वपूर्ण बताया। उन्होंने वक्ताओं के श्रम साध्य कार्य की सराहना की और विरासत की भाषा और नाद सौन्दर्य का सवाल उठाया तथा सिनेमा के माध्यम से व्याकरण सम्मत भाषा सिखाने का आग्रह किया। उनके द्वारा सिनेमा के अशुद्ध संवादों से बचाने की सलाह दी गई। दीर्घानुभवी वयोवृद्ध भाषाविद प्रो जगन्नाथन ने भाषा के सामान्य और सामाजिक पक्षों को सबल बनाए रखने की पुरजोर अपील की। उन्होंने ज्ञान के संदर्भ में डोकुमेंट्री फिल्मों को बहुत उपयोगी बताया और भाषिक संदर्भ का ख्याल रखने का आग्रह किया।
अंत में वैश्विक हिंदी परिवार की ओर से भोपाल से साहित्यकार और इस कार्यक्रम के संयोजक डॉ जवाहर कर्नावट द्वारा व्याखायान के उद्धरणों सहित सभी के प्रति आभार प्रकट किया गया। उन्होंने भाषा शिक्षण में सिनेमा की भूमिका का समादर करते हुए आत्मीयता से माननीय अध्यक्ष, अतिथियों, विशिष्ट वक्ताओं, सभी विद्वानों और सुधी श्रोताओं के प्रति हार्दिक आभार प्रकट किया। विश्व हिंदी सम्मान से सम्मानित एवं बैंक ऑफ बड़ोदा के सेवानिवृत्त राजभाषा महाप्रबंधक श्री कर्नावट द्वारा इस कार्यक्रम के प्रणेता श्री अनिल जोशी जी के नेतृत्व में इस कार्यक्रम से जुड़े वक्ताओं, संरक्षकों, संयोजकों, मार्गदर्शकों, सहयोगियों, शुभचिंतकों तथा विभिन्न टीम सदस्यों को हृदय की गहराइयों से धन्यवाद दिया गया। उन्होंने सभी से भविष्य में भी इस कार्यक्रम से जुड़ने और जोड़ने का आग्रह किया। यह कार्यक्रम यू-ट्यूब पर “वैश्विक हिंदी परिवार” शीर्षक से उपलब्ध है। रिपोर्ट लेखन कार्य डॉ जयशंकर यादव ने किया।