हैदराबाद : (डॉ जयशंकर यादव की रिपोर्ट) : केंद्रीय हिंदी संस्थान, अंतरराष्ट्रीय सहयोग परिषद और विश्व हिंदी सचिवालय के तत्वावधान में वैश्विक हिंदी परिवार द्वारा आयोजित साप्ताहिक ई-आभासी वैश्विक संवाद के रूप में ‘भाषा शिक्षण के विविध आयाम’ विषय पर हिंदी शिक्षण कार्यशाला आयोजित की गई। सर्वविदित है कि शिक्षा जीवन पर्यंत चलने वाली प्रक्रिया है। प्राचीन काल से ही भाषा शिक्षण के विविध रूप मिलते हैं और भाषा के ठीक-ठीक प्रयोग की राह सुगम करते रहे हैं। रविवारीय कार्यक्रम में भाषा शिक्षण के विविध आयामों पर सारगर्भित प्रस्तुति दी गई जिसे देश-विदेश से जुड़े सुधी श्रोताओं ने सहज भाव से आत्मसात किया और व्यवहार में लाने का मार्ग प्रशस्त हुआ।
कार्यक्रम के आरंभ में साहित्यकार प्रो. राजेश कुमार ने पृष्ठभूमि प्रस्तुत की। तत्पश्चात केंद्रीय हिंदी संस्थान के भुवनेश्वर केंद्र पर तैनात डॉ. रंजन दास द्वारा आत्मीयता से माननीय अध्यक्ष, अतिथि वक्ता, सानिध्य प्रदाता एवं विद्वानों तथा श्रोताओं का स्वागत किया गया। संचालन का बखूबी दायित्व केंद्रीय हिंदी संस्थान के हैदराबाद केंद्र के क्षेत्रीय निदेशक डॉ. गंगाधर वानोडे द्वारा संभाला गया और प्रस्तुति हेतु वयोवृद्ध भाषाविज्ञानी प्रो. वी. आर. जगन्नाथन को आमंत्रित किया गया। दीर्घानुभवी भाषाशास्त्री प्रो. जगन्नाथन ने इस विषय पर कार्यशाला आयोजित करने हेतु प्रसन्नता प्रकट की और भाषा शिक्षण के 150 वर्षों के इतिहास और प्रविधियों की संक्षेप में पावर प्वाइंट के माध्यम से अनुकरणीय प्रस्तुति दी। उन्होंने विधि आधारित भाषा शिक्षण को बिंदुवार समझाया।
1- संरचनात्मक भाषा शिक्षण के अंतर्गत 1940 के आसपास संरचनात्मक भाषा विज्ञान का उदय होने पर यह विधि आई। इसमें बोलते-बोलते सीखने पर बल दिया गया जिससे भाषिक संरचना पुष्ट हुई, किंतु साँचा अभ्यास ज्यादा कारगर नहीं था। इसमें सांस्कृतिक तत्वों को जोड़कर सुधार के यत्न किए गए।
2- उन्नीसवीं सदी के दूसरे चरण में ब्लूम फील्ड और सी सी फ्रिज के सिद्धांत के आधार पर बोलचाल की भाषा पर ज़ोर दिया गया और साँचा अभ्यास अपनाया गया। इसके साथ ही पाँचवें कौशल के रूप में चिंतन को जोड़ा गया। इसमें परिवेश और संस्कृति पर भी बल दिया गया और बताया गया कि भाषा आदत की वस्तु है।
3- पचास के दशक में फोटो, फिल्म, टेप आदि दृश्य श्रव्य मॉडल के उपागम आए तथा भाषा प्रयोगशाला की शुरुआत हुई। इसमें स्वरचित सामग्री के सम्मिलन का लाभ मिला। इसके साथ ही वीडियो कार्यक्रमों का अच्छा उपयोग हुआ।
4- आगे चलकर व्याकरण तैयार कर संप्रेषणपरक शिक्षण को महत्व दिया गया। इसके प्रवर्तक डी ए वाल्किंस थे। इसमें व्याकरण की शुद्धता को अनिवार्य न मानकर सहज वार्तालाप या संप्रेषण पर बल दिया गया।
5- इस क्रम में अध्येता केंद्रित भाषा शिक्षण आरंभ हुआ जिसमें पाठ्यक्रम पर नहीं बल्कि रुचि जगाकर कौशलों के विकास पर ज़ोर दिया गया।
6- तदोपरांत खेल-खेल में सीखने की प्रक्रिया चलन में आई और मांटेसरी, किंडरगार्डेन, प्रोजेक्ट, डाल्टन और बेसिक शिक्षा पद्धतियों का प्रयोग शुरू हुआ। इसके बाद अनुभावात्मक अर्जन पर ज़ोर दिया जाने लगा।
7- समय परिवर्तन के साथ एज्यूटेनमेंट पद्धति चलन में आई जिसमें हिंदी गानों और संवादों पर आधारित मल्टीमीडिया ऑनलाइन लर्निग के दोहरे कोर्स शुरू हुए। इसके बाद भाषिक परिवेश में रहने की विधि प्रारंभ हुई। तदोपरांत प्राकृतिक ढंग से भाषा सीखने का क्रेसन का सिद्धांत आया। कालांतर में विशेष प्रयोजनों के लिए भाषा शिक्षण प्रारंभ हुआ।
8- उद्देश्य आधारित शिक्षा के पाठ्यचर्या में भाषाविज्ञान का विशेष महत्व है। भारत में 1917 से स्वैच्छिक हिंदी संस्थाएँ अस्तित्व में आने लगीं एवं आज भी इनकी अस्मिता कायम है। प्रवासी जगत में कहीं “बैठका, तो कहीं “मंदिर, आदि शिक्षण केंद्र बनने लगे। इनकी कुछ समस्याएँ भी थीं जैसे प्रशिक्षित शिक्षकों का अभाव और मानक पाठ्यक्रम की कमी आदि। मानक पाठ्यक्रम लागू होने पर ये समस्याएँ स्वतः समाप्त हो जाएँगी।
9- प्रयोजनमूलक पाठ्यक्रमों में प्रयुक्ति पर ज़ोर दिया जाने लगा। जैसे– कार्यालयी, वाणिज्य-व्यापार, मीडिया, कानून आदि की हिंदी। युगीन आवश्यकताओं को देखते हुए पत्राचार पाठ्यक्रम भी शुरू हुए। साथ ही कंप्यूटर साधित भाषा शिक्षण शुरू हुआ। जिसमें चित्र, शब्दकोश आदि आने लगे।
10- अब ऑनलाइन भाषा शिक्षण का समय है जो दुनिया में कहीं भी रहकर सीखने में सहायक है। अध्येता अपनी आवश्यकतानुसार सामग्री का भी चयन कर सकता है। इससे विश्व में हिदी जानने वाले एक मंच पर लाये जा सकते हैं। स्वायत्त भाषा शिक्षण युगीन आवश्यकता है। अध्येता को स्वयं श्रम करके पढ़ना होगा।
इस प्रकार प्रो. जगन्नाथन ने संक्षेप में भाषा शिक्षण के विविध आयामों पर प्रभावी ढंग से अपने विचार रखकर श्रोताओं के प्रश्नों के भी उत्तर दिए। इसके बाद रेल मंत्रालय के पूर्व राजभाषा निदेशक डॉ. विजय कुमार मल्होत्रा ने एज्यूटेनमेंट पद्धति को प्रस्तुत करते हुए बताया कि मल्टीमीडिया के माध्यम से चुनिंदा फिल्मी गानों का सहारा लेकर मनोरंजक ढंग से हिंदी सिखाने का कार्य सफल हो रहा है। उन्होंने राजभाषा विभाग, भारत सरकार के लीला पैकेज, की मुक्त कंठ से प्रशंसा की। उन्होंने कहा कि भाषा में क्षेत्रीय प्रभाव स्वाभाविक है और अनेक देशों में एज्युटेंमेंट पद्धति सफल रही है। उन्होंने कुली फिल्म तथा कल आज और कल, जिंदगी ना मिलेगी दुबारा, प्राइड इंडिया, नमस्ते लंदन, कभी खुशी कभी गम फिल्म आदि के उदाहरण प्रस्तुत किए जो हिंदी सिखाने में बहुत सहायक सिद्ध हुए हैं।
तदोपरांत स्वरांगी साने द्वारा वर्णमाला पर आधारित पाठ्य सामाग्री मनमोहक ढंग से प्रस्तुत की गई जो रुचिपूर्ण ज्ञानवर्धन में बहुत सहायक है। इस अवसर पर सानिध्य-प्रदाता प्रो. बीना शर्मा ने कहा कि भाषा शिक्षण के विविध आयामों में उच्चारण, लेखन, बोधन और साहित्य आदि बहुत विस्तार लिए हुए है। इसके तीन मुख्य भाग हैं। 1-ज्ञभाषा संप्रेषण 2- अर्थ संप्रेषण 3- अनुभव, शैली आदि। उन्होंने कहा कि भाषा शिक्षक का सांस्कृतिक पक्ष बहुत बड़ा आधार होता है।
अपने गरिमामयी अध्यक्षीय उद्बोधन में जापान से जुड़े पद्मश्री प्रो. तोमियो मिज़ोकामि ने इस आयोजन पर अपार हर्ष प्रकट किया और अपने जीवन के प्रांभिक दिनों में हिंदी सीखने के कुछ अनुभव सुनाए। उन्होंने बताया कि उस समय ओसाका विश्वविद्यालय में 25 भाषाएँ सिखायी जाती थीं। हिंदी सीखने वालों को नौकरी भी मिल जाती थी। वयोवृद्ध अनुभवी विद्वान मिज़ोकामी जी ने कहा कि नब्बे के दशक में रामायण और महाभारत धारावाहिक से उन्हें बहुत मदद मिली। नाटकों के माध्यम से हिंदी सिखाना श्रमसाध्य जरूर है लेकिन सहज रूप से नाटक अमिट छाप छोड़ते हैं और संवाद याद रहते हैं जो भाषा को पुष्ट करते हैं। इकतालीस देशों की यात्रा कर चुके प्रो. मिज़ोकामी ने विश्व हिंदी सम्मेलनों की भी चर्चा की और नाटक के माध्यम से हिंदी सीखने के लाभ बताए । 1- संवाद का रटा जाना 2- आत्मविश्वास बढ़ना 3- दैनिक वार्तालाप में संवादों का शामिल होना 4- पात्रों से तादात्म्य, 5- एकजुट होकर साधना करने की प्रक्रिया आदि। उन्होंने अपने दीर्घानुभव से बताया कि नाटक से हिंदी सीखने वाले परीक्षार्थियों के औसतन 20 प्रतिशत अंक ज्यादा आते थे। प्रथम भाषा का व्याघात होना स्वाभाविक है।
केंद्रीय हिंदी शिक्षण मंडल, आगरा, शिक्षा मंत्रालय, भारत सरकार के उपाध्यक्ष एवं इस कार्यक्रम के प्रणेता श्री अनिल जोशी ने सभी विद्वानों का सादर समादर करते हुए आज के कार्यक्रम को अत्यंत सार्थक बताया और इससे लाभान्वित होने का आग्रह किया। अंत में वैश्विक हिंदी परिवार की ओर से थाइलैंड से जुड़ीं प्रो. शिखा रस्तोगी ने आत्मीयता से माननीय अध्यक्ष, अतिथि वक्ता, सानिध्य-प्रदाता, सभी विद्वानों और सुधी श्रोताओं के प्रति कृतज्ञता प्रकट की। उन्होंने इस कार्यक्रम से देश -विदेश से जुड़ी संस्थाओं एवं व्यक्तियों का नामोल्लेख सहित विशेष आभार प्रकट किया। डॉ रस्तोगी द्वारा हिंदी भाषा शिक्षण से जुड़े विद्वानों द्वारा वैश्विक गौरव बढ़ाने हेतु शोध कार्य के लिए आभार प्रकट किया तथा इस कार्यक्रम से जुड़े संरक्षकों, संयोजकों, मार्गदर्शकों, सहयोगियों, शुभचिंतकों तथा विभिन्न टीम सदस्यों को हृदय तल से धन्यवाद दिया गया।