सुप्रीम कोर्ट का बड़ा फैसला, अब अविवाहित महिला भी कर पाएगी गर्भपात

[नोट-हम मानते है कि सुप्रीम कोर्ट हर नागरिक के लिए सर्वोच्च है। सुप्रीम कोर्ट का सम्मान करना हमारा कर्तव्य है। साथ ही यह भी मानते है कि हर फैसला सर्वोच्च और सही नहीं हो सकता है। क्योंकि एक जज से लेकर दो, तीन, पांच, सात, नौ, ग्यारह और इनसे भी ज्यादा जजों की खंडपीठ के फैसले यानी मुंसिफ कोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक एक ही मामले के फैसले अलग-अलग होते हैं। अविवाहित महिला के गर्भपात अधिकार फैसला भी हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के फैसले में अंतर यानी अलग-अलग है। तेलंगाना समाचार इस फैसले पर पाठकों के विचार आमंत्रित करता हैं। प्राप्त लेखों को फोटो के साथ प्रकाशित किया जाएगा]

हैदराबाद: सुप्रीम कोर्ट ने अविवाहित महिलाओं के हक में एक बड़ा फैसला सुनाया है। गर्भपात के मामले में विवाहित और अविवाहित का भेद मिटाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को कहा कि सभी महिलाएं चाहे विवाहित हों या अविवाहित, सुरक्षित और कानूनी गर्भपात की हकदार हैं। सुप्रीम कोर्ट ने मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी (एमटीपी) एक्ट में संशोधन करते हुए कहा कि विवाहित महिला की तरह अविवाहित को भी गर्भपात करने का अधिकार है। सुप्रीम कोर्ट ने एमटीपी कानून और इससे संबंधित नियमों के बदलाव को लेकर यह फैसला सुनाया है।

इस दौरान जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की खंडपीठ ने कहा कि एक अविवाहित महिला को अनचाहे गर्भ का शिकार होने देना मेडिकल टर्मिनेशन आफ प्रेग्नेंसी (MTP) अधिनियम के उद्देश्य और भावना के विपरीत होगा। सुप्रीम कोर्ट ने आगे कहा कि 2021 के संशोधन के बाद मेडिकल टर्मिनेशन आफ प्रेग्नेंसी एक्ट की धारा-तीन में पति के बजाय पार्टनर शब्द का उपयोग किया गया है। यह अधिनियम में अविवाहित महिलाओं को कवर करने के लिए विधायी मंशा को दर्शाता है। साथ ही कोर्ट ने एम्स निदेशक को एक मेडिकल बोर्ड का गठन करने के लिए कहा जो यह देखेगा कि गर्भपात से महिला के जीवन को कोई खतरा तो नहीं होगा।

एक महिला ने मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी एक्ट 2003 के नियम-3 बी को चुनौती दी थी। चुनौती याचिका में कहा कि केवल कुछ श्रेणियों की महिलाओं को 20 से 24 सप्ताह के गर्भ को समाप्त करने की अनुमति देता है। पीठ ने कहा कि याचिकाकर्ता को केवल इस आधार पर लाभ से वंचित नहीं किया जाना चाहिए कि वह अविवाहित महिला है। कोर्ट ने कहा कि प्रथम दृष्टया लगता है कि दिल्ली हाई कोर्ट ने अनुचित प्रतिबंधात्मक दृष्टिकोण अपनाया है।

गौरतलब हैं कि 16 जुलाई को दिल्ली हाईकोर्ट ने 23 सप्ताह की गर्भावस्था को समाप्त करने की मांग वाली अविवाहित मणिपुरी महिला की याचिका पर विचार करने से इनकार कर दिया था। कोर्ट ने कहा था कि गर्भ सहमति से धारण किया गया है और यह स्पष्ट रूप से मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी एक्ट 2003 के तहत किसी भी खंड में शामिल नहीं है। महिला ने अपनी याचिका में कहा कि वह बच्चे को जन्म नहीं दे सकती क्योंकि वह एक अविवाहित महिला है और उसके साथी ने उससे शादी करने से मना कर दिया है। याचिका में आगे कहा गया कि अविवाहित के बच्चे को जन्म देने से उसका बहिष्कार होगा और साथ ही मानसिक पीड़ा भी होगी। दिल्ली हाईकोर्ट के इसी फैसले को महिला ने सुप्रीम कोर्ट में चुनोती दी थी। (एजेंसियां)

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