देश में शिक्षकों की दशा, कल की पहलगाम आतंकी हमले की घटना सोचने पर मजबूर नहीं करती है कि क्या वास्तविक तौर पर भारत विकसित हो रहा है? एक दो साल या फिर एक दो महीने हृदयविदारक घटनाएं सामने आती है। ये केवल घटनाएं नहीं हैं स्खलित होती मानवता की छवि है। नृशंस आतंकवादी में शिक्षा की कमी है, शिक्षकों की योग्यता पर प्रश्न उठाने वाले लोग या फिर पैसे लेकर एक अयोग्य व्यक्ति को योग्य बनानेवाले शिक्षक क्या वे वास्तविक तौर पर शिक्षित और सचेत हैं? शिक्षा सड़क पर है, शिक्षा लंबी चौड़ी फीस के नीचे डूबी हुई है, शिक्षा राजनीति और आरक्षण का मुद्दा बन चुकी है। वास्तविक शिक्षा कहाँ है?
सा विद्या विमुक्त्ये क्या यह केवल एक कहावत ही है या जिस काल में इस श्लोक का जन्म हुआ वह युग ढल गया है और इसका औचित्य समाप्त हो चुका है। यह कैसा वातावरण है जहाँ शिक्षक सड़क पर उतरा हुआ है अपनी जीविका बचाने के लिए, यह साबित करने के लिए कि वह वाकई में योग्य है और उस पर लाठियाँ बरसाई जा रही है। यह केवल एक राज्य की बात नहीं है। यह तो अमूनन पूरे भारत के शिक्षकों की दशा है। कहीं शिक्षक को कॉन्ट्रेक्ट बेस पर रखा गया है तो कहीं शिक्षक पर्मानेंट होने के बाद भी विद्यार्थियों के अभाव में एक स्थान से दूसरे स्थान पर स्थानांतरण का दंश झेलने को अभिशप्त है।

शिक्षक बनने के लिए लगातार परीक्षा देते रहना एक शिक्षक का महत्वपूर्ण कार्य है। मजाकिया बात यह है कि ये नियम कानून उन नेताओं, उच्च पदाधिकारियों आदि के द्वारा बनाए गए हैं जिनका वास्ता कब किताब से छुट गया है उन्हें आज स्वयं को भी याद नहीं है। यह कैसा मज़ाक है एक दिन न्यायाधीश महोदय जी ने कह दिया ‘इतने शिक्षक अयोग्य है’। एक दिन अधिकारियों ने कह दिया ‘ कल से आपकी नौकरी नहीं है’। बस… कह दिया।
आज भारत में भ्रष्टाचार कहाँ नहीं है? आज कश्मीर फिर से लहुलूहान है? तो क्या सेना को जिम्मेदार मानकर छटनी शुरू होगी? या फिर गुप्तचर विभाग को जिम्मेदार ठहराया जाएगा और छटनी शुरू होगी? होना तो यह चाहिए कि सरकार खुद जिम्मेदारी ले और अपने नेताओं की छटनी शुरू करे। क्या सरकार ऐसा करेगी? बिल्कुल नहीं तो फिर जब भी बात शिक्षकों की आती है इतनी सख्ती और इतनी जागरूकता पूरे तंत्र में कहाँ से फैल जाती है? और लोकतंत्र का चौथा स्तंभ मीडिया समझ ही नहीं पाता है उसे किसके पक्ष में खड़ा होना चाहिए?
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शिक्षकों की मानसिकता भी दयनीय है। सरकारी शिक्षक प्राइवेट शिक्षक से दूरी रखता है, असिस्टेंट प्रोफ़ेसर, एसोशिएट प्रोफेसर से दूरी रखता है। कॉलेज के शिक्षक स्कूल के टीचर को हीनता से देखता है।
‘विद्या विनयं ददाति’ शिक्षक समाज भी इस बात को भूलकर बंट गया है। शिक्षक आज अपनी योग्यता को सेमिनार के सर्टिफिकेट में खोजता है, पैसे देकर भी हर जगह छपना चाहता है। ऐसे अनेकों शौक शिक्षकों ने पाल रखे हैं। लेकिन चाणक्य के समान अपनी शिखा को खोलकर अपने आत्मसम्मान के लिए अकेले ही लड़ने की बात को वह भूल गया है और कोई उसका अपना भाई बंधु ऐसा करने साहस करता है तो उसकी आलोचना करना उसकी एक नई आदत बन चुकी है। फिर भला एकता कहाँ से आएगी?
आक्रमणकारियों को हर सेमिनार में कोसा जाता है कि उन्होंने नालंदा विश्वविद्यालय को जला दिया था। अरे! घर के लोग मातृभाषा में शिक्षा प्राप्त करने की बात को हीनता समझते हैं। कितने स्कूल, कॉलेज बंद हो गए हैं, एक पीढ़ी को पता ही नहीं कि भारतीय ज्ञान परंपरा क्या है (इसमें पढ़े-लिखे शिक्षक भी हैं जो लगातार हाथ में माइक लेकर मुद्दा छोड़कर सब कुछ बोलते हैं) क्या यह नालंदा विश्वविद्यालय के जलने से कुछ कम भयावह है? फिर यह राष्ट्र चुप क्यों है?
समस्याओं की लंबी सूची है पर न्याय और समाधान कहां हैं? क्या समस्याओं पर बात लगातार बात करने के लिए भारत ने अपनी स्वाधीनता की लड़ाई लड़ी थी?

डॉ सुपर्णा मुखर्जी
हैदराबाद
