स्मृतिशेष छोटेलाल के परिवार ने मृत्यु-भोज जैसी अंधविश्वासी परम्परा का किया बहिष्कार और…

कौशाम्बी (अमित दिवाकर की रिपोर्ट) : ज्ञात हो स्मृतिशेष छोटेलाल जी का लंबी बीमारी के बाद 3 नवंबर को निधन हो गया था। उनकी स्मृति में 17 नवंबर को कौशाम्बी (उत्तर प्रदेश) जिले के मंझनपुर तहसील के बटबंधुरी गांव में वर्षों से चली आ रही अवैज्ञानिकता पर आधारित मृत्युभोज की परम्परा के बरक्स श्रद्धेय छोटेलाल जी के मरणोपरांत उनके परिवार की ओर से श्रद्धांजलि सभा के साथ पौधरोपण व गरीब बच्चों को शिक्षण सामग्री का वितरण किया।

श्रद्धांजलि सभा के संचालन के दौरान डॉ नरेंद्र दिवाकर ने कहा हिन्दू धर्म सहित अन्य किसी भी धर्म में मृत्युभोज जैसी कुप्रथा का कही भी प्रावधान नही किया गया है। उन्होंने इस बात की ओर भी जोर दिया कि सिर्फ मृत्यूभोज ही नही बल्कि सगाई, शादी विवाह या अन्य किसी प्रकार के आयोजन को करने के लिए ब्राह्मणवादी तौर तरीके का विरोध करना होगा। अपनी बात रखते हुए शिक्षक अनिल मानव ने मृत्युभोज जैसी अमानवीय प्रथा का बहिष्कार करने की जरूरत पर प्रकाश डालते हुए कहा कि गाय के बच्चे के निधन के बाद उसकी माँ उसके शोक में एक-दो दिन तक चारा-पानी नहीं करती, लेकिन किसी मनुष्य के निधन के बाद मृत्युभोज का आयोजन किया जाता है। अगर देखा जाए तो हम पशुओं से भी गये-गुजरे हैं। हमारे ही देश के राजस्थान में मृत्युभोज जैसी कुप्रथा के आयोजन में रोक लगाते हुए मृत्युभोज निषेध अधिनियम 1960 लाया गया।

इसी क्रम में नंदलाल जी के सुपुत्र सुशील निर्मल ने कहा कि 2013 तक मैं भी ब्राम्हणवादी कुप्रथाओं पर जकड़ा हुआ था। लेकिन दलित चिंतन पर शोध करने के दौरान जब मैंने अपने इतिहास को पढ़ा तो मैं इन ब्राम्हणवादी कुरीतियों से निकल पाया। यह मेरे बाबू जी की ही देन थी कि आज मैं उनकी मृत्यु के बाद इस कुप्रथा का बहिष्कार कर पा रहा हूँ। हम अपने महापुरुषों के संघर्ष की बदौलत ही आज हम शिक्षित होकर इन कुप्रथाओं का बहिष्कार कर पा रहे है। इंद्रजीत जी ने कहा कि समाज मे लोग लोकलाज के भयवश ही मृत्युभोज का आयोजन करते है। इसलिए मैं समाज के लोगो से यही कहना चाहता हूँ कि आज अपने बच्चों को शिक्षित करने की जरूरत है।

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शोधछात्र रामचंद्र ने अपनी बात को रखते हुए कहा कि रूढ़ीवादी परंपराओं से लड़ने के लिए साहस के साथ साथ वैज्ञानिक विचार की मजबूती भी चाहिए। इतिहास में असमानता के खिलाफ हमारे कई क्रांतिकारियों ने समाज में लंबी लड़ाई लड़ी है। तब जाकर आज दलित समाज को पानी भी पीने का अधिकार मिल पाया है। लेकिन अभी भी रूढ़िवादियों को हमारे ऊपर थोपा जाता है। किसी के मरने पर मृतक के परिवार दुख पीड़ा में रहते हैं। इसमें तेरहवीं में खाना गिद्ध और कौवे की तरह जानवरों को नोंच-नोंच खाने जैसा ही है।

अश्वनी यादव ने कहा कि बाबू जी कितने विराट व्यक्ति रहे होगें कि आज उनका परिवार सामाजिक क्रांति के लिए आगे आये है। मेरा मानना है कि समाज मे किसी भी तरह का बदलाव लिए सबल लोगों को आगे आकर करना चाहिए। मेरे घर के पास एक गरीब परिवार में एक व्यक्ति का आकस्मिक निधन हो गया था। गांव के कुछ लोगों के द्वारा उनसे मृत्युभोज करने का दबाव बनाया गया और उनके घर की तलाशी ली गयी। तलाशी में उनके घर पर मात्र 2 किलो बाजरा मिला था। रामनाथ ने कहा अगर मुक्ति समझ लो मरने को तो आगे क्या कुछ करने को है। इसलिए मृत्युभोज के विरोध के लिए मृत्युभोज के कार्यक्रम में शामिल न होकर उसके बहिष्कार के लिए आगे आने की जरूरत है।

शिक्षक साथी रोहित दिवाकर ने अपनी बात की शुरुआत करते हुए कहा कि लोगों का मानना है कि अकेला चना भाड़ नही फोड़ सकता लेकिन मेरा मानना है कि अकेला चना बिलकुल भाड़ फोड़ सकता है। बस सामाजिक परिवर्तन के लिए समर्पित होकर आगे आने की जरूरत है और अपनी सोच बदलने की जरूरत है। विनोद भास्कर ने परिजनों की मृत्यु के बाद मेडिकल के छात्रों के शोध के लिए देहदान करने की बात पर जोर दिया।

ईश्वरी प्रसाद चौधरी ने अपनी बात रखते हुए कहा कि कुछ प्रथाएं उस समय की जरूरत थी लेकिन अब उन प्रथाओं को बोझ की तरह ढोने की जरूरत नही है। रामनारायण निर्मल, उर्मिला देवी, शिवनारायण, अर्चना, मंजू, मालती, संगीता, रंजना, अभिषेक, विपिन, श्रेयांश निर्मल, पंकज चौधरी, एडवोकेट अमित, डॉक्टर सुमित इत्यादि ने भी अपनी बात रखी। सभी वक्ताओं ने बात रखते हुए इस बात को मजबूती से रखा कि किसी भी तरह की अंधविश्वास पर आधारित प्रथा का विरोध करने के लिए आगे आने की जरूरत है। किसी भी आयोजन एवं कार्यक्रम में कोई भी अवैज्ञानिक पद्धति को नही अपनानी चाहिए।

श्रद्धांजलि सभा मे धन्यवाद ज्ञापन देते हुए स्मृतिशेष छोटेलाल जी के पौत्र एडवोकेट अमित कुमार ने अपने बाबा जी को श्रद्धा सुमन अर्पित करते हुए कहा कि मृत्यु भोज जैसी कुप्रथा को हम अस्वीकार करते हैं और भविष्य में आगे से ऐसी किसी भी प्रथा के भागी नही होंगे क्योंकि यह प्रथा समाजिक रूप से पिछड़े और दलितों का शोषण के सिवाय और कुछ भी नही है। मैं खुशनसीब हूँ की मेरे माता-पिता ने कठिनाइयों के बावजूद शिक्षित करके इस काबिल बनाया है कि मैं इस कुप्रथा के बारे में लोगो को जागरूक कर सकूं और इस कड़ी में मैं अपने माता-पिता चाचा-चाची जी का आभारी हूँ कि हमारी इस सोच को मूर्त रूप देने में साथ दिया क्योंकि ऐसा निर्णय बहुत साहस का काम होता खासकर जब आप समाज में व्याप्त कुरीतियों में जकड़े बहुसंख्यक लोगो के विपरीत जाकर ऐसा काम करके आदर्श स्थापित करते हैं। इस शोक सभा मे आये सभी मेहमानों को सादर धन्यवाद अर्पित करता हूँ। सभा का संचालन डॉ नरेंद्र दिवाकर ने किया।

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