सनातन संस्कृति ने इस सृष्टि को आध्यात्मिक प्रतीकों से समझने और समझाने का कार्य किया है। कठोपनिषद (2.3.1) में ऊर्ध्वमूलोsवाक शाखा एषो अश्वत्थ सनातन: … और गीता दोनों ग्रंथों में जहां “उल्टे लटके हुए सनातन अश्वत्थ वृक्ष” का दृष्टांत देकर ऊर्घ्वमूलं अध:शाखमश्वस्थ प्राहुरव्ययम। छंदांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित।। (15.1) के प्रतीक से सृष्टि विधान को समझने, समझाने की प्रक्रिया दिखती है। कठोपनिषद में इस “उर्ध्वमूलम” को ज्योति ब्रह्म, अमृततत्व और इसकी डालियों और पत्तों को वेद की ऋचाएं कहा गया है। महाभारत ग्रंथ के सनतसुजातीयम प्रकरण में महर्षि सनतकुमार जी ने धृतराष्ट्र को उपदेश देते हुए इन पत्तों की एक नई व्याख्या प्रस्तुत किया- हिरण्यपर्णम अश्वत्थम अभिपद्य हि पक्षका: …। इस वृक्ष के पत्तों को “हिरण्यम” (स्वर्णिम) कहा गया है और इसके साधक को पंखधारी जीव “पक्षी” जो आध्यात्म के खुले विस्तृत गगन में उन्मुक्त हो, स्वतंत्रता पूर्वक आनंदमय होकर विचारित कर सकता है। मुण्डक उप. ने पुनः उस वृक्ष पर पक्षी रूप में बैठने के प्रतीक का उपयोग कर संसारी जीव के सुख-दुःख भोक्ता वृत्ति का चित्रण किया है- द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समान वृक्षम परिषस्व जाते। तयोरन्य: पीपलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नयो अभिचाकशीति (3.1.1)।
संसारी जीव इसी वृक्ष के कंचन पत्तों, पुष्प, फल, काम, कामना, कामिनी और भौतिक लोकेषणाओं के मोह माया में भ्रमित होकर इस वृक्ष, इसके टहनियों, पत्तों का निरादर करते हुए इसे तोड़ता है, नोचता-खसोटता रहता है। किंतु जो साधक इसे तात्विक रूप से जानता है, वही वेदज्ञ है, वही तत्तवज्ञ है, वही ज्ञानी है। वही सत्यदृष्टा है; यहीं से प्रस्फुटित हुआ यह सिद्धांत कि सत्यमेव जयति नानृतं अर्थात सर्वदा सत्य की ही जय होती ही, असत्य की नहीं। इस वेदवाक्य में कितना बल, आत्मबल संचित है, इसे कहने की आवश्यकता नहीं। इसे ही स्वतंत्र भारत ने आदर्श वाक्य रूप में अपनाया था किंतु दुर्भाग्य की बात है कि यह अनुपम सद्वाक्य आजकल प्रायः अदृश्य सा हो गया है, कहीं दिखता नहीं।
मुण्डक उपनिषद ने परमसत्य ब्रह्मबोध, सत्यबोध के लिए ज्ञान के तीर और धनुष के प्रतीक विधान से साधकों को “तीर धनुष” धारण करने, उसके संधान के लिए कहा, सत्य की स्थापना समाज में हो या साधना में; लक्ष्य संधान हमारा पुनीत पावन करते है – प्रणवो धनु: शरो हि आत्मा ब्रह्म तत् लक्ष्यम उच्यते (2.2.4) और साधकों को निर्देश दिया – धनुर्गृहीत्व उपनिषदम महाअस्त्रम शरं … सौम्य विद्धि (2.2.3)। हम इस शास्त्र और शस्त्र को भूल गए हैं।श्रेष्ठ, आदर्श समाज की स्थापना के लिए ही भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में अर्जुन को अन्याय के विरुद्ध गांडीव उठाने की प्रेरणा दी, उसके मन उठ रहे सभी प्रश्नों, आशंकाओं का निराकरण कर स्वकर्म, स्वधर्म में नियोजित कर दिया था। सत्य के लिए, आदर्श समाज के लिए मोहभंग, मोहनष्ट की अनिवार्यता है। अर्जुन तभी युद्ध के लिए गांडीव उठा पाया जब भौतिक जगत से उसका मोह भंग हो गया। उसने स्पष्ट स्वीकार किया है – नष्टो मोह: स्मृति लब्धवा … गत संदेह: करिष्ये वचनं तव (18.73)।
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तात्विक रूप से सत्यबोध, तत्वबोध कराने के लिए कठोपनिषद मे ही एक “रथ” के प्रतीक/रूपक द्वारा व्यष्टि शरीर के आध्यात्मिक अवयवो को वर्णित किया गया है – आत्मानं रथिनं विध्दि शरीरं रथमेव तु। बुद्धि तु सारथि विध्दि मन: प्रग्रहमेव च (1.3.3)।। रामचरितमानस में भी गोस्वामी जी ने इस रथ में आदर्श के सद्गुणों का एक अलग ही रूपक बांधा है- सौरज धीरज तेहि रथ चाका। सत्य सील दृढ़ ध्वजा पताका। बल विवेक दम परहित घोरे। क्षमा कृपा समता रजु जोरे।
प्रतीक विधान की यही प्रवृत्ति पूरे संत साहित्य और सूफी संतों ने भी अपने ग्रंथों में अपनाई है। कबीर ने काहे रे नलिनी तू कुम्हिलानी, तेरे ही नाल सरोवर पानी? तथा जल में कुंभ कुंभ में जल है, बाहर भीतर पानी। फूटा कुंभ जल जलहि समानी, यह तथ कथहूं गियानी।। कहकर इन्हीं अपने आस-पास के प्रतीकों से ही तत्वज्ञान कराया। सूफियों में विशेष रूप से जायसी के सुप्रसिद्ध ग्रंथ “पद्मावत” में यही प्रतीक विधान दिखता है। वहां जायसी लिखते हैं –
तन चितउर, मन राजा कीन्हा। हिय सिंघल, बुधि पदमिनि चीन्हा॥ गुरू सुआ जेइ पंथ देखावा। बिनु गुरु जगत को निरगुन पावा॥ नागमती यह दुनिया-धंधा। बाँचा सोइ न एहि चित बंधा॥ राघव दूत सोई सैतानू। माया अलाउदीं सुलतानू॥ प्रेम कथा एहि भाँति बिचारहु। बूझि लेहु जौ बूझै पारहु॥
यहां उल्लेखनीय अध्यात्म और साहित्य में तत्व निरूपण और तथ्य वर्णन के लिए प्रतीक विधान, बिंब विधान का सार्थक उपयोग, सदुपयोग किया गया है और जनमानस में इसका अनुकूल प्रभाव दिखता भी है। आज आवश्यकता है समाज में, राष्ट्र में, वैश्विक स्तर पर “सत्यमेव जयते” सिद्धांत कि स्थापना और उसके सम्यक क्रियान्वयन की, तभी अध्यात्म और साहित्य की शिक्षा, प्रतीक शिक्षा की उपयोगिता और सार्थकता की सिद्धि होगी। और हम यदि ऐसा नहीं कर पाए तो यह उसी तरह कपोल कल्पना ही होगी, व्यर्थ सा ही होगा जिसके लिए कहा गया है – कृति के बिना बड़े शब्दों का अर्थ नहीं कुछ। ऐसे अनेक प्रतीक, विंब, प्रतिबिंब का प्रचुर प्रयोग साहित्य में हुआ है और आज भी किसी न किसी रूप में प्रचलित है जो साहित्य की गरिमा, महत्व और उपादेयता में श्रीवृद्धि करता है, उद्देश्य और निहितार्थ को समृद्ध करता है।

डॉ जयप्रकाश तिवारी
बलिया/लखनऊ, उत्तर प्रदेश