‘वक्त बदल रहा है, वक्त का मिजाज बदल रहा है।
त्यौंहारों को मनाने का, हमारा रिवाज बदल रहा है।।’
कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्थी तिथि (20 अक्टूबर) को करवा चौथ के रूप में मनाए जाने की परम्परा एक लम्बे समय से चली आ रही है। यह व्रत सुहागन स्त्रियों के जीवन में खास महत्व रखता है। महिलाएं इस दिन निर्जला व्रत रखकर अपने पति की दीर्घायु की कामना करती हैं। यह व्रत सूर्योदय के साथ शुरू होता है और शाम को चांद निकलने पर इसका पारायण किया जाता है।
करवा चौथ का अर्थ है- करवा यानि कि मिट्टी का कलश और चौथ यानि कि चतुर्थी तिथि। इसीलिए इस दिन मिट्टी के कलश में जल भरकर चांद के निकलने के बाद उसे अर्घ्य देना शुभ माना जाता है। अर्घ्य देने के बाद व्रत रखने वाली महिलाएं अपने पति के हाथ से पानी पीकर अपना व्रत खोलती हैं। इस दिन चौथ माता और गणेश जी की भी पूजा की जाती है।
सरगी खाकर की जाती है शुरुआत
इस व्रत में महिलाएं सूर्योदय से पहले जागकर ‘सरगी’ खाकर व्रत की शुरुआत करती हैं। सरगी में मिठाई, फल, सूखे मेवे और खीर आदि होते हैं। सरगी आमतौर पर सास के द्वारा दी जाती है। अगर सास नहीं हो तो ननद या जेठानी भी सरगी दे सकती हैं। मान्यता है कि इसको ग्रहण करने से व्रती महिला को एनर्जी मिलती है और वह दिन भर तरोताजा महसूस करती है। लेकिन वक्त के साथ-साथ ये धारणा भी बदल रही है। आइए जानते हैं कि आज़ की युवा पीढ़ी की नौकरीपेशा महिलाओं की क्या राय है इसके बारे में-
यह भी पढ़ें-
घर और बाहर की दोहरी जिम्मेदारी
आजकल प्राय: शादीशुदा महिलाएं नौकरीपेशा होती हैं। उन्हें घर और बाहर दोनों जगह अपनी जिम्मेदारी निभानी पड़ती है। ऐसे में उनके लिए करवा चौथ का व्रत रखना मुश्किल होता है। सवेरे जल्दी उठकर स्नान आदि करके सरगी खाकर फिर पूरे दिन निर्जला व्रत करना उनके लिए कठिन होता है, क्योंकि उन्हें पूरे दिन काम करना और बोलना पड़ता है। ऐसे में भूख और प्यास को सहन करना मुश्किल हो जाता है।
आईटी प्रोफेशनल ऋचा शर्मा का कहना है-
‘एक तो वह अकेले रहती है अपने पति के साथ, उसके ससुराल वाले उससे बहुत दूर अपने गांव में रहते हैं। ऐसे में उसके लिए सरगी कौन बनाए और कौन खिलाए? ये सब रीति-रिवाज और त्योहार परिवार के साथ मनाएं तो ही मजा आता है। परन्तु इसका मतलब यह बिल्कुल नहीं कि मैं अपने पति से प्यार नहीं करती या उसकी दीर्घायु की कामना नहीं करती। हां, मैं उसके लिए व्रत जरूर रखती हूं। लेकिन दिन में एक समय खाना खाकर, क्योंकि मैं पूरे दिन पानी पिए बिना और कुछ खाए बिना अपना काम अच्छे से नहीं कर पाती।’
समय का अभाव
नीता की शादी हुए अभी थोड़ा समय ही हुआ है। शादी के समय उसने काफी लम्बी छुट्टी ली थी। वह अभी-अभी हनीमून से लौटी है। उसके पति आर्मी में हैं और वह भी मल्टीनेशनल कंपनी में काम करती है। छुट्टी खत्म होते ही दोनों ने अपनी-अपनी जगह ड्यूटी ज्वाइन कर ली। अब दोनों एक-दूसरे से कोसों दूर करवा चौथ कैसे मनाएं? वह कहती है- ‘मैं जितनी आधुनिक और खुले विचारों की हूं, उतनी ही पारम्परिक भी हूं। मैं उन सभी रीति-रिवाजों का सम्मान करती हूं, जो हमारे पूर्वजों ने बनाए हैं। लेकिन वक्त की नजाकत है कि हम चाहकर भी वह सब सेलिब्रेट नहीं कर पाते, जो हमारी मां, दादी और नानी करती थीं। उस समय संयुक्त परिवार होते थे और सब साथ मिलकर त्योहार मनाते थे। उनमें जो आनन्द आता था, वह अकेले रहकर मनाने में नहीं आता। मैं अपने पति की दीर्घायु के लिए व्रत जरूर रखती हूं, लेकिन मुझे सरगी कौन खिलाएगा? इसका मलाल हमेशा रहता है।’
टेक्नोलॉजी का है जमाना
अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए वह कहती है- ‘मैंने इसका एक अच्छा सोल्यूशन निकाल लिया है। मैं वीडियो कॉलिंग के जरिए अपनी सास और अन्य रिश्तेदारों से बात करती हूं। उनका प्यार और आशीर्वाद मुझे दिन भर एनर्जेटिक बनाए रखता है। साथ में मेरे पति भी मेरा हौसला बढ़ाते हैं और शाम होने पर मैं वीडियो चैट के द्वारा उनका दीदार करके अपना व्रत खोलती हूं। इस तरह मैं परम्परा और आधुनिकता दोनों में सामंजस्य बनाकर चलती हूं।’
हमारे प्यार में दिखावा नहीं है
सीमा मिश्रा पेशे से डॉक्टर हैं और उनके पति भी एक कुशल सर्जन हैं। जाहिर है कि उनका पेशा ऐसा है जो 24×7 की ड्यूटी की मांग करता है। ऐसे में वे दोनों चाहकर भी त्योहारों का पूर्ण आनन्द नहीं ले पाते। करवा चौथ के बारे में जब उनसे बात की गई तो उन्होंने इसका जवाब इस तरह दिया- ‘मैं भारत में ही पली-बढ़ी हूं और यह मेरी खुशकिस्मती रही कि मेरा परिवार संयुक्त परिवार था। जहां पर परिवार का हरेक छोटा-बड़ा सदस्य अपना अलग महत्व रखता था और सबको प्यार और सम्मान मिलता था। परन्तु शादी के बाद मैं और मेरे पति अमेरिका में ही बस गए। हम दोनों की जॉब भी अलग-अलग जगह पर थी, फिर बड़ी मुश्किल से एक जगह सेटल हुए। जब भी करवा चौथ का व्रत करने की बात आती है तो हमेशा सोचती हूं कि इस बार अपने देश जाकर अपनों के साथ मिलकर इस व्रत को पूर्ण करुंगी, परन्तु कभी कुछ, कभी कुछ अड़चन आ जाती है और मैं व्रत नहीं कर पाती। परन्तु इसका मतलब यह नहीं है कि मैं अपने पति से प्यार नहीं करती और उनकी सलामती नहीं चाहती। मुझे प्यार में दिखावा बिल्कुल पसन्द नहीं है। बस हमारा प्रोफेशन ही ऐसा है कि पहले हमें अपने काम को वरीयता देनी पड़ती है।’
इस तरह हम देख सकते हैं कि हमारी युवा पीढ़ी अपनी परम्परा और जिम्मेदारी दोनों का निर्वाह बखूबी कर रही है, चाहे उसके लिए उसे कहीं थोड़ा एडजस्टमेंट करना पड़े या फिर कुछ बदलाव। परिवर्तन समय की मांग है और समय के अनुसार अगर व्रत और त्योहारों का स्वरुप थोड़ा परिवर्तित हो रहा है तो उसमें बुराई क्या है। त्योहार की मूल भावना बनी रहे, यह ज्यादा महत्वपूर्ण है।
सरिता सुराणा वरिष्ठ पत्रकार एवं लेखिका हैदराबाद