श्रीकृष्ण जन्माष्टमी में एक झांकी प्रमुखता से दिखाई और सजाई जाती है। बालकृष्ण “नटखट कान्हा” द्वारा माखन चोरी और अंततः उस माखन की “मटकी” को तोड़ दिये जाने की। यह लोमहर्षक दृश्य कोई बाल – बच्चों का खेल मात्र नहीं है। बच्चों के साथ – साथ साधकों और मुमुक्षुओं के लिए भी इसमें सार संदेश छिपा हुआ है।
यह ‘मटकी’ या ‘घट’ यह शरीर का प्रतीक है। इस शरीर से इंद्रिय जनित कर्मफल के सभी “भोग ऐश्वर्य” के रूप में अर्जित, उपार्जित भौतिक जगत की मूल्यवान वस्तु (माखन) रखी गई है। इस वस्तु के “भोग” के उपरान्त या ऐसा कहें कि बालपन में “बालभोग”, गृहस्थ जीवन में “त्यागमय भोग” तेनत्यक्तेनभुञ्जीथा के आदर्श अपनाने के बाद वाणप्रस्थ आश्रम में साधक, मुमुक्षुत्व की संकल्पना के बाद इस पंचभूतात्मक घट या देह (काया) का कोई विशेष महत्व रह भी नहीं जाता। अस्तु इसे अपने जीवनकाल में ही फोड़ देना, इससे सर्वथा निर्लिप्त हो जाना चाहिए।
बच्चों, गोपबालों के लिए जहां यह उपक्रम कौतुक, क्रीड़ा, खेल है वहीं साधकों के लिए एक गंभीर शिक्षा भी। कहा जा सकता है कि बाल गोपाल के लिए जहां यह दृश्य “कान्हा” की बाल क्रीड़ा है वहीं साधकों (अर्जुन जैसे साधकों) के लिए “भगवान श्रीकृष्ण” रूप में गीता का सारगर्भित उपदेश, वेदान्त शास्त्र का गुह्य ज्ञान भी। यदि हम आज भी इसे मात्र कान्हा की लीला समझ रहे हैं तो अभी भी बालपन स्वस्थ में हैं, चाहे उम्र हमारी संख्या रूप में कितनी भी बड़ी क्यों न हो गई हो?
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यदि हमारी कायिक उम्र प्रौढ़ हो गई है तो हमें भी बालपन, भौतिक ऐषणाओं से निवृत्त होकर, उसे भौतिक संपदा मानते हुए उसके स्वाद, माधुर्य और भौतिक संग्रह का मोह त्यागकर आध्यात्मिक तत्व की प्राप्ति, स्वरूप दर्शन, आत्म दर्शन की खोज में लग जाना चाहिए, संकल्पित एक साधक होकर, एक मुमुक्षु बनकर। आखिर कबतक हम बालपन, बाल बुद्धि, बाल विवेक के साथ जीवन यापन करते रहेंगे।
इस प्रकार हम कह कह सकते हैं कि माखन चोरी और मटकी (घट) को फोड़ने का दृश्य, यह मनोरम झांकी हमे कई उत्कृष्ट शिक्षा दे जाता है। यदि इस प्रसंग पर और भी गंभीरता पूर्वक विचार किया जाये तो इससे भी सूक्ष्म अर्थ, निहितार्थ निकलेंगे। जिसकी जितनी गहरी पैठ की क्षमता होगी उसके हाथ उतना ही बहुमूल्य मोती, रत्न, अमूल्य तत्व की प्राप्ति, उपलब्धि होगी, इसमें किंचित भी संदेह नहीं।
लेखक- डॉ जयप्रकाश तिवारी
लखनऊ उत्तर प्रदेश
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