तेलंगाना राज्य में बोनालु उत्सव हर वर्ष तेलुगु पंचांग के आषाढ़म मास यानि कि जून/जुलाई माह में बहुत ही धूमधाम से मनाया जाता है। यह तेलंगाना राज्य का राजकीय उत्सव है। इस उत्सव में भक्त गण अपनी सभी समस्याओं को दूर करने और बीमारियों से ठीक होने के लिए देवी महाकाली माता की पूजा करते हैं। मान्यता है कि देवी महाकाली माता दुर्गा का ही एक रूप हैं।
बोनम अर्पित करना
बोनालुत्यौहार मनाने के लिए भक्त गण मिट्टी के नए बर्तनों में ‘बोनम’ बनाते हैं, जो दूध और गुड़ के साथ पके हुए मीठे चावल होते हैं। महिलाएं बोनम को अपने सिर पर ले जाती हैं और माता को अर्पित करती हैं। बोनम को नीम के पत्तों, हल्दी और सिन्दूर से सजाया जाता है।
मुख्य उत्सव
बोनालु उत्सव आषाढ़ मास के पहले शुक्रवार से शुरू होता है और पूरे महीने तक चलता है। गोलकोंडा किले के महाकाली मंदिर से मुख्य उत्सव शुरू होता है। उसके बाद सिकन्दराबाद में उज्जैनी महाकाली मंदिर, शाह अली बंडा में अक्कन्ना-मादन्ना मंदिर और हैदराबाद के पुराने शहर लाल दरवाजा के महाकाली मंदिर में समाप्त होता है। इस वर्ष यह उत्सव 3 जुलाई से प्रारम्भ होकर 24 जुलाई तक चलेगा।
देवी का स्मरण
यह उत्सव एक तरह से देवी का स्मरणोत्सव है। साथ ही उन्हें प्रसन्न करने और अपनी इच्छाओं के पूर्ण होने पर उनका आभार व्यक्त करने का तरीका भी है। महाकाली माता के अलावा इन दिनों देवी के अन्य रूपों जैसे- मैसम्मा, पोचम्मा, येलम्मा, पेद्दम्मा, डोक्कलम्मा, अंकालम्मा, पोलेरम्मा, मारेम्मा और नुकलम्मा की भी पूजा की जाती है।
बोनालू का अर्थ
बोनम शब्द से ही बोनालु त्यौहार का नाम पड़ा है। तेलुगु भाषा में बोनम का अर्थ भोजन या दावत है। यह देवी को अर्पित करने वाला एक तरह का प्रसाद है, जो दूध और गुड़ के साथ पका हुआ चावल होता है। इसे मिट्टी या पीतल के बर्तन में डालकर उसे नीम के पत्तों, हल्दी और सिन्दूर से सजाकर, बर्तन के ऊपर एक जलता हुआ दीपक रखा जाता है। महिलाएं इसे आप अपने सिर पर रखकर ले जाती हैं। देवी माता के शृंगार के सामान जैसे चूड़ियां, हल्दी और सिन्दूर तथा साड़ी के साथ विभिन्न मंदिरों में माता को अर्पित करती हैं।
बोनालु की उत्पत्ति
कहा जाता है कि बोनालु उत्सव की उत्पत्ति 19 वीं सदी में हुई। ईस्वी सन् 1813 में हैदराबाद और सिकंदराबाद शहरों में प्लेग की बीमारी फैल गई, जिसमें बहुत लोगों की जान चली गई। हैदराबाद की एक सैनिक टुकड़ी, जो उज्जैन में तैनात थी, उसको जब इस महामारी के बारे में पता चला तो उन्होंने उज्जैनी महाकाली माता के मंदिर में देवी महाकाली से यह प्रार्थना की कि अगर वे उन्हें इस महामारी से छुटकारा दिला दें तो वे उनकी मूर्ति स्थापित करके उनकी पूजा करना शुरू कर देंगे। कहा जाता है उनकी प्रार्थना के फलस्वरूप महामारी का प्रकोप कम हो गया और तब से ही माता महाकाली की पूजा प्रारम्भ हो गई और वह आज तक जारी है।
तोट्टेलू
इस अवसर पर भक्त गण ‘तोट्टेलू’ की पेशकश करते हैं। ये रंगीन कागज की छोटी संरचनाएं होती हैं, जिन्हें लाठी के सहारे से खड़ा किया जाता है और सम्मान स्वरूप माता को अर्पित किया जाता है।
पोतराजू की भूमिका
पोतराजू को देवी मां का भाई माना जाता है। इनकी भूमिका निभाने वाला व्यक्ति कमर पर लाल रंग की धोती और घंटियां पहनता है और अपने शरीर पर हल्दी लगाता है और माथे पर सिन्दूर लगाता है। ये ढोल-नगाड़ों के साथ नृत्य करते हैं और जुलूस में शामिल सभी भक्त गण इनसे आशीर्वाद लेते हैं।
रंगम की प्रथा
रंगम या परफॉर्मिंग द ओरेकल, वास्तविक त्यौंहार के अगले दिन सुबह आयोजित किया जाता है। एक कुंवारी कन्या देवी महाकाली का आह्वान करती है और देवी मां उसके मुख से अगले वर्ष की भविष्यवाणी करती हैं।
घटम
घटम का तात्पर्य तांबे के बर्तन से है, जिसे देवी के रूप में सजाया जाता है और एक पुजारी द्वारा ले जाया जाता है। इसके लिए पुजारी को पारम्परिक धोती पहननी होती है और उसके शरीर पर हल्दी का लेप लगाया जाता है। घटम को उत्सव के पहले दिन से लेकर अन्तिम दिन तक जुलूस के रूप में ले जाया जाता है और अन्तिम दिन उसे पानी में विसर्जित कर दिया जाता है
आमतौर पर हरिबावली में अक्कन्ना मादन्ना मंदिर का घटम जुलूस का नेतृत्व करता है। जिसे हाथी-घोड़ों के साथ रखा जाता है जो अक्कन्ना और मादन्ना का प्रतिनिधित्व करते हैं। यह नया पुल में घाटों के विसर्जन के बाद शाम को एक शानदार जुलूस के रूप में समाप्त होता है। हैदराबाद और सिकंदराबाद के महांकाली के अन्य लोकप्रिय मंदिरों के घट यहां पर एकत्रित होते हैं। इस तरह बड़े ही उत्साह के साथ यह त्यौहार दोनों शहरों में मनाया जाता है।
– सरिता सुराणा वरिष्ठ लेखिका एवं पत्रकार सिकंदराबाद