पुस्तक समीक्षा: ‘इति बेद बदंति न दंत कथा’

हरि अनंत हरि कथा अनंता : विशेष

‘राम’ शब्द में ‘रा’ परिपूर्णता का बोधक है और ‘म’ परमेश्वर’ वाचक है। रमंति इति राम:! अर्थात, ‘जो रोम-रोम में रहता है, जो समूचे ब्रह्मांड में रमण करता है वही राम है’।1

‘राम’ की यह व्याख्या ही ‘इति बेद बदंति न दंत कथा’ (2024) पुस्तक की आधारशिला है। प्रतिष्ठित वरिष्ठ साहित्यकार आशा शैली के साथ डॉ. दिनेश पाठक ‘शशि’ के सुयोग्य संपादन में प्रकाशित इस सुचिंतित ग्रंथ के साथ जुडने का सौभाग्य मुझे गुरुवर प्रो. ऋषभदेव शर्मा के सौजन्य से प्राप्त हुआ। पढ़ना प्रारंभ किया तो क्रमशः यह रहस्य समझ में आता गया कि संपूर्ण विश्व यूँ ही राममय नहीं है। राम एक ऐसे पुत्र हैं जिन्हें सब पाना चाहते हैं, ऐसे भाई जिन्हें पाना गर्व की बात होती है, ऐसे एकपत्नीव्रती पति सिर्फ़ जिन्हें पाने के लिए तपस्या की जा सकती है। ध्यान रहे, ‘पति’ राम ने सीता को कभी नहीं त्यागा। यह तो ‘राजा’ राम थे जिन्होंने व्यक्तिगत सुख को त्यागकर राजा का धर्म संसार को सीखा दिया।

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भारतीय साहित्यकारों, विद्वानों आदि ने राम को लेकर अनेक ग्रंथ लिखे, जैसे- रामायण, रामचरितमानस, आर्ष-रामायण जिसे योगवाशिष्ठ या महारामायण के नाम से भी जाना जाता है। पाश्चात्य विद्वानों ने भी राम को लेकर अनुसंधान किया है। रामचरितमानस के प्रथम पाश्चात्य समीक्षक होरेन हेमन विल्सन थे। ‘यूँ तो विल्सन ने रामचरितमानस की विस्तृत समीक्षा नहीं की, लेकिन फिर भी उन्होंने रामचरितमानस की वाल्मीकि रामायण की अपेक्षा हिंदू जनता का अतिप्रिय ग्रंथ होने की घोषणा अवश्य की है और रामचरितमानस को अति प्रसिद्ध कृति बताकर उसके प्रति पाश्चात्य और पौर्वात्य विद्वानों का ध्यान आकर्षित किया है’।2

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इसके बाद नाम आता है गार्सां द तासी का। ‘इन्होंने पाश्चात्य जगत को ‘रामचरितमानस’ के महत्व से अवगत कराने का प्रथम प्रयास किया’।3

इस कड़ी को आगे बढ़ाने का काम डॉ. ग्रियर्सन ने किया है। डॉ. ग्रियर्सन के मतानुसार, ‘यह मानस हिंदू जनता के जीवन चरित्र और व्यवहार में 300 वर्षों से आत्मसात-सा हो गया है और लोग न केवल इसके काव्य सौंदर्य पर मुग्ध होकर इसकी प्रशंसा करते हैं वरन धर्म ग्रंथ के रूप में इसका आदर करते हैं। यह 10 करोड़ लोगों की बाइबल है और इसमें इतना ज्ञान है जितना कि पादरियों को बाइबल का ज्ञान नहीं’।4

ग्रियर्सन के बाद एडमिन ग्रीब्स ने सन् 1899 में ‘ए स्केच ऑफ हिंदी लिटरेचर’ में तुलसी और रामचरितमानस दोनों की मुक्त कंठ से प्रशंसा की है। ऐसे अनेक विद्वान के नाम मिल जाएँगे जिन्होंने राम को समझने का प्रयास किया है। क्या वे सब वास्तव में राम को समझ सके हैं? राम को किसने, कितना समझा, यह प्रत्येक की व्यक्तिगत उपलब्धि है। लेकिन राम को जानना जीवन के लिए आवश्यक है, यह सार्वभौम सत्य है। लेकिन ‘राम’ बनना आसान नहीं है। कंटकाकीर्ण पथ पर चलना पड़ता है, स्व का त्याग करना पड़ता है, निरपेक्ष मार्गदर्शक बनना होता है। ‘राम’ जीवन कौशल सिखानेवाले व्यक्ति हैं। ‘इति बेद बदंति न दंत कथा’ पुस्तक में ‘राम नाम’ और उसकी महत्ता की जानकारी विश्लेषणात्मक शैली में करते हुए लिखा गया है, ‘बाल्यावस्था में तीर्थों की यात्रा करने के पश्चात राम की उदासीनता, उपरामता एवं संसार से त्याग की भावना देखते हुए राजा दशरथ अपने पुत्र राम को गुरु वशिष्ठ के सान्निध्य में समझने हेतु भेजते हैं, तब गुरु वशिष्ठ, नाम-महिमा के प्रसंग में यही कहते हैं कि मुझे ‘राम’ नाम के प्रताप से ही संपूर्ण ब्रह्मांड मेरी हथेली में रखे आँवले की भाँति दिखाई देता है। अर्थात, केवल राम नाम ही है, जिसका प्रभाव संपूर्ण सृष्टि की जानकारी करा देता है।’।5

ठीक वैसे ही, जैसे राम ने एक कलुषित राक्षसी को ‘शुर्पनखा से सुर्पनखा’ बना दिया। शुर्पनखा ने अहंकार के साथ कहा, ‘तो सम पुरुष न मो सम नारी’। बात गलत नहीं थी, ‘राम’ जैसा सुंदर पुरुष संपूर्ण ब्रह्मांड में नहीं है और जो राम के प्रेम में रम जाए वह तो वैसे भी सुंदर बन ही जाती है। लेकिन राम प्रेम निवेदन को स्वीकार नहीं करते हैं। ऐसा क्यों? ‘इति बेद बदंति न दंत कथा’ में इसका विस्तार से विश्लेषण नमन कृष्ण ‘भागवत किंकर’ ने किया है, ‘शुर्पनखा राम जी के सन्मुख तो जाती है, उसका प्रारब्ध प्रबल रहा होगा किंतु बिना गुरुमुखी होकर आई है। इसीलिए हमारे राघव सीधे-सीधे स्वीकार नहीं करते। दूसरा शुर्पणखा राघवेंद्र को तो चाहती है किंतु सीताजी को नहीं चाहती, और सीताजी हैं पराभक्ति! बिना भक्ति के राम मिल भी जाएँ, दृष्टि में आ भी जाएँ, तब भी कल्याण नहीं ही होता, इसलिए भक्ति ही है जो रामाश्रय को पुष्ट करती है और यह भक्ति देने की योग्यता है केवल गुरु में। इसीलिए राघवेंद्र सरकार भक्तिहीन शुर्पणखा को यतिसम्राट लक्ष्मणज्यू के पास भेज देते हैं’।6

आगे किंकर जी लिखते हैं, ‘गुरु कान से संसार के विकृत रस मिटा देता है और कनफड़ बना देता है अर्थात कान में अमोघ मंत्र फूँक देता है, दीक्षित कर देता है, ‘शुर्पनखा से सुर्पनखा’ बना देता है। गुरु यहीं नहीं रुकता… पूरी गुरु परंपरा को स्थापित कर देता है और देखिये न… लक्ष्मण जी की पूरी जती/यति परंपरा को लेकर सुपर्णखा… भक्तिहीन रावण पराभक्ति (सीताजी) को लिवाने स्वयं अरण्य में आ जाता है। और किस भेष में आया जती/यति के भेष में, यथा- ‘सून बीच दसकंधर देखा, आवा निकट जती के बेसा’। बिना साधु हुए तो भक्ति तक के निकट नहीं हुआ जा सकता। देखिये न… जती लक्ष्मण द्वारा दीक्षित हुई शुर्पणखा, स्वयं जती (क्योंकि गुरु की परंपरा ही शिष्य की परंपरा होती है) परंपरा को लेकर रावण के पास गई और उसे भी जती बना दिया’।7

रामनाम की यही तो कृपा है। जो जिस रूप में जिस प्रकार से राम को याद करता है, राम उसी के हो जाते हैं। तभी तो कहा जाता है- ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता’। यह केवल एक कहावत मात्र नहीं है। यह आस्था, साधना, आराधना, विश्वास, भक्ति आदि का प्रतीक है। विश्व के बड़े भूभाग में रामकथा प्रचलित है इसका कारण यही है कि-

‘नाना भांति राम अवतारा। रामायण सत कोटि अपारा॥
कलप भेद हरि चरित सुहाये। भाँति अनेक मुनीसन्ह गाये’।8

300 से अधिक प्रामाणिक राम कथाएँ प्रचलित है। हरेक कथा का सार है ‘जीवन कौशल’। प्राणी का जन्म और उसकी मृत्यु हो जाना सृष्टि की स्वाभाविक प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया से कोई बच नहीं सकता लेकिन जीवन को श्रेष्ठ कैसे बनाया जाए इस विषय में सभी प्राणियों में श्रेष्ठ मनुष्य को इस प्रश्न का उत्तर खोजना चाहिए। राम का जीवन इस प्रश्न का उत्तर खोजने में मार्गदर्शन प्रदान करता है। धर्म के सहारे जीवन सुव्यवस्थित बनता है। धर्म केवल रूढ़ियों में बँध जाने का नाम नहीं है। नियम और शील ये दोनों धर्म के दो अंग हैं। नियम विवेक के साथ जोड़कर सत्यनिष्ठ, दृढ़ प्रतिज्ञ बनने में सहायता देता है तो शील चरित्र को सशक्त बनाता है। राम नियमनीतिज्ञ तथा शीलवान दोनों हैं। इसी कारण वे वंदनीय हैं। केवल वंदनीय ही नहीं प्रासंगिक भी हैं। राम की प्रासंगिकता पर चर्चा करते हुए ‘इति बेद बदंति न दंत कथा’ में ज्योति झा ने अपने आलेख के अंतर्गत लिखा है, ‘आज के युग का मानव अत्यंत महत्वाकांक्षी है जिसके कारण उसके जीवन में शांति और सुकून के पल नाम मात्र हैं। वह एक ही साथ कई चीजों में उलझा हुआ है और समय-समय पर कई प्रकार की दुविधाओं और शंकाओं से घिरा हुआ है। सही और गलत की बदलती हुई परिभाषा में उसके मस्तिष्क में द्वंद्व चलता रहता है। उस द्वंद्व से उबरने का एकमात्र साधन गोस्वामी तुलसीदास कृत रामचरितमानस है क्योंकि कितना भी युग बदल जाए जीवन के आदर्श नहीं बदलते, भले ही आज के युवा स्वतंत्र हैं लेकिन उनकी मानसिकता को समाज आदर्श नहीं मानता। इसलिए आमजन भी दुविधा में रहता है। रामचरितमानस हर युग में मनुष्य का सही मार्गदर्शन करने में पूर्णरूपेण सफल सिद्ध होता है।
गोस्वामी तुलसीदास ने सही कहा है-

‘राम कथा सुन्दर कर तारी । संशय विहग उडावन हारी’।
मानव समाज के जीवन की हर शंका, हर दुविधा और मानसिक द्वंद्व का समाधान रामचरितमानस में उपलब्ध है’।9.

राम इसलिए भी प्रासंगिक हैं क्योंकि
‘रामहिं केवल प्रेम पिआरा।
जानि लेउ जो जाननिहारा’।10

आज का विश्व जब फिर से धर्म, जाति, भाषा विभेद, आरक्षण, बहुसंख्यक, अल्पसंख्यक जैसे संकीर्ण शब्दों के जाल में फँस चुका है, आज के नेतागण जब साधारण जनता को इन शब्दों के द्वारा दिग्भ्रमित करने का एक भी अवसर नहीं छोड़ते हैं, ऐसे में राम, रामचरितमानस, तुलसी की प्रासंगिकता और भी अधिक बढ़ जाती है। ‘भारत में स्वातन्त्रयोत्तर काल में विधिवत दलित साहित्य आंदोलन चला जो आज भी गतिशील है। इस साहित्य का प्रारम्भ 1960 के दशक में महाराष्ट्र से हुआ। मराठी से होकर यह हिन्दी में आया। दलित साहित्यकारों की अवधारणा है कि दलित जातियों की पीड़ा, उनके शोषण और सदियों तक उन पर हुए अत्याचार का वर्णन जब वे स्वयं करेंगे तो उसे दलित साहित्य कहा जाएगा। वे किसी भी सवर्ण लेखक द्वारा दलित-पीड़ा पर लिखे साहित्य को अस्वीकार करते हैं। इसीलिए वे स्वामी विवेकानंद, स्वातंत्र्यवीर सावरकर, महात्मा गाँधी, स्वामी दयानंद आदि के अछूतोद्धार के प्रयासों की भी आलोचना करते हैं और प्रेमचंद या किसी भी सवर्ण साहित्यकार द्वारा लिखे दलित साहित्य को भी सवर्ण का छल मानते हैं’। 11

ऐसी मानसिकता के लोगों ने तुलसी को भी दलित विरोधी कहा। रामचरितमानस में राम की कथा सुनने और बोलनेवाले चार वक्ता और श्रोता हैं- 1. शिव-पार्वती 2. याज्ञवल्क्य-भारद्वाज 3. काकभुशुंडि-गरुड़ और 4. तुलसी-संतजन। काकभुशुंडि अर्थात कौआ चांडाल पक्षी है।

‘संस्कृत हिंदी कोश के अनुसार चांडाल का अर्थ अधम और पतित है और अमरकोश के अनुसार-
रथकारस्त महिष्यात कर गया यस्य संभव:
स्याच चंडालस्तु जनितो ब्राह्मग्यां वृषलेन य:।
(अर्थात शूद्र और वैश्य की कन्या में महिष्यात अर्थात वैश्य और क्षत्रिय के लड़के से उत्पन्न चांडाल कहलाता है)।’12

‘राम कथा में पक्षियों में ही एक दूसरा शूद्र है, गृद्धराज जटायु। उसके संबंध में महाकवि कहते हैं, ‘गीध अधम खग आमिषभोगी’। परंतु उस अधम आमिषभोगी गीध को भी राम ने ‘गति दीन्ही जो जाचत योगी’। यह तो राम का ईश्वरत्व रहा। नर रूप में राम सीताहरण के पश्चात जटायु को रावण के अस्त्र-प्रहार से घायल मरणासन्न अवस्था में देखते हैं। उसे गोद में लेते हैं। जटायु उन्हें ‘सीताहरण’ की संपूर्ण कथा सुनाते हैं और तब आकण्ठ उपकृत राम कहते हैं-

‘जल भरि नयन कहंहिं रघुराई, तात कर्म निज ते गति पाई।
परहित बस जिन्ह के मन माहीं, तिन्ह कहूँ जग दुर्लभ कछु नाहीं’॥ 13

राम ने शूद्र पात्र निषादराज गुह को गले से लगा लिया। ‘निषाद की दशा उस समय समाज में ऐसी थी, ‘जासु छाँह छुइ लेइअ सींचा’ और वह ‘लोक-बेद बाहिर सब भाँती’ है परंतु उसी शूद्र (या दलित) को ‘तेहि भरि अंक राम लघु भ्राता-मिलत पुलक परिपूरित गाता’।14

यह तो हुई राम की बात निषाद जब भरत के सम्मुख अपना नाम, ग्राम, गोत्र बताकर खड़ा होता है तो-

‘करत, दण्डवत देखि तेहि भरत लीन्ह उर लाइ।
मनहूँ लखन-सन भेंट भइ प्रेमु न हृदय समाइ’॥15

दलितों की बात हो और शबरी की चर्चा न हो, यह संभव नहीं है। शबरी ‘शबर’ जनजाति की लड़की थी लेकिन मतंग ऋषि ने बिना भेदभाव उसे अपनी शिष्या बनाया और फिर शबरी के झूठे बेरों को राम के द्वारा चखकर खाने की कथा किसे पता नहीं है? राम को शबरी के द्वारा यह कहना-
‘अधम ते अधम अति नारी, तिन्ह मह मैं मतिमंद गँवारी’।16

इसी सत्य को दर्शाता है कि स्त्री पददलित थी और जाति व्यवस्था नामक कुप्रथा भी विद्यमान थी। यह कोई आज की समस्या नहीं है। लेकिन, राम के समय और वर्तमान समय के बीच का सबसे बड़ा अंतर यह है कि वर्तमान समय में समस्याओं को महिमामण्डित किया जाता है, उनका समाधान नहीं खोजा जाता; जबकि राम का शबरी को यह कहना-

‘कह रघुपति सुनि भामिनी बाता, मानऊँ एक भगति कर नाता।
जाति-पाँति, कुल धर्म बड़ाई, धनबल, परिजन, गुण चतुराई’॥17

इसी बात को दर्शाता है कि ऐसी कोई समस्या नहीं है जिसका समाधान नहीं है। मनुष्य के पास सकारात्मक सोच होनी चाहिए। तभी वह धरती पर रामराज्य को साकार स्वरूप प्रदान कर सकेगा।

राम केवल धर्म संस्थापक नहीं हैं। राम तो करोड़ों लोगों की रोजी-रोटी की व्यवस्था करनेवाले व्यवस्थापक भी हैं। राम नित नवीन रूप में जीवन को जीने की शिक्षा देने वाले प्रेरणास्रोत हैं। कभी उनसे प्रेरणा पाकर नल-नील ने समुद्र पर सेतु बना लिया, तो कभी राम-सीता को लेकर निर्देशक नीना पेले ने 2008 में ‘सीता सिंग्स द ब्लूज़’ नामक फिल्म का निर्माण कर दिया। निर्देशक नीना पेले ने इस फिल्म को ‘लोक’ को समर्पित करते हुए अपनी वेबसाइट पर लिखा है, ‘मैं सीता सिंग्स द ब्लूज़ आपको सौंप रही हूँ। वैसे तो सारी संस्कृति की तरह यह पहले से आपकी है, लेकिन मैं इसका विधिवत उल्लेख कर रही हूँ। आप इसे मुक्त रूप से वितरित करें, कॉपी करें, शेयर करें, सहेज कर रखें और प्रदर्शित करें। यह गाथा साझा संस्कृति की विरासत है और उसी को समर्पित है’।18

यहाँ ध्यानाकर्षित करनेवाले शब्द हैं ‘साझा संस्कृति’। वास्तव में राम और राम की कथा साझा संस्कृति का अनुपम उदाहरण है। आज के युग में जब मनुष्य का जीवन मोबाइल और कम्प्यूटर के बीच में ही बँधकर रह गया है, ऐसे में ऐनिमेशन के द्वारा राम को फिर से संस्कृति, आदर्श, अध्यात्म्य और रोज़गार के साथ जोड़ने का उत्तम प्रयास प्रस्तुत फिल्म ने किया गया है और यह भी सिद्ध किया गया है कि ‘इति बेद बदंति न दंत कथा’।

राम की बात चले और गुरु शिष्य परंपरा की बात न हो, यह कैसे संभव है। वर्तमान भारत अपनी नई शिक्षा नीति को भारतीय ज्ञान परंपरा के साथ जोड़ने की प्रक्रिया से गुज़र रहा है। ऐसे समय में राम नामक विद्यार्थी को जानना और भी आवश्यक हो जाता है। अयोध्याकांड में जब राजा दशरथ के आमंत्रण को पाकर गुरु वशिष्ठ रामचन्द्र जी के महल पहुँचते हैं तो गुरु के आने की सूचना पाकर राम सीता समेत उनके स्वागत के लिए पहुँचते हैं और हाथ जोड़कर कहते हैं-

‘सेवक सदन स्वामि आगमनू।
मंगल मूल अमंगल दमनू॥
तदपि उचित जनु बोलि सप्रीती।
पठइअ काज नाथ असि नीती॥
प्रभुता तजि प्रभु कीन्ह सनेहु।
भयउ पुनीत आजु यहु गेहु॥
आयसु होइ सो करौं गोसाईं।
सेवकु लहइ स्वामि सेवकाईं’॥19

‘इति बेद बदंति न दंत कथा’ नामक पुस्तक के प्रत्येक आलेखकर्ता ने न केवल राम को लेकर लिखा है बल्कि राम को अनुभव किया है। तभी तो प्रस्तुत पुस्तक में राम सजीव हो गए हैं। ‘इति बेद बदंति न दंत कथा’ पुस्तक केवल पठनीय ही नहीं बल्कि वंदनीय है। संपादक मंडल तथा लेखक वृंद को राम कृपा प्राप्त हो यही प्रार्थना है।

संदर्भ सूची-

⦁ ‘इति बेद बदंति न दंत कथा’ पृ. सं.-133
⦁ ‘इति बेद बदंति न दंत कथा’ पृ. सं.- 28
⦁ ‘इति बेद बदंति न दंत कथा’ पृ. सं.- 28
⦁ ‘इति बेद बदंति न दंत कथा’ पृ. सं.- 29
⦁ ‘इति बेद बदंति न दंत कथा’ पृ. सं.- 37
⦁ ‘इति बेद बदंति न दंत कथा’ पृ. सं.- 13-14
⦁ ‘इति बेद बदंति न दंत कथा’ पृ. सं.- 14-15
⦁ तुलसीदास रचित रामचरितमानस बालकांड पृ. सं.- 1.1.33
⦁ ‘इति बेद बदंति न दंत कथा’ पृ. सं.- 207-208
⦁ रामायण संदर्शन पृ.सं- 23
⦁ ‘इति बेद बदंति न दंत कथा’ पृ. सं.- 79
⦁ ‘इति बेद बदंति न दंत कथा’ पृ. सं.- 81
⦁ ‘इति बेद बदंति न दंत कथा’ पृ. सं.- 81
⦁ ‘इति बेद बदंति न दंत कथा’ पृ. सं.- 82
⦁ ‘इति बेद बदंति न दंत कथा’ पृ. सं.- 82
⦁ ‘इति बेद बदंति न दंत कथा’ पृ. सं.- 82
⦁ ‘इति बेद बदंति न दंत कथा’ पृ. सं.- 82
⦁ रामायण संदर्शन पृ.सं- 113
⦁ ‘इति बेद बदंति न दंत कथा’ पृ. सं.- 86

संदर्भ ग्रंथ-
‘इति बेद बदंति न दंत कथा’, (आलेख संकलन), संपादक- आशा शैली एवं दिनेश पाठक ‘शशि’, (ISBN- 000-00-005273-0-6), प्रथम संस्करण- 2024, मूल्य-330 रुपये, प्रकाशक/वितरक – एक्सप्रेस पब्लिशिंग, नंबर-8, 3- क्रॉस स्ट्रीट, चेन्नई- 600004 (तमिलनाडु)

रामायण संदर्शन (आलोचना/चिंतन), लेखक- ऋषभदेव शर्मा, (ISBN–978-93-92439-10-0), प्रथम संस्करण- 2022, मूल्य- 59 रुपये, प्रकाशक – हिमालय रत्नाकर, ‘रामालय’, म. नंबर- 15, प्रथम तल, सिद्धार्थ नगर, गूबा गार्डन, कल्याणपुर, कानपुर- 208017 (उ. प्र.)

रामचरितमानस, गोस्वामी तुलसीदास, गीता प्रेस, गोरखपुर (उ. प्र.)

डॉ सुपर्णा मुखर्जी
सहायक प्राध्यापक, भवंस विवेकानंद कॉलेज, सैनिकपुरी, हैदराबाद-500094 मो. 9603224007 drsuparna.mukherjee.81@gmail.com

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