पुष्पक साहित्यिकी वर्ष 7 संयुक्तांक 26-27 अप्रैल-सितंबर 2024 के संबंध में कुछ भी कहने से पहले मैं कहना चाहूँगी कि पढ़ना एक लत है और यह एक ऐसी लत है जिसकी चाहत हर किसी को होती है। मुझे लगता है कि पढ़ने की लत लगाने के लिए पत्रिका एक बेहतर साधन होती है क्योंकि इसमें साहित्य के वे सभी तत्व पाए जाते हैं जो एक साहित्य प्रेमी चाहता है। अन्य अंकों की तरह पुष्पक साहित्यिकी का ये अंक भी पढ़ने की क्षुधा पूर्ति करने हेतु पूर्णरूप से सक्षम है।
भारत में राजनीति की बातें हर गली, नुक्कड़ चाय, या पान की दुकानों पर मिल जाती है। यहाँ सभी लोग ही राजनीतिज्ञ हैं। उनका वश चले तो देश चलाने की ट्यूटोरियल सरकार के लिए भी रखेंगे। पर प्रश्न यह उठता है कि देश और समाज के लिए घातक कौन है? नागरिक या नेता? भारत को विश्व गुरु बनने में बाधक कौन है? इन प्रश्नों से जूझती भारत की जनता को संपादकीय लेख अपनी ओर आकर्षित कर पाएगा और उनके प्रश्नों का हल भी उन्हें मिल जाएगा। स्वार्थी और शुतुरमुर्ग को पहचानने में उन्हें संपादकीय आलेख मदद करेगा। मनुष्य स्वयं के चश्मे से दुनिया को देखता रहता है पर ख़ुद को नहीं देख पाता। यदि हम स्वयं को परख लें तो जीवन बेहतर हो सकती है। “चिंतन के क्षण” कॉलम में प्रधान संपादक डॉ अहिल्या मिश्र ने “अपकार और उपकार” शीर्षक के माध्यम से मनुष्य को अंतर में झांकने पर विवश करता है।
साहित्यकार की लेखनी जहां मनुष्य को रस में विभोर करती है वही तख़्त पलटने का काम भी करती है। एक ऐसे क्रांतिकारी कवि जिन्हें अपनी लेखनी की वजह से जान गँवानी पड़ी। शख़्सियत में कवि पाश की साहित्यिक रोचक यात्रा “हम लड़ेंगे साथी” से रूबरू करते हुए हम भूल जाते हैं कि वास्तव में वे हिन्दी के नहीं बल्कि पंजाबी भाषा के कवि थे। ऐसी क्या बात थी उनकी कलम में कि उन्हें अपनी जान गँवानी पड़ी। इन प्रश्नों का जवाब मिलता है इस आलेख में।
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पाठक यदि जानना, पढ़ना और समझना चाहते हैं उनके पसंदीदा कवि, लेखक या साहित्यकार को तो उनकी प्रतीक्षा की घड़ी पत्रिका के इस अंक के साथ कुछ हद तक ख़त्म हो सकती है जब वे पढ़ेंगे केदारनाथ अग्रवाल, हुल्लड़ मुरादाबादी, बेकल उत्साही, कुंवर बेचैन, भारत भूषण अग्रवाल और खुमार बाराबंकवी को। इस अंक में उनकी चुनिंदा रचनाओं को बखूबी सहेजा गया है।
उदाहरण के तौर पर बेकल उत्साही की कविता प्रस्तुत है-
“फिर मुझको रसख़ान बना दे”
माँ मेरे गूँगे शब्दों को
गीतों का अरमान बना दें।
गीत मेरा बन जाये कन्हाई,
फिर मुझको रसखान बना दे। माँ…
प्रसिद्ध लेखिका डॉ अमीता दुबे की कहानी “जीवन दृष्टि” कहानी के पैमानों को पूर्ण करती हुई पाठक को कहीं और उड़ा ले जाती है। “कला बेवकूफ बनाने की” गुदगुदाती, हंसाती और हमें स्वयं की बेवक़ूफ़ियत से परिचय कराती है। लेखक बलवीर सिंह भटनागर ने बहुत ही रोचक व्यंग्य इस रचना के माध्यम से परोसा है। पाठक को यह बहुत ही जायकेदार लगेगी इसकी पूरी गारेंटी है।
इसके अतिरिक्त कहानी “नया सवेरा” पाठक के मन को संवेदनसिक्त करती है। साथ ही केशव शरण, वर्षा शर्मा , लक्ष्मी शर्मा, किरण सिंह, श्याम मनोहर सिरोढिया और चंद्रप्रकाश दायमा जी की कवितायों के रस में पाठक अपने आपको डूबते हुए पायेंगे। रंगमंच कॉलम में डॉ उषा रानी राव ने प्राचीन तमिल नाट्य परंपरा का लोक नाट्य “कुथू” से परिचय कराया है और फ़िल्म कॉलम में हम बॉलीवुड और टॉलीवुड दोनों इंडस्ट्री के महत्व को जान ही जाएँगे।
ये सब तो भारतीय साहित्य की बातें हो गईं। विश्व साहित्य के संबंध में आप जानना चाहते हैं तो पढ़ें अवधेश कुमार सिन्हा द्वारा अनुवादित नोबेल पुरस्कार विजेता तुर्की उपन्यासकार ओरहान पामुक के उपन्यास “माई नेम इज़ रेड” के कुछ अंश। इसे पढ़ने के बाद पूरा उपन्यास पढ़ने की इच्छा जागृत हो जाती है। इसके अतिरिक्त पाठक को मिलेगा इसमें लघु कथाऐं, कविताएँ, आलेख, निबंध, व्यंग्य, समीक्षा, यात्रा वृत्तांत आदि। यात्रा वृत्तांत के माध्यम से घर बैठे ही कुलु मनाली की यात्रा का आनंद लिया जा सकता है। तो आएँ और साहित्यिक यात्रा पर निकलें पुस्तक पुष्पक साहित्यिकी के इस अंक के साथ देश-विदेश में पाठकों के साथ आगे बढ़ते हैं।
संपादक : डॉ आशा मिश्रा
पत्रिका – पुष्पक साहित्यिकी वर्ष 7 संयुक्तांक 26 – 27 अप्रैल-सितंबर 2024.
प्रकाशक : हरिओम प्रकाशन, हैदराबाद.
मूल्य – मात्र ₹100/-
पत्रिका सदस्यता :
वार्षिक – ₹300 /-
आजीवन – ₹5000/ –
पुस्तकालय एवं संस्थागत – ₹5500/-
संरक्षक – ₹11000/-
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