हैदराबाद : कहा जाता है कि भगवान के घर में देर हैअंधेर नहीं है। यह बात कुछ कैदियों पर सही लागू होती है। अक्सर देखा जाता है कि जमानत मिलने के बाद भी कुछ कैदी जेल में ही बंद रह जाते हैं। बेल बॉन्ड या फिर दूसरे झमेलों में वो ऐसे फंसते हैं कि उनकी जेल से रिहाई मुमकिन नहीं हो पाती। मगर सुप्रीम कोर्ट नेअहम आदेश जारी करके कैदियों की रिहाई को मुमकिन बनाने की कोशिश की है। आइए जानते हैं कि किस तरह उच्चतम न्यायालय ने कैदियों को उम्मीद की एक किरण दिखाई है।
जिस कोर्ट से कैदी को जमानत मिली है उसे हर हाल में आदेश की सॉफ्ट कॉपी जेल सुपरिटेंडेंट को ई-मेल के जरिये भेजनी होगी। ये कॉपी आदेश जारी करने वाले या उससे अगले दिन तक भेजनी जरूरी है। जेल अधीक्षक को ई प्रिजंस सॉफ्टवेयर में जमानत की तारीख की एंट्री करनी होगी।
जमानत दिए जाने के सात दिनों के बाद भी कैदी की रिहाई नहीं हो पाती है तो जेल अधीक्षक की ड्यूटी होगी कि वो डीएलएसए (District Legal Services Authority) के सचिव को सूचना दें। सचिव किसी एडवोकेट या फिर वालंटियर की ड्यूटी लगाएगा। ये लोग कैदी की रिहाई को सुनिश्चित करने के लिए हर मुमकिन मदद करेंगे।
एनआईसी (National Informatics Center) ई प्रिजंस के सॉफ्टवेयर में इस तरह के प्रावधान करेगा जिससे जमानत की तिथि के साथ कैदी की रिहाई की तारीख जेल के सॉफ्टवेयर में दर्ज हो जाएगी। सात दिनों बाद अगर कैदी रिहा नहीं होता है तो अपने आप ई मेल डीएलएसए को चली जाएगी।
डीएलएसए कैदी की आर्थिक स्थिति को देखेगा। अगर वो जरूरी शर्तें पूरी करने की स्थिति में नहीं है तो कैदी की सोशियो इकोनॉमिक कंडीशन की एक रिपोर्ट अपने लोगों से तैयार कराएगा। इस रिपोर्ट को कोर्ट के समक्ष रखेगा। उसकी कोशिश होगी कि कैदी को रियायतें दिलाई जा सकें।
यदि कैदी दरखास्त करता है कि वो रिहाई के बाद बेल बॉन्ड और श्योरिटी जमा करा देगा तो कोर्ट उसकी स्थिति पर विचार करके उसे टेंपरेरी बेल दे सकती है। ये जमानत एक तय समयावधि के लिए होगी। इसके भीतर कैदी को बॉन्ड के साथ श्योरिटी कोर्ट में जमा करानी ही होगी।
अगर रिहाई के एक माह बाद भी कैदी बेल बॉन्ड या फिर श्योरिटी जमा नहीं कर पाता है तो संबंधित कोर्ट मामले का स्वत: संज्ञान ले सकती है। वो या तो आदेश को मॉडीफाई कर सकती है या फिर कैदी को राहत देने के लिए जरूरी चीजें जमा करने की मियाद में इजाफा कर सकती है।
कई बार देखा गया है कि लोकल श्योरिटी न दे पाने की वजह से कैदी की रिहाई नहीं हो पाती। ऐसे मामले में कोर्ट फिर से विचार करके इस शर्त को हटा भी सकती है। जस्टिस संजय किशन कौल और जस्टिस एएस ओका की बेंच ने कहा है कि ऐसे मामले में लोकल श्योरिटी को हटा दिया जाए तो ही ठीक है। (एजेंसियां)