वर्ष में दो बार नवराञि आती हैं। नवराञि का समय मौसम के परिवर्तन का समय होता है। मौसम बदलने के कारण शरीर में पित्त बढ़ जाता है और जिसके नाश के लिए फल अथवा तरल पदार्थ लेना काफी अच्छा माना जाता है। नवराञि में नौ दिन व्रत रखने से शरीर की विकृतियां दूर हो जाती हैं। इस समय हमारे पर्यावरण में वायरस भी अधिक होते हैं।
नवराञि के दिनों जो हवन और महायज्ञ किए जाते हैं। उससे इन सभी का अंत हो जाता हैं और पर्यावरण की भी शुद्धि होती है। नवरात्री के व्रत में सात्विक भोजन ही किया जाता है। सात्विक भोजन में दूध, घी, फल और मेवे आते हैं। ऐसा माना जाता है कि इनका भोजन उपवास में इसलिए मान्य है। क्योंकि ये भगवान को अर्पित की जाने वाली वस्तुएं हैं।
भगवद्गीता के अनुसार मांस, अंडे, खट्टे और तले हुए, पदार्थ राजसी-तामसी प्रवृतियों को बढ़ावा देते हैं। इसलिए वैदिक उपवास के दौरान इनका सेवन नहीं किया जाना चाहिए। यह हमारे शरीर को भी नुकसान पहुँचाते हैं। अमावस्या की रात से अष्टमी तक या पड़वा से नवमी की दोपहर तक व्रत नियम के अनुसार चलने से नौ रात यानी ‘नवरात्र’ नाम सार्थक है। चूंकि यहां रात गिनते हैं।
इसलिए इसे नवरात्र यानि नौ रातों का समूह कहा जाता है। रूपक के द्वारा हमारे शरीर को नौ मुख्य द्वारों वाला कहा गया है और इसके भीतर निवास करने वाली जीवनी शक्ति का नाम ही दुर्गा देवी है जिस प्रकार ऋतु परिवर्तन से सभी चीजों में परिवर्तन होने लगता है। जैसे पेड़ पौधे ,अनाज आदि, उसी प्रकार हमें भी नए ऋतु के नए अनाज खाने के लिए अपने शरीर को तैयार करना होता है।
जब हम उपवास करते हैं तो हमारे पाचनतंत्र को आराम मिलता है और जो भी हमारे शरीर में कमजोरीयां होती है, पाचन तंत्र के ज्यादा ना काम करने से ख़त्म होने लगती है। क्योंकि हमारा शरीर आराम से इनकी मरम्मत में जुट जाता है। हमारा पाचन तंत्र नये अनाज को पचाने के लिये भी ज्यादा अच्छे से काम कर पाता है। हिन्दू धर्म में साल में दो बार नवरात्री मनाई जाती हैं। इस समय इन नियमों का पालन करने से ऋतु परिवर्तन में होने वाली बीमारियों से भी बचा जा सकता है।
अमृता श्रीवास्तव, बेंगलुरु की कलम से…