[यह लेख डॉ. एलाङबम विजय लक्ष्मी ने मणिपुर में जारी हिंसा पर तेलंगाना समाचार के पाठकों के लिए भेजा है। मणिपुर के ऐतिहासिक लंबे लेख के लिए हम लेखिका के प्रति आभार व्यक्त करते है। साथ ही इस लेख में उल्लेखित विचार लेखिका के हैं।]
मणिपुर में मैतै और चौंतीस से भी अधिक जनजातियाँ सदियों से एक साथ रह रहे हैं। भौगोलिक दृष्टि से मणिपुर चारों ओर से नौ पर्वत मालाओं से घिरा एक पहाड़ी प्रदेश है। मैदानी क्षेत्र लगभग 10 प्रतिशत में प्रमुखतः मैतै और 90 प्रतिशत के पहाड़ी क्षेत्र में जनजातियाँ निवास करती हैं। हाओ अर्थात इन जनजातियों में से विशेषकर ताङखुल और कबुई के साथ मैतै लोगों का समाज-सांस्कृतिक संबंध रहा है। अनेक पर्वों-त्योहारों के आयोजन तथा संस्कार ऐसे हैं जो मैतै तथा जनजातियों के प्रगाढ़ संबंधों को प्रामाणित करते हैं। प्राचीन मान्यता के आधार पर कहा जाता है कि हाओ और मैतै भाई-भाई थे। जिसमें से एक घाटी में बस गया और दूसरा सीमा रक्षा के लिए पहाड़ों पर। भौगोलिक दूरी के बावजूद दोनों के बीच जो प्रेम का संबंध था, वह बना रहा, दूर नहीं हुआ। यह विभिन्न आयोजनों से साबित होता है। जैसे- मेरा वायुङबा के अवसर पर मेरा अर्थात मणिपुरी वर्ष के सातवें महीने के पूर्णिमा के दिन घाटी का भाई आकाश-दीप जलाता है।
माना जाता है कि ऐसा करके वह पहाड़ पर बसे अपने भाई को अपनी सलामती का संदेश देता है और मेरा हौचोङबा त्योहार में हाओ सम्प्रदाय के लोग राजमहल तक विभिन्न सामग्रियों के साथ आते हैं और घाटी के लोगों के साथ भेंट का आदान-प्रदान करते हैं। इतना ही नहीं मैतै शादी के समय माता-पिता द्वारा वधु को हावो वर्ग द्वारा बनाया जाने वाला एक विशेष वस्त्र लोयुम फी का दिया जाना अनिवार्य होता है। दूर होने के कारण शादी के आयोजन में उपस्थित न रहने पर भी लोयुम फी के रूप में वधु को चाचा का आशीर्वाद होता है। मैतै के महत्वपूर्ण पर्व लाइहराओबा के आयोजन को सम्पन्न करते समय ताङखुल का नृत्य किया जाता है। इस तरह मणिपुरी समाज सांस्कृतिक स्वरूप में हाओ और मैतै के संबंध देखे जा सकते है। कहा जा सकता है मणिपुर विभिन्न जाति और जनजातियों रूपी फूलों का एक स्तबक है।
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मणिपुर के ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को समझने के लिए मणिपुर के लिखित शाही इतिहास चैथारोल कुम्बाबा को आधार बनाया जा सकता है, जिसके अनुसार ईस्वी सन् 33 में नोङदा लाइरेन पाखङ्बा ने शासन किया। मैतै पद्धति के शासन में उस समय परिवर्तन आया जब 18वीं शताब्दी में राजा पामहैबा जिसे गरीबनिवाज के नाम से भी जाना जाता है, ने शांति दास से दीक्षा लेकर वैष्णव धर्म को स्वीकार किया और साथ ही इसे राज धर्म भी घोषित कर दिया। परिणामतः अधिकांश मैतै वैष्णव धर्मावलंबी हो गए।
सन् 1762 में महाराज भाग्यचन्द्र के शासनकाल में अंग्रेजो के आगमन तथा 1891 में अंग्रेजों के हाथों मणिपुर की पराजय के साथ एक नए युग का आरंभ होता है। 1945 में जापानियों और एलाइड फोर्स के बीच हुए द्वितीय विश्व युद्ध का मणिपुर साक्षी रहा है। जापानी मणिपुर से आगे नहीं बढ़ पाए थे और यही इस युद्ध की समाप्ति का काल रहा है। यहाँ इसे जापान लान के नाम से जाना जाता है। इस युद्ध के बाद लोकतांत्रिक तरीके से महाराज बोधचन्द्र के नेतृत्व में Manipur Constitution Act, 1947 बना। यानी सन् 1947 में जब भारत आजाद हुआ, तब मणिपुर एक स्वतंत्र राज्य था और उसका अपना संविधान तक निर्मित हो चुका था। द्वितीय विश्वयुद्ध के प्रभाव से मणिपुर की सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक तथा सांस्कृतिक परिस्थितियाँ पूरी तरह बदल चुकी थी। अंग्रेज मणिपुर की भूमि छोड़ जा चुके थे। ऑक्टूबर सन् 1949 में मणिपुर के तत्तकालीन महाराज बोधचन्द्र और भारत सरकार के बीच शिलांग में हुई एक ट्रिटी के तहत मणिपुर प्रिन्सली स्टेट के रूप में भारत में विलय हुआ। तत्तपश्चात 1956 में मणिपुर एक केन्द्र शासित प्रदेश के रूप में भारत का अंग बन गया।
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1972 में यानी भारत में विलय के 24 वर्षों बाद मणिपुर को पूर्ण राज्य का दर्जा मिला। 34 जनजातियों को संविधान के अनुसार अनुसूचित जनजाति के रूप में मान्यता मिली। कुछ अल्पसंख्यक जनजातियाँ भी मणिपुर में निवास करती हैं, जो न तो अपने को कुकी समूह के अंतर्गत मानते हैं और न ही नागा समूह के अंतर्गत। इनके अलावा मणिपुर में इस्लाम धर्म को मानने वाले भी हैं, जिन्हें मणिपुरी भाषा में पांगल कहा जाता है। नेपाली, बिहारी और जैन समुदाय के लोग भी यहाँ निवास करते हैं। ये प्रायः व्यापार के सिलसिले में यहाँ आए थे। ‘फेडरेशन ऑफ हाओमी’ हाओ अर्थात नागा समूह और मैतै को ही मणिपुर के मूल निवासी होने का दावा करता है। तात्पर्य यह कि इन दोनों समूहों के अलावा बाकी समुदाय के लोग मणिपुर में देर से आए। कुकी लोगों के पहली बार मणिपुर आने के संबंध में इतिहासकार पद्मश्री आर. के. झलजित सिंह ने अपनी पुस्तक द हिस्ट्री ऑफ मणिपुर में महाराज नरसिंह के शासन काल 1844 से 1850 को ‘मणिपुर में कुकी लोगों के आगमन का काल’ कहा है।
मणिपुर के अंग्रेज पॉलिटिकेल एजेंट मेजर जेनरेल सर जेम्स जॉनस्टोन अपनी पुस्तक मणिपुर एंड नागा हिल्स में मणिपुर में कुकी के आगमन का समय 1830 से 1840 के बीच मानते हैं। फेडेरेशन ऑफ हाओमी द्वारा प्रकाशित आर. के. राजेन्द्र द्वारा लिखित पुस्तक मणिपुर आफ्टर द कमिंग ऑफ कुकीस में लिखा है, बर्मा के खोङसाइ गाँव से कुकी जैसै लोग कुकी लोगों से पहले मणिपुर आकर दूर-दराज के पहाड़ियों और सीमावर्ती अप्रशासनिक क्षेत्रों में बसते रहे हैं। इन कालों से लेकर अब तक कुकी लोगों का भारतीय सीमा में मणिपुर और मिजोरम के रास्ते प्रवेश जारी है और मणिपुर के दूर दराज के पहाड़ी इलाकों पर लगातार बसते रहे हैं। टी. एस गाङते ने कालान्तर में आने वाले कुकी लोगों को पुराने कुकी और नए कुकी कहकर बाँटा है। इसका खण्डन करते हुए राजकुमार राजेन्द्र लिखते हैं कि पहले आए कुकी समुदाय के गाङते, पाइते, सिमते, वाईफै, जौ और म्हार ही अनुसूचित है और ये मैतै तथा हाओ के साथ बहुत समय से रह रहे हैं। परेशानी वहाँ से शुरू होती है जहाँ अत्यधिक संख्या में कुकी लोग आते रहे और बसने लगे।
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अब तक जितने भी कुकी मणिपुर आ चुके है। उन्हें उपयुक्त स्थान पर अपनी जमीन चाहिए। होम लैंड, कुकी लैंड या अपनी जमीन या अलग प्रशासन। ह्यूमन राइट्स डिक्लरेशन की अवधारणा के अनुसार किसी भी समुदाय को अपनी जमीन का हकदार होने के लिए सबसे पहले उस समुदाय को उस स्थान पर लम्बे समय से एक मूल निवासी के रूप में रह रहे होना चाहिए। तमाम प्रमाणों के अनुसार मणिपुर में मैतै और नागा समुदाय के लोग ही मूल निवासी होने का दावा करते हैं और इसीलिए कुकी समुदाय के पास अपनी कहने के लिए जमीन अभी तक नहीं है। चुड़ाचाँदपुर पर कुकी अपना दावा कर रहा है। चुड़ाचाँदपुर मैतै महाराज चुड़ाचाँद के नाम पर बसाया गया था। मैतै राजा द्वारा बसाए गए इस क्षेत्र से मैतै को ही भगाया गया।
मणिपुर में ही नहीं विश्व के विभिन्न क्षेत्रों में एक सम्प्रदाय का दूसरे सम्प्रदाय के साथ संघर्ष और सहअस्तित्व के साथ सामंजस्य होता रहा है। मणिपुरी इतिहास में भी संघर्ष के अनेक प्रसंग उपलब्ध हैं। वर्तमान संघर्ष की बात करें, तो 20वीं शताब्दी के अंतिम दशकों में नागा-कुकी, मैतै – मैतै पांगल और कुकी- पाइते के बीच साम्प्रदायिक दंगे हुए हैं। ये संघर्ष बहुत लम्बे समय तक नहीं चले हैं, सिवाय नागा-कुकी संघर्ष के। दो-तीन दिन या सप्ताह भर में स्थिति सामान्य हो जाया करता है। सन् 1993 में नागा-कुकी के बीच हुए दंगे मे आगजनी और हत्या का क्रम चला। दोनों ही सम्प्रदाय के लोग एक-दूसरे पर आक्रमण करते रहे। दोनों के बीच समझौता करवाने के लिए मध्यस्थता का काम मैतै ने किया। दोनों ही सम्प्रदाय के लोगों को एक-दूसरे के प्रति विरोध भाव दूर करने का प्रयास मैतै ने किया जिसमें सफलता भी मिली।
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21वीं सदी में यह साम्प्रदायिक वैमनस्य 3 मई 2023 को मैतै और कुकी के बीच देखने को मिला। वास्तव में ऑल ट्रायबेल स्टूडेन्स यूनियन मणिपुर (ATSUM) द्वारा मीतै/मैतै द्वारा एस.टी. स्टेटस की माँग के विरोध में पहाड़ी जिलों चुड़ाचाँदपुर, सेनापति, काङपोकपी आदि में ट्रायबेल सोलिडेरिटी मार्च या रैली का आयोजन किया गया था। चुड़ाचाँदपुर की रैली में कुछ बन्दूकधारी शामिल हो गए तब स्थिति विगड़ने लगी। पहली नजर में यहाँ भड़की हिंसा का मुख्य कारण सुप्रिम कोर्ट से उच्च न्यायलय को मिले शेडूल ट्राइब स्टेटस के संबंध में दिया गया आदेश लग सकता है पर सिर्फ इसी को एक वजह मान लेना गलत होगा, क्योंकि यही एक वजह नहीं है जिसके कारण हिंसा दो महीने से भी अधिक समय तक चल रही है। क्या वजह है कि हिंसा थमने का नाम नहीं ले रही। अब भी लगातार गोलियाँ चल रही है। लोग घरों से पलायन कर रहे हैं। अपने गाँव की रक्षा करते हुए कुकी बन्दूकधारियों की गोलियों के शिकार हो रहे हैं। इतनी संख्या में सेना के आ जाने के बावजूद हिंसा पर नियंत्रण नहीं कर पा रही है।
इस हिंसा की अनेक वजह हो सकती हैं। जिसमें एक वजह राज्य सरकार द्वारा पर्यावरण और वन रक्षा के लिए उठाए गए कदम के साथ पोपी उगाने के विरुद्ध चलाए गए अभियान- ‘वार ऑन ड्रग्स’ को भी माना जा सकता है। राज्य सरकार ने रिजर्व्ड फोरेस्ट क्षेत्रों पर गैर कानूनी ढंग से कब्जा कर रखी जमीन से एंक्रोचर्स को हटाने के प्रयास के साथ न्यायालय के आदेशानुसार कुछ चर्चों के तोड़े जाने से चुड़ाचाँदपुर और काङपोक्पी जिले में असंतोष के स्वर सुनाई देने लगे थे। चुड़ाचाँदपुर एलेम्बली कोन्स्टिटुएन्सी के एम.एल.ए. एम. एल. खाओते के विधायक बनने के एक वर्ष पूरे होने के अवसर पर आयोजित कार्यक्रम के अन्तर्गत 28 अप्रेल, 2023 को मुख्यमंत्री को एक जिम का उद्घाटन करना था पर 27 अप्रेल की शाम को ही लोगों ने ऑपन जिम को तोड़ा और अगले दिन यानी जिस दिन मुख्यमंत्री को चुड़ाचाँदपुर में ऑपन जिम के उद्घाटन के लिए पहुँचना था, उस दिन इन्डिजिनस ट्रायबेल लीडर्स फोरम (आई टी एल एफ- जो केवल कुकी समुदाय के लोगों का संगठन है) के द्वारा सुबह 8 बजे से शाम 4 बजे तक नौ घण्टे का टोटल शट-डाउन की घोषणा कर दी गई। कहने का तात्पर्य हिंसा के लिए पृष्ठभूमि पहले से धीरे-धीरे बन रही थी। यह पहले की घटनाओं में व्यक्त आक्रोश में देखा जा सकता है। पर संयोग ऐसा रहा कि इसी बीच शेडूल ट्राइब संबंधी कोर्ट का वह आदेश आ गया। विरोधियों को अवसर मिल गया।
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अन्य स्थानों पर रैली शांतिपूर्वक सम्पन्न हो गई पर चुड़ाचाँदपुर की रैली अचानक हिंसक हो उठी। वहाँ बसे मैतै घरों से लोगों को डरा धमकाकर भगाया गया। घरों को लूटकर आग लगा दी गई। लोगों को मारा गया। हिंसा की यह आग कुकी बहुल क्षेत्रों मोरे और मोतबुङ जैसै इलाकों में भी फैल गई। स्थानीय अखबारों से प्राप्त सूचना के आधार पर चुड़ाचाँदपुर में 19 गाँवों में बसे कुल 1557 मैतै घरों को जला दिए गए। इसके अलावा 12 मन्दिरों को जलाकर राख कर दिया। मैतै लोग रातों-रात जिस अवस्था में थे, उसी अवस्था में जान बचाने के लिए भाग खड़े हुए। चुड़ाचाँदपुर से भागकर आने वाले मैतै लोगों में हर तबके के लोग थे। छोटे से लेकर बड़े पैमाने पर व्यापार करने वाले, सरकारी नौकरी करने वाले, निजी स्कूलों और सहकारी स्तर पर काम करने वाले और खिलाड़ी भी। प्रश्न उठता है, चुड़ाचाँदपुर में स्थित सभी मैतै घरों को नेस्तनाबूत कर पूरी जमीन को समतल करने से किस उद्देश्य की पूर्ति हो रही है। यही हाल मोरे में बसने वाले मैतै लोगों के साथ हुआ। जब मोरे में मैतै लोगों के घर जलने लगे तो कुछ मैतै म्याँमार की ओर भागे कुछ मोरे पुलिस स्टेशन की ओर। पर राज्य पुलिस की संख्या इतनी नहीं थी कि भीड़ को नियंत्रित कर सके।
चुड़ाचाँदपुर हिंसा के बाद कुकी बहुल इलाकों में हिंसा लगभग एक ही समय में एक साथ भड़की थी जैसे योजनाबद्ध ढंग से पूरी तैयारी के साथ इसे अंजाम दिया गया हो। जब 27 अप्रेल 2023 को चुड़चाँदपुर में ऑपन जिम तोड़े जाने के बाद सरकार ने वहाँ से स्टेट पुलिस कमाण्डो टीम सहित एडिश्नल फोर्स रखा गया था उसे 29 अप्रेल को हटाने का निर्णय लिया गया। इसी दिन डिपुटी कमिश्नर के कार्यालय में डिरेक्टर जेनेरेल ऑफ पुलिस (डी.जी.पी) मणिपुर पी. दोङेल जो कि एक कुकी है, की अध्यक्षता में सम्पन्न बैठक जिसमें डिपुटी कमिश्नर चुड़ाचाँदपुर, इस क्षेत्र के सभी एस डी ओ, वरिष्ठ पुलिस अधिकारी गण, ह्मार इनपुइ, ह्मार स्टूडेन्स एसोसिएशन्स, कुकी खाङलाइ लोम्पी, कुकी स्टूडेन्स ऑर्गनाइजेशन्स, यंग पाइते एसोसिएशन्स तथा जौमी स्टूडेन्स फेडरेशन्स ने भाग लिया था। इसी बैठक में पुलिस की एडिशनल टीम को हटाने का निर्णय लिया गया था। ऐसा न होता तो शायद हिंसा चुड़ाचाँदपुर तक ही सीमित रहती और नियंत्रित हो जाती। पर ऐसा नहीं हुआ।
प्रतिक्रिया स्वरूप 4 मई 2023 को घाटी के जिलों- इम्फाल पूर्व, इम्फाल पश्चिम, विष्णुपुर, थौबाल, ककचिङ आदि में चिन कुकी, मिजो, ह्मार लोगों, उनके घरों और दुकानों की शिनाख्त की जाने लगी। घरों और दुकानों को लूटने और जलाने का काम भी हुआ। इम्फाल में बसे कुछ कुकी लोगों को घर छोड़कर भागना पड़ा। अंतर इतना ही था कि इम्फाल में बने कुकी लोगों के कुछ घर मैतै घरों के नजदीक होने के कारण इतने नहीं जले जितने कि कुकी लोगों के गाँव के नजदीक बसे मैतै लोगों के घर जले।बल्कि गाँव के गाँव जला दिए गए। पर हिंसा यहीं खत्म नहीं हुई। 3 तारीख से आज तक पहाड़ों की तलहटी पर बसे मैतै गाँवों पर पहाड़ों से लगातार गोलियाँ बरसाई जा रही हैं। यहाँ तक कि स्नाइपर जैसे हथियार से लोगों को मार रहे हैं। एक बी.एस. एफ जवान भी स्नाइपर से ही मारा गया था। वर्षों से जो लोग साथ-साथ रह रहे थे, वे एक दूसरे के दुश्मन बन गए। गाँव वालों का खेती के लिए घर से निकलना संभव नहीं हो रहा, जबकि अभी फसल बोने का समय आ गया है। डरकर मैतै लोग रिलीफ कैंपों में आ रहे है या गाँव के स्त्री-पुरुष मिलकर दिन-रात अपने घर और गाँव की रक्षा में तैनात हैं। दो महीने के लगभग समय गुजर जाने के बाद भी स्थिति सामान्य नहीं हुई है।
भारतीय सेना से मदद की गुहार लगाते हैं तो उनका जवाब होता है- हमें इसका आदेश नहीं है। हथियारों से लैस कुकी लोगों को नियंत्रित करना बहुत जरूरी है। भारतीय सेना पर कुकी लोगों के साथ देने का आरोप लगाया जा रहा है और अनेक स्थानों पर घटने वाली घटनाओं से ऐसा प्रतीत भी हो रहा हैं। ऐसे में मैतै की बूढ़ी औरतें तक बन्दूक माँगने लगी हैं। स्थानीय टी.वी चैनल में एक बूढ़ी स्त्री कह रही थी, अगर सरकारें कुछ नहीं कर सकती तो हमें बन्दूकें दे दो। अब और सहने की शक्ति नहीं बची है। माँ होने के नाते हमें अपने बच्चों को बचाना है। मणिपुर को बचाना है। एक तरफ यह प्रश्न भी उठ रहा है कि क्या हम लोग भारतीय हैं ? कथाकथित मैन लैण्ड इण्डिया के किसी क्षेत्र में ऐसी हिंसा हो रही होती तो भी क्या प्रधान मंत्री इसी तरह एक शब्द बोले बिना रहते? उत्तरपूर्व के लोगों की इतनी उपेक्षा क्यों? यहाँ तक कहा जाने लगा है कि इस तरह उपेक्षित रहने के बजाय विलय पूर्व की स्थिति बेहतर है। अब हम भारत का हिस्सा नहीं बने रहना चाहते।
यह सवाल उठना भी जायज है क्यों कि सुरक्षा के लिए मणिपुर लाई गई सेना के सामने घर जलाया जाता है, सम्पत्ति नष्ट कर दी जाती है, और मदद माँगने पर टका सा जवाब आता है हमें इसका आदेश नहीं है। भारतीय सेना मूक दर्शक बने घरों को राख बनते देखती रहती है। आश्चर्य तो तब ज्यादा होता है जब हिंसा पर तुरंत नियंत्रण के लिए मणिपुर पहुँचे रेपिड एक्शन फोर्स के द्वारा किए गए आपत्ति जनक कार्य सीसी टी.वी कैमरे में कैद हो जाते हैं। इम्फाल के न्यू चेक्कोन क्षेत्र में कबुइ नागा समुदाय की एक दुकान थी, जहाँ मैतै पांगल यानी मुसलमान माँस बेचता था, उस दुकान को आग लगाते हुए ये सेना पकड़ी गई। रात के समय पेट्रोलिंग करते हुए इम्फाल के ही मोइराङखोम से सिङजमै तक खड़ी गाड़ियों को तोड़फोड़ करते देखे गए। एक समुदाय विशेष का पक्ष लेते हुए जैसे लगने वाली उनकी गतिविधियाँ परेशान करने वाली तो है ही।
हिंसा के 27वें दिन यानी 29 मई को केन्द्रीय गृह मंत्री श्री अमित शाह जी मणिपुर पधारे थे। उसी दिन रात मुख्य मंत्री, अन्य मंत्री गण तथा सेना एवं पुलिस अधिकारियों के साथ बैठक भी की। अगले दिन हिंसा के एपिसेन्टर चुड़ाचाँदपुर सहित मोरे और काङपोकपी गए। चिन कुकी समुदाय के सामाजिक संगठनों के सदस्यों से मिले। उनकी यात्रा से लोगों में आशा जगी कि अब हिंसा थम जाएगी। गृह मंत्री पन्द्रह दिनों के बाद फिर आने का वादा करके चले गए। 10 जून 2023 को असम के मुख्यमंत्री श्री हेमंत विश्व शर्मा कुछ घंटों के लिए आए। अगले दिन यानी 11 जून को चिन कुकी मिज़ो समुदाय के जिनके साथ केन्द्र तथा राज्य सरकार का ससपेन्शन ऑफ ऑपरेशन (सू) चल रहा है, दो गुटों- यू.पी.एफ तथा के. एन ओ. के लीडरों से मिले।अगले दिन ही युनाइटेड कुकी लिबरेशन फ्रंट (यू के एल एफ) के चैयरमैन एस.एस हाओकिप ने बी जे पी पर 2017 के चुनाव जीताने के लिए श्री राम माधवजी और असम के मुख्य मंत्री हेमंत विश्व शर्मा के साथ हुई संधि के अनुसार उनका सहयोग लेने का खुलासा किया। इसे हेमंत विश्व शर्मा ने नकारा है पर बी जे पी पर एक सवाल तो उठता ही है।
हिंसा के 39 वें दिन राज्यपाल अनुसुइया उईके की अध्यक्षता में 51 सदस्यों की एक शांति समिति बनी। इसमें शामिल सदस्यों का एक-दूसरे से मत भेद के चलते समिति कारगर सिद्ध नहीं हुई। इस समिति की एक बैठक तक नहीं हो पाई। आज भी मणिपुर जल रहा है। पहले पहाड़ की टलहटियों पर गोलीबारी हो रही है, जिससे घबराकर गाँववाले घर छोड़-छोड़कर सुरक्षित स्थानो पर बने रिलीफ कैंपों में शरण ले रहे हैं। अब कुकी बन्दूकधारी गोलियों के साथ बमों से भी आक्रमण करने लगे है। कुकी लोगों ने आतंकवादियों की तरह विष्णुपुर जिले के क्वाकता क्षेत्र में एक पुल पर बम फोड़ा, जिससे पाँच लोग घायल हो गए जिनमें दो बच्चे भी शामिल थे। इससे पहले सुगुनू क्षेत्र में भी एक वी डी एफ (विलेज डिफेन्स फोर्स) का एक जवान घायल हो चुका है। सुगुनू इलाके में एक गाय बम फटने से मर चुकी है। अब मैतै कुकी के बीच साम्प्रदायिक दंगे से जो हिंसा शुरू हुई उसका एक अलग ही स्वरूप सामने आ रहा है।
हिंसा के कारणों में एक राजनीति के होने की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता। मणिपुर सरकार के दस कुकी विधायक पहले ही अलग प्रशासनिक व्यवस्था की माँग कर चुके हैं। विचारणीय है कि मैतै द्वारा शेडूल ट्राइब स्टेटस की माँग इस दंगे की वजह है, तो दस कुकी विधायक जिनमें दो मंत्री भी शामिल हैं, Separate Administration पृथक प्रशासन व्यवस्था की माँग क्यों करते ? मैतै द्वारा जनजाति होने की माँग और विधायकों के विरोध और अविश्वास का क्या संबंध हो सकता है? दस विधायक वर्तमान मुख्यमंत्री के साथ बातचीत तक के लिए तैयार नहीं है। उनकी माँगे क्या पहाड़ की तलहटी में बसे गाँवों में रहने वाले किसानों, मेहनतकश लोगों, रोज की कमाई पर जीने वालों को मारने से पूरी हो जाएँगी? बिलकुल नहीं, इसके लिए उन्हें सरकारी उपयुक्त माध्यम अपनाना चाहिए।
विचारणीय है, पृथक प्रशासनिक व्यवस्था से क्या अंतर आ जाएगा? कुकी लोगों का दावा है कि मैतै उन्नत जाति है। राज्य सरकार में प्रतिनिधि ज्यादा है। सरकारी नौकरी में भी मैते की संख्या ज्यादा है। पर कुकी जिन पदों पर कार्यरत है उसे देखें तो उनकी संख्या भी कम नहीं कही जाएगी। मणिपुर के डी जी पी के पद पर पी डोङेल है। उन्ही का छोटा भाई क्रिस्टोफर डोङेल ए डी जी पी (इंटलिजेन्स) अन्य अनेक सरकारी पदों के अलावा मणिपुर विश्वविद्यालय में ही नहीं देश के विभिन्न विश्वविद्यालयों में अनेक कुकी कार्य़रत हैं। फिर भी क्या वजह है कि अलग प्रशासन की माँग करनी पड़ी।
वजह जो समझ में आती है, वह है- नारको टेरेरिज्म। राष्ट्र संघ द्वारा ड्रग्स की समस्या को गंभीरता से लेते हुए सन् 1989 से प्रति वर्ष 26 जून को ड्रग्स के विरोध दिवस के रूप में मनाया जाता है। एक समय लाउस, थाइलैंड और म्याँमा को ड्रग्स के गोल्डन ट्राएंगल के रूप में जाना जाता था। मणिपुर में पोपी की बढ़ती फसल को देखते हुए लोगों का डर यह है कि कहीं मणिपुर ड्रग्स का गढ़ न बन जाए। ड्रग्स की समस्या एकल समस्या नहीं है बल्कि इसके साथ अन्य समस्याएँ भी जुड़ी हुई हैं। उनमें सबसे प्रमुख समस्या है बड़ी संख्या में म्याँमार से कुकी चिन समुदाय के लोगों का मणिपुर में लगातार आना और बसना। गाँवों के विस्तार के साथ नए-नए गावों का बसना। दूर दराज के पहाड़ों पर पोपी के फसलों में लगना। सस्ते मजदूर के रूप में म्यांमार से आए लोगों का उपयोग – सब बातें एक दूसरे से कड़ी के रूप में जुड़ी हुई हैं। पड़ोसी देश म्याँमार की राजनीतिक अस्थिरता और मिलिट्री जुन्टा का शक्ति में आने के बाद से म्याँमार से गैर कानूनी ढंग से कुकी समुदाय के लोग लगातार मणिपुर की सीमा में प्रवेश कर रहे हैं।
हिंसा के मूल में गैर कानूनी ढंग से आना फिर इन लोगों का पोपी की फसल में लगना, म्याँमार से ड्रग्स ट्राफिकिंग और नारको टेरेरिज्म ही है। कुकी मिलिटेंस म्याँमार से प्रमुख रूप से हेरोइन का व्यापार करने के लिए बोर्डर टाउन मोरे पर कब्जा करने का प्रयास कर चुके हैं। इन्होंने म्याँमार के चिन नेश्नल आर्मी उग्रवादी समूह की आड़ में मणिपुर में भी पहाड़ी जिलों में संचालित करना शुरू कर दिया और काङपोकपी क्षेत्र में बड़े पैमाने पर पोपी की फसल होने लगी। यही चुड़ाचाँदपुर, तेङनौपाल तथा कामजोङ के सीमांत क्षेत्रों का भी हाल है। ड्रग्स का व्यापार फलने-फूलने लगा। स्थानीय अखबारों में इम्फाल के कुकी क्षेत्र लाङगोल में ड्रग्स बनाने वाले मोबाइल लैब मिलने की खबर इस बात का सबूत है। इसमें राजनीतिक शक्ति सम्पन्न लोग या राजनीति के आश्रय पाने वाले भी जुड़ने लगे। यही नहीं बन्दूकधारियों के सहारे कुछ चुनाव भी जीत गए और सरकार बनाने में सहयोग करने लगे। दस कुकी विधायकों ने प्रशासन की अलग व्यवस्था की माँग की है और बन्दूक के सहारे एक कुकी होमलैंड की स्थापना का प्रयास जारी है।
इसी माँग के चलते हजारों लोग बेघर हो गए हैं। कितने ही लोग कल तक जो अच्छी जिन्दगी जी रहे थे वे अचानक सड़क पर आ गए हैं। कितनों ने अपनों को खोया है। कितने ही युवा मातृभूमि की रक्षा का जज़्बा लिए छाती पर गोली खा रहे हैं और कितने ही प्राण न्यौछावर करने के लिए तत्पर है। अभी भी म्याँमार से लोगों का आना रुका नहीं है। कुकी मिलिटेंट्स द्वारा सस्पेन्शन ऑफ ऑपरेशन के ग्राउंड रूल पूरी तरह से तोड़े जाने के बावजूद उन्हें नियंत्रण नहीं किया जा रहा। अगर लोग इस हिंसा को मैतै कुकी के बीच साम्प्रदायिक संघर्ष मानते है तो गलत होगा, क्योंकि यह केवल दो सम्प्रदायों के बीच संघर्ष नहीं है। वास्तव में यह देश के आन्तरिक और बाह्य सुरक्षा के लिए बहुत बड़ा खतरा है, एक चुनौती है। इसकी गंभीरता को समझने की जरूरत है। नहीं तो चिड़िया खेत चुग जाएगी और हम सब देखते रह जाएँगे।
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डॉ. एलाङबम विजय लक्ष्मी
सह आचार्य, हिंदी विभाग
मणिपुर विश्वविद्यालय
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